संपादकीय

आजीवन कारावास से मुक्ति?

-विमल वधावन योगाचार्य
एडवोकेट (सुप्रीम कोर्ट
)
स्वतंत्रता के बाद भारत की आपराधिक न्याय व्यवस्था में आजीवन कारावास के प्रावधान जोड़ते समय इन्हें मृत्युदण्ड से छोटे विकल्प की तरह बताया गया। सारे विश्व में जिस प्रकार मृत्युदण्ड पर बहस चलती दिखाई देती है, उस प्रकार की बहस आजीवन कारावास पर नहीं होती। कुछ लोगों का मानना है कि आजीवन कारावास वास्तव में मृत्युदण्ड से भी अधिक दुःखदाई है। आजीवन कारावास हो या किसी सीमित अवधि का कारावास हो, किसी अपराधी को उसके परिवार और समाज से अलग करके जेल की चारदिवारी में जीवन बिताने के लिए बाध्य करने के पीछे दो मुख्य कारण होते हैं। प्रथम, कि वह अपराधी जेल की यातनाओं को देखते हुए भविष्य में कभी किसी प्रकार के अपराध को करने का विचार भी मन में न लाये। परन्तु समय के साथ-साथ आज जेलों की यह हालत हो गई है कि इन्हें अपराधियों का प्रशिक्षण केन्द्र कहा जाने लगा है। जेलों में चोरी-छिपे हर प्रकार की सुविधाएँ भ्रष्टाचारी मार्गों से पहुँच रही हैं। ऐसे वातावरण के चलते अपराधियों को समाज में रहकर अपराध करने से अधिक सुरक्षित वातावरण जेल के अन्दर ही मिल रहा है।
कारावास का दूसरा उद्देश्य जेल में रखकर अपराधी को सुधार के पथ पर ले जाने का भी होता है। अनेकों सुधारवादी विद्वानों तथा जेल पुलिस अधिकारियों ने सुधारवाद को कारावास का एक मुख्य उद्देश्य बताया है। सुधारवाद के सफल होने के साथ अपराधी स्वतः ही भविष्य में अपराधी प्रवृत्ति का त्याग करने के लिए प्रेरित हो जाता है। ब्रिटिश सरकार के समय अपराधियों के सुधारवाद और उन्हें विधिवत शिक्षित करने के प्रस्ताव सामने आये थे, परन्तु उन्हें अधिक खर्चीला और अव्यवहारिक बताकर रद्द कर दिया गया। जबकि वास्तविकता यह है कि जेलों में रह रहे अपराधियों को सुधार के पथ पर ले जाना देश की अर्थव्यवस्था पर बोझ नहीं अपितु सहायक ही सिद्ध होगा। स्वतंत्र भारत के लोकतांत्रिक दौर में तो अधिक खर्च का तर्क देकर सुधारवाद को लागू न करना हास्यास्पद ही होगा। परन्तु आज तक सुधारवाद को एक निर्धारित अभियान की तरह जेलों में लागू नहीं किया जा सकता। फिर भी कुछ विवेकशील और दार्शनिक जेल उच्चाधिकारियों के अनेकों छुट-पुट प्रयास सुधारवाद का झण्डा बुलन्द करते हुए दिखाई देते हैं। ऐसे प्रयासों को नियमित करने की आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त भी अनेकों अपराधी ईश्वर कृपा से भी स्वतः ही अपने जीवन को सुधारने के पथ पर चलते हुए दिखाई देते हैं। ऐसे व्यक्तिगत प्रयासों को भी कई प्रकार से प्रोत्साहित किया जा सकता है।
भारत में लगभग 50 अपराधों के साथ आजीवन कारावास की सजा का प्रावधान जुड़ा है। केन्द्रीय गृह मंत्रालय के राष्ट्रीय अपराध रिकाॅर्ड ब्यूरो द्वारा प्रस्तुत आंकड़ों के अनुसार वर्ष, 2015 में जेल के अन्दर रहने वाली जनसंख्या का 55.8 प्रतिशत आजीवन कारावास के भोगी थे।
सर्वोच्च न्यायालय ने यह व्यवस्था दी है कि आजीवन कारावास के शाब्दिक अर्थ जीवन के अन्तिम सांस तक कारवास को ही सजा का मूल स्वरूप मानना चाहिए। कानून और न्याय दो अलग-अलग कार्य हैं। कानून का निर्माण और उसे लागू करने का दायित्व विधायिका और कार्यपालिका का है। जबकि न्याय का सम्पूर्ण दायित्व न्यायपालिका का होता है। किसी मुकदमें में सजा का निर्णय देने के बाद न्याय का कार्य समाप्त हो जाता है। उस सजा को लागू करने का दायित्व फिर से कार्यपालिका के कंधों पर आ जाता है। जिसके लिए जेलों की व्यवस्था तथा कैदियों के साथ व्यवहार करने के अनेकों प्रावधान देश के सभी राज्यों ने अपने-अपने हिसाब से लागू कर रखे हैं। यहाँ तक कि भारत के सभी राज्यों ने आजीवन कारावास की सजा प्राप्त कैदियों को एक न्यूनतम निर्धारित अवधि पूरा करने तथा कुछ शर्तों को पूरा करने के बाद उनकी आजीवन कारावास की सजा को कम करने के प्रावधान भी लागू किये हैं। पंजाब राज्य में लागू प्रावधानों के अनुसार आजीवन कारावास की सजा के मामलों में पुरुषों को वार्षिक छुट्टियों सहित 14 से 20 वर्ष पूरा करने के बाद शेष सजा माफी पर सरकारी विभाग के द्वारा सुनवाई का अधिकार है। आजीवन कारावास भोगी महिलाओं के मामलों में 6 से 14 वर्ष पूरा करने के बाद सरकार रिहाई पर विचार कर सकती है। इसी प्रकार हिमाचल प्रदेश में भी राज्य गृह सचिव की अध्यक्षता में गठित बोर्ड उन आजीवन कारावास भोगियों पर विचार कर सकता है जो छुट्टियों के अतिरिक्त वास्तविक 14 वर्ष जेल में काट चुके हों। कुछ कम गम्भीर मामलों में छुट्टियों सहित 14 वर्ष पूरा होने पर भी यह बोर्ड रिहाई पर विचार कर सकता है। भारत के सभी राज्यों में कुछ भिन्नताओं के साथ ऐसे प्रावधान लागू हैं। जेल अधिकारी स्वयं भी कैदियों को इस प्रकार के प्रावधानों के आधार पर उनके अधिकारों के प्रति सचेत करते रहते हैं। इन्हीं प्रावधानों के सहारे राज्य सरकारें प्रति वर्ष कभी स्वतंत्रता दिवस के मौके पर तो कभी अन्य अवसरों पर आजीवन कारावास वाले कैदियों की शेष सजा माफी के सामूहिक आदेश भी जारी करती रहती हैं।
वैसे सामान्यतः सर्वोच्च न्यायालय लम्बी अवधि की सजा काट चुके आजीवन कारावासी याचिकाकर्ताओं की शेष सजा माफी की प्रार्थना पर स्वयं विचार नहीं करती। ऐसे मामलों को विचारार्थ राज्य सरकारों के समक्ष भेज दिया जाता है। प्रत्येक राज्य के राज्यपाल के पास सजा माफी का अधिकार होता है। गत वर्ष हरियाणा सरकार ने एक सरकारी नीति के अन्तर्गत कत्ल के उन आजीवन कारावासियों की रिहाई का प्रावधान घोषित किया जिनकी आयु 75 वर्ष से अधिक हो चुकी हो और जो न्यूनतम 8 वर्ष जेल सजा काट चुके हों। सर्वोच्च न्यायालय इस सरकारी नीति की वैधता पर विचार कर रहा है, क्योंकि शेष सजा माफी का अधिकार केवल राज्यपाल का होता है, राज्य सरकार का नहीं। आजीवन कारावास के साथ स्वाभाविक रूप से गम्भीर अपराधों के आरोप जुड़े होते हैं। ऐसे अपराधियों को केवल तकनीकी प्रावधानों के सहारे शेष सजा माफी का लाभ देने के साथ-साथ सुधारवाद के पथ पर चलने वाले सजा भोगी लोगों को विशेष प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। सुधारवाद की योजनाएँ भी राज्य सरकारों को खुद ही लागू करनी चाहिए और उन्हीं सुधारवादी प्रयासों के बीच अनुशासित कैदियों की शेष सजा माफी की सिफारिश भी स्वयं जेल अधिकारियों के द्वारा की जाये या सम्बन्धित कैदी द्वारा सुधारवादी प्रयासों के प्रमाण प्रस्तुत किये जाने पर राज्य सरकार तथा राज्यपाल शेष सजा माफी पर विचार करें। आजीवन कारावास के कैदियों के द्वारा 14 से 20 वर्ष की न्यूनतम अवधि की जेल काटने के राज्य स्तरीय प्रावधानों में भी एकरूपता लाई जानी चाहिए। सुधारवाद का लाभ केवल युवावस्था में ही अधिक कारगर हो सकता है। यदि कैदी जेल के अन्दर ही 60 वर्ष से ऊपर का वरिष्ठ नागरिक बन चुका हो तो उसकी अपराधी प्रवृत्ति स्वतः ही लगभग समाप्त होने की सम्भावना होती है। इसलिए शेष सजा माफी के दो मुख्य स्तम्भ होने चाहिए – सुधारवाद और वृद्धावस्था।

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