संपादकीय

कोर्ट फीस के स्थान पर दोषियों से जुर्माना

-विमल वधावन योगाचार्य
एडवोकेट (सुप्रीम कोर्ट)

आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने सन् 1883 में ‘सत्यार्थप्रकाश’ नामक ग्रन्थ के प्रथम संस्करण में ब्रिटिश न्याय व्यवस्था में कोर्ट फीस को लेकर बड़े स्पष्ट शब्दों में एक सिद्धान्त व्यक्त किया था कि न्याय करने के बदले में फीस की माँग करना अपने आपमें ही एक अन्याय है। कोर्ट फीस को लेकर किया गया यह उल्लेख सत्यार्थप्रकाश के बाद के संस्करणों में नहीं मिलता। हो सकता है विषय भिन्नता के कारण इसे बाद में हटा दिया गया हो। परन्तु यह सिद्धान्त अपने आपमें एक खरा सिद्धान्त लगता है। एक सामान्य परिस्थिति में यदि दो व्यक्ति झगड़ते हुए किसी प्रबुद्ध वरिष्ठ के पास अपना झगड़ा सुलझाने के लिए पहुँचें और वह वरिष्ठ उनके बीच न्याय की व्यवस्था स्थापित करने के बदले फीस की माँग करने लगे तो यह माँग वास्तव में अटपटी सी ही लगेगी।
प्राचीन भारत में राजाओं के पास ही न्यायिक अधिकार होते थे, परन्तु न्याय के बदले कोर्ट फीस जैसी किसी परम्परा के बारे में कभी सुनने को नहीं मिला। यहाँ तक कि इस्लामिक शासन के दौरान भी कोर्ट फीस जैसी व्यवस्था देखने-सुनने में नहीं आती। ब्रिटिश शासन के दौरान ही न्याय व्यवस्था में कोर्ट फीस की परम्परा प्रारम्भ हुई। 18वीं शताब्दी में कोर्ट फीस के भुगतान को यह कहकर उचित ठहराने का प्रयास किया गया कि यह व्यवस्था निरर्थक मुकदमेंबाजी को रोकने में सहायक होगी। 18वीं शताब्दी से आज तक असंख्य लोग न्याय व्यवस्था से न्याय पाने की माँग करने के बदले शासन को कोर्ट फीस का भुगतान करते चले आये हैं। परन्तु लगभग चार शताब्दियों से चल रही इस व्यवस्था ने स्वयं ही यह सिद्ध कर दिया है कि कोर्ट फीस का उद्देश्य पूरा नहीं हो पाया। अर्थात् कोर्ट फीस निरर्थक मुकदमेंबाजी को रोक नहीं पाई।
स्वतंत्रता के बाद न्याय और शासन में केवल कागजी परिवर्तन हुआ, संविधान के द्वारा अब कोर्ट फीस का अधिकार राज्य सरकारों को दे दिया गया। केवल सर्वोच्च न्यायालय में जमा की गई कोर्ट फीस ही केन्द्र सरकार को प्राप्त होती है। कई राज्यों ने मुकदमें की कीमत के प्रतिशत आधार पर कोर्ट फीस का निर्धारण किया तो कुछ राज्यों ने हर प्रकार के मुकदमें के लिए एक समान कोर्ट फीस का निर्धारण किया। कोर्ट फीस का उद्देश्य अब बदल दिया गया। यह कहा जाने लगा कि कोर्ट फीस का प्रयोग न्याय व्यवस्था के खर्च में काम आता है।
न्याय का यदि सैद्धान्तिक विश्लेषण किया जाये तो यह स्पष्ट होता है कि जो व्यक्ति अपनी याचिका लेकर अदालत के समक्ष पहुँचता है वह अपने लिए किसी नये अधिकार या लाभ की प्रार्थना नहीं करता, बल्कि वह अपने अधिकारों के हनन के विरुद्ध उपाय की माँग करता है। सामान्य शब्दों में कानून का अभिप्राय यह नहीं होता कि कोई व्यक्ति किसी व्यवस्था से लाभ कमाने के लिए अदालत की शरण ले, बल्कि वह अपने विरुद्ध होने वाली गैर कानूनी हानि को पूरा करने के लिए अदालत के समक्ष पहुँचता है। दूसरे शब्दों में अदालत के समक्ष पहुँचने वाला प्रत्येक व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति द्वारा किये गये किसी न किसी गैर कानूनी कार्य से पीड़ित होता है। ऐसे पीड़ित व्यक्ति को सांत्वना देकर यथाशीघ्र उसकी पीड़ा दूर करने के प्रयास प्रारम्भ करने के स्थान पर न्याय व्यवस्था उससे पहले कोर्ट फीस की माँग करती है। इस प्रकार न्याय व्यवस्था यदि उसकी हानि को पूरा करने का कार्य सम्पन्न कर भी देती है तो भी वह हानि पूरी नहीं होती हुई दिखाई देगी, क्योंकि उसका एक हिस्सा न्याय व्यवस्था ने अपने पास रख लिया।
न्याय व्यवस्था वास्तव में राज्य का एक महान कत्र्तव्य है जिसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को अपनी पीड़ा के विरुद्ध निष्पक्ष न्यायाधीशों के समक्ष सुनवाई का अधिकार दिया जाता है। यह सुनवाई का अधिकार संविधान द्वारा प्रदत्त मूल अधिकार के समकक्ष है। इस सुनवाई के अधिकार के लिए नागरिकों से कोर्ट फीस की माँग करना उचित नहीं लगता। भारत के विधि आयोग ने सन् 1958 में अपनी 14वीं रिपोर्ट में यह स्पष्ट सिफारिश की थी। विधि आयोग ने इस व्यवस्था को पूरी तरह से अनुचित ठहराया था। विधि आयोग के साथ-साथ सर्वोच्च न्यायालय ने भी अपने कई निर्णयों में सिद्धान्त रूप से यह कहा है कि लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में न्याय की स्थापना करना सरकारों का प्रभुसत्ता के समकक्ष कार्य है। दूसरे शब्दों में न्याय भगवान के दर्जे का दैविक कार्य है। ऐसे कार्यों के लिए फीस की माँग कदापि उचित नहीं हो सकती। परन्तु सर्वोच्च न्यायालय ने सदैव यह निर्णय सरकारों के विवेक पर ही छोड़ा।
जहाँ एक तरफ सरकारें और अदालतें गरीबों, महिलाओं, अपंगों और वरिष्ठ नागरिकों को निःशुल्क कानूनी सहायता का दावा करती हैं, वहीं सरकारों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि न्याय व्यवस्था का सम्पूर्ण कार्य ही दिव्य कार्य है। इसमें पीड़ित नागरिकों से कोर्ट फीस की माँग उचित नहीं लगती। इसके विपरीत न्याय व्यवस्था में एक नई सोच पैदा की जानी चाहिए कि यदि न्याय व्यवस्था के खर्च सरकार के अतिरिक्त किसी अन्य पर डालने ही हैं तो उन लोगों पर यह बोझ पड़ना चाहिए जिनके कारण याचिकाकर्ता नागरिकों को पीड़ा दी गई। अर्थात् दोषी पक्ष से जुर्माने की तरह भारी राशियाँ वसूल की जानी चाहिए। अपराधी सिद्ध होने पर अपराधियों से जुर्माना वसूल किया जाये। एक बार से अधिक अपराधी सिद्ध हुए अपराधियों से जुर्माने की राशि भी कई गुना बढ़ाकर वसूल की जाये। झूठ बोलने वाले गवाहों पर भारी जुर्माना लगाया जाये। दीवानी मुकदमों में भी पूरी तरह से निराधार मुकदमेंबाजी करने वालों पर जुर्माना लगाया जाये और यहाँ तक कि सरकारी अधिकारियों के पक्षपातपूर्ण व्यवहार के कारण जब निरर्थक मुकदमेंबाजी चलती है तो उसका खर्च भी दोषी सरकारी अधिकारियों से व्यक्तिगत रूप में वसूल किया जाये।
इस प्रकार पीड़ित व्यक्तियों से कोर्ट फीस वसूल करने के स्थान पर यदि न्याय व्यवस्था दोषी, झूठे, पक्षपातपूर्ण व्यवहार करने वाले लोगों की स्पष्ट पहचान करके उनके विरुद्ध भारी जुर्माने की व्यवस्था लागू करने की परम्परा अपना ले तो निःसंदेह निरर्थक मुकदमेंबाजी पर लगाम लग पायेगी।

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