संपादकीय

आसां नहीं है मुनव्वर होना !

-सुनील कुमार महला
फ्रीलांस राइटर कालमिस्ट व युवा साहित्यकार (उत्तराखंड)

हिंदी साहित्य में बेहद सुंदर और प्रचलित रचनाएं हैं, जिसे पढ़कर हिंदी की गंभीरता और उनकी उच्चता का पता चलता है। हिंदी साहित्य को उसके आयाम तक पहुंचाने में अनेक प्रसिद्ध लेखकों का योगदान रहा है, ठीक इसी प्रकार से यदि हम यहां उर्दू की बात करें तो उर्दू में मुनव्वर राणा का नाम प्रमुख है। मुनव्वर राणा वह शख्सियत रहे हैं, जिन्होंने अपनी रचनाओं से भारतीयों ही नहीं विदेशी लोगों का भी दिल जीता है। कुछ पंक्तियों को महसूस कीजिए और देखिए-
‘जिस्म पर मिट्टी मलेंगे पाक हो जायेंगे हम, एै ज़मीं एक दिन तेरी ख़ूराक हो जायेंगे हम।’हाल ही में देश के जाने-माने और बहुत मशहूर शायर, कवि, लेखक और गीतकार मुनव्वर राना का दिल का दौरा पड़ने से 71 साल की उम्र में लखनऊ में निधन हो गया है। नये साल में हमने एक महान शायर, शख्सियत को खो दिया। सच तो यह है कि उनका जाना पूरे साहित्य समाज में एक शून्य सा पैदा कर गया है, हर कोई गमजदा है। सर्वप्रथम उन्हें शत शत नमन और इस लेखक की विनम्र श्रद्धांजलि। जानकारी मिलती है कि ट्रांसपोर्ट के बिजनेस से उन्होंने शायर तक का सफर किया था। जनवरी के महीने के बारे में उन्होंने कभी यह लिखा था-‘दुख भी ला सकती है लेकिन जनवरी अच्छी लगी, जिस तरह बच्चों को जलती फुलझड़ी अच्छी लगी, रो रहे थे सब, तो मैं भी फूटकर रोने लगा मुझको अपनी मां की, मैली ओढ़नी अच्छी लगी।’ जानकारी देना चाहूंगा कि राना की नज्म ‘मां’ का उर्दू साहित्य जगत में एक अलग स्थान रहा है। मां के बारे में उन्होंने कहा था-‘चलती फिरती हुई आँखों से अज़ाँ देखी है। मैंने जन्नत तो नहीं देखी है माँ देखी है।’ अन्य पंक्तियां देखिए -‘इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है माँ बहुत ग़ुस्से में होती है तो रो देती है।’यह भी एक अजीब इत्तेफाक है कि इस साल जनवरी आई, और दुनिया से एक अजीम शख्सियत के चले जाने का दुख दे दिया। मुनव्वर राणा एक मकबूल आवाज थे।देश और दुनिया में भारत का नाम बुलंदियों पर ले जाने का काम मुनव्वर राना साहब ने किया और वो कभी किसी तारीफ के मोहताज नहीं थे।उनका निधन देश को एक बहुत बड़ी क्षति है। उनका सारा जीवन उर्दू साहित्य की रचनाओं में ही बीता और रचनाओं के कारण उनको देश में ही नहीं विदेशों में भी शोहरत, मान-सम्मान,ख्याति हासिल हुई। यह भी जानकारी देना चाहूंगा कि वो अपनी शक्तिशाली और विचारोत्तेजक कविताओं के लिए जाने जाते रहे हैं जो सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक मुद्दों को संबोधित करती रही है। हिंदी व उर्दू दोनों पर उनकी शानदार पकड़ रही है। वैसे मुनव्वर राणा उर्दू साहित्य की दुनिया में एक प्रमुख व्यक्ति रहे हैं। उन्होंने एक कवि के रूप में अपना करियर शुरू किया था और अपनी अनूठी शैली और शक्तिशाली भाषा के लिए जल्दी ही बड़ी पहचान हासिल कर ली। कहना ग़लत नहीं होगा कि मुनव्वर राणा की शायरी आंसुओं और तबस्सुम के मरक्कब (मिश्रण) से दिलों पर लिखी गई शायरी है। सच तो यह है कि ‘मुनव्वर राना की शायरी उस मुकद्दस मां की तरह है जिसकी छाती से उबलता हुआ दूध मसलक और मज़हब की कैद से आजाद हर नन्हें बच्चे के प्यासे होंठों तक पहुचने के लिए बेताब है।’ वतन के बारे में वे एक स्थान पर लिखते हैं -मदीने तक में हमने मुल्क की खातिर दुआ मांगी। किसी से पूछ लो, इसको वतन का दर्द कहते हैं।’ जानकारी देना चाहूंगा कि उन्होंने अपनी शायरियों में फारसी और अरबी के शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया और यह माना जाता है कि युवाओं के बीच में अपनी पैठ आसानी से बनाने के लिए मुनव्वर राणा ने ऐसा किया था। यहां यह कहना बिल्कुल भी गलत नहीं होगा कि आज युवाओं के बीच में ही राणा की शायरियां बहुत अधिक लोकप्रिय हैं। ‘मां’ को लेकर तो उनकी अनेक शायरियां लोगों की जुबान पर अमर हो चुकी हैं। उदाहरण के तौर पर दो पंक्तियों को देखिए ‘किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकान आई। मैं घर में सब से छोटा था मिरे हिस्से में मां आई…!’ मां पर उनका एक अन्य शेर देखिए-‘ अभी जिंदा है मां मेरी मुझे कुछ भी नहीं होगा, मैं घर से जब निकलता हूं दुआ भी साथ चलती है।’ मुनव्वर राणा का ये शेर सही मायनों में अमर हो चुके हैं। मुनव्वर राणा वह शख्सियत थे जिन्होंने एक तरफ अपनी शायरियों से सही मायनों में मां का मतलब बताया, तो वहीं तल्ख टिप्पणियों से सियासी गलियारों में भी समय-समय पर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई। उन्होंने हर मिज़ाज की ग़ज़लें लिखी थीं। उनकी नज़्म की खूबसूरती का तो क्या कहना। अपनी एक नज्म सिंधु में उन्होंने क्या खूब कहा है – ‘सिंधु सदियों से हमारे देश की पहचान है, ये नदी गुजरे जहां से समझो हिंदुस्तान है।इस नदी को देश की हरेक कहानी याद है,इसको बचपन याद है इसको जवानी याद है। ये कहीं लिखती नहीं है मुंह जबानी याद है, ऐ सियासत तेरी हरेक मेहरबानी याद है। ये नदी को कौन बतलाए ये पाकिस्तान है, ये नदी गुजरे जहां से समझो हिंदुस्तान है।’
बहरहाल यहां पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि मुनव्वर राना की आत्मकथा-‘मीर आकर लौट गया’ में उन्होंने अपनी जिंदगी के कई पहलुओं के बारे में लिखा है। भाई-बहन के पवित्र रिश्ते पर वे शेर कहते हैं और लिखते हैं- ‘किसी के ज़ख़्म पर चाहत से पट्टी कौन बांधेगा,अगर बहनें नहीं होंगी तो राखी कौन बांधेगा।’ जानकारी देना चाहूंगा कि उन्होंने अपनी कविताओं के कई संग्रह प्रकाशित किए हैं, जिनमें “खाकान ए इश्क”, “मैं नहीं मानता”, “सर-ए-वादी-ए-सबा” और “बातें” शामिल हैं। राणा की कविताओं का हिंदी, उर्दू, गुरुमुखी और बांग्ला में भी अनुवाद और प्रकाशन हुआ है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि मुनव्वर राणा ने महत्वपूर्ण मुद्दों के बारे में जागरूकता बढ़ाने और यथास्थिति को चुनौती देने के लिए एक मंच के रूप में अपनी कविता का उपयोग किया है। वो विवादास्पद विषयों पर अपने निर्भीक और निडर दृष्टिकोण के लिए जाने जाते रहे हैं, और उनके काम ने अनेकानेक लोगों को प्रेरित और सशक्त किया है। यहां पाठकों को यह भी जानकारी देना चाहूंगा कि उनकी उर्दू रचनाओं को लेकर उन्‍हें कई सम्‍मानों और पुरस्‍कारों से नवाजा गया था, जिनमें अमीर खुसरो पुरस्कार, मीर तकी मीर पुरस्कार, गालिब पुरस्कार, डॉ. जाकिर हुसैन पुरस्कार और सरस्वती समाज पुरस्कार सहित अन्य पुरस्कार शामिल हैं। जानकारी देना चाहूंगा कि उन्हें उनकी कविता पुस्तक, शाहदाबा के लिए प्रतिष्ठित साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। हालांकि यहां यह भी उल्लेखनीय है कि उनकी किताब ‘शाहदाबा’ के लिए 2014 का उर्दू साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला था, लेकिन केंद्र सरकार के खिलाफ अवॉर्ड वापसी मुहिम में उन्होंने अपना यह पुरस्कार लौटा दिया था। इतना ही नहीं, जानकारी मिलती है कि वर्ष 2012 में उन्हें उर्दू साहित्य की सेवाओं के लिए शहीद शोध संस्थान ने माटी रतन सम्मान भी दिया था। वे उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी के अध्यक्ष भी रहे लेकिन बाद में उन्होंने यहां से इस्तीफा दे दिया था। पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि मुनव्वर राणा का जन्म 26 नवंबर 1952 को उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले के एक गांव में हुआ था। विभाजन की उथल-पुथल के दौरान, उनके अधिकांश करीबी रिश्तेदार, जिनमें उनकी चाची और दादी शामिल थीं, पाकिस्तान में सीमा पार कर गए थे, लेकिन उनके पिता ने भारत के प्रति प्रेम के कारण यहां रहना चुना। बाद में, उनका परिवार कोलकाता चला गया, जहाँ युवा मुनव्वर ने अपनी शिक्षा पूरी की। अंत में यही कहना चाहूंगा कि बहुत कम शख्स होते हैं जो फिरक़ा परस्ती(साम्प्रदायिकता) और नफ़रत के अंधेरे को मोहब्बत में बदल देते हैं। मुनव्वर राना एक ऐसी ही शख्सियत थे।’बादशाहों को सिखाया है क़लंदर होना‌।आप आसान समझते हैं मुनव्वर होना।’

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