संपादकीय

पशुओं का न्यायिक अस्तित्व

-विमल वधावन योगाचार्य
(एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट)

पंजाब हरियाणा उच्च न्यायालय ने करनैल सिंह नामक याचिकाकर्ता की याचिका पर जारी अपने निर्णय में एक सर्वोच्च आध्यात्मिक सिद्धान्त का उल्लेख करते हुए कहा है कि समूचे ब्रह्माण्ड में कोई भी प्राणी किसी से छोटा या बड़ा नहीं है। मनुष्य प्रकृति से ऊपर नहीं हो सकते। किसी भी प्राणी को दूसरे के अधिकारों को कुचलने का कोई अधिकार नहीं है। उच्च न्यायालय ने ईशोपनिषद् के हवाले से उक्त सिद्धान्तों का उल्लेख करते हुए हरियाणा सरकार को यह आदेश दिया है कि सभी पशुओं को भी मनुष्यों की तरह ही एक प्राणी माना जाये। इस आदेश के बाद हरियाणा में सभी पशुओं को एक कानूनी या न्यायिक अस्तित्व प्राप्त होगा। उच्च न्यायालय की इस घोषणा का प्रभाव यह होगा कि इन पशुओं के अधिकारों की रक्षा के लिए कोई भी मानव नागरिक अदालतों में उनका संरक्षक बनकर मुकदमा प्रस्तुत कर सकेगा।
पंजाब हरियाणा उच्च न्यायालय का यह निर्णय कुछ वर्ष पूर्व उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय के उस निर्णय के समान है जिसमें गंगा को एक कानूनी अस्तित्व घोषित करते हुए उन सभी संरक्षणों और मूल अधिकारों के योग्य ठहराया है जो किसी भी एक भारतीय नागरिक या कानूनी संस्था अथवा किसी अन्य कानूनी अस्तित्व के योग्य होते हैं।

सर्वोच्च न्यायालय ने 1969 के एक ‘योगेन्द्र नाथ नस्कर’ निर्णय में यह स्पष्ट किया था कि हिन्दू मंदिरों में स्थापित मूर्तियों का भी एक न्यायिक अस्तित्व (Juristic Entity) होता है जो सम्पत्तियाँ धारण करने और कर लगाने के योग्य होती हैं। बेशक यह कार्य उन लोगों के माध्यम से होता है जो इन सम्पत्तियों के प्रबन्धन का दायित्व उठाते हैं।
सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय में कई पुराने ब्रिटिश निर्णयों का भी संदर्भ प्रस्तुत किया गया है। अनेकों मामलों में इस सिद्धान्त का अनुसरण किया गया है। पूर्व निर्णयों में न्यायालयों ने यह भी कहा है कि किसी पूजनीय मूर्ति आदि को न्यायिक अस्तित्व के योग्य ठहराना तभी सम्भव है जब उसका सम्बन्ध उसमें श्रद्धा व्यक्त करने वाले और उसका प्रबन्धन करने वाले संरक्षक लोगों के साथ जोड़ा जाये। क्योंकि किसी पूजनीय अस्तित्व के साथ सम्पत्तियों का सम्बन्ध जोड़ा जाना तो केवल एक सैद्धान्तिक मान्यता है जो उस अस्तित्व के साथ जुड़े प्रबन्धकों के बिना पूरी नहीं होती। वास्तव में यह प्रबन्धक ही उस अस्तित्व की सेवा, संरक्षण और संवर्द्धन आदि का कार्य करते हैं।
परम वास्तविकता यह है कि सर्वोच्च शक्ति अर्थात् परमात्मा का कोई रूप या आकार नहीं है। वह केवल मात्र एक शुद्ध और पवित्र शक्ति ही है जिसके समान दूसरा कोई नहीं। वास्तव में चारो तरफ केवल परमात्मा का ही स्थाई अस्तित्व है। उसके अतिरिक्त कुछ भी स्थाई अस्तित्व का नहीं है।
सर्वोच्च न्यायालय ने इसी प्रकार वर्ष 2000 के ‘शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी, अमृतसर’ नामक निर्णय में भी न्यायिक व्यक्तित्व को स्पष्ट करते हुए कहा है कि यह व्यक्तित्व कानून की दृष्टि में एक पूर्ण अस्तित्व है अन्यथा जिसका अस्तित्व बेशक न हो। यह एक प्राकृतिक पैदा हुए व्यक्ति की तरह कोई विशेष प्राणी नहीं है परन्तु मान्यताओं के अनुसार व्यक्तित्व है जिसे कानून को भी स्वीकार करना पड़ता है। इस निर्णय में श्री गुरुग्रन्थ साहिब जी को न्यायिक व्यक्तित्व घोषित किया गया था।
वैसे एक समय ऐसा था जब कानून भी प्राकृतिक मनुष्यों को किसी अस्तित्व का नहीं मानता था। जैसे रोमन कानून में गुलाम को व्यक्ति ही नहीं माना जाता था। उसे परिवार रखने का कोई अधिकार नहीं था। उसे एक पशु या खच्चर की तरह माना जाता था। इन कमियों को देखते हुए फ्रेंच शासकों ने गुलामी प्रथा को ही समाप्त कर दिया जिससे गुलामों को भी एक कानूनी व्यक्तित्व की तरह मान्यता दी गई। इसी प्रकार प्राचीन अमेरिका में अफ्रीका मूल के लोगों को कोई कानूनी अधिकार नहीं दिये गये थे।
समाज के विकास के साथ-साथ समाज के सभी लोगों का परस्पर सहयोग भी एक आवश्यक सिद्धान्त बन जाता है। इसीलिए कम्पनियों और निगमों सहित अनेकों प्रकार की संस्थाओं का गठन किया जाता है जो मनुष्यों को परस्पर सहयोग कर सकें। इसीलिए राज्य के नाम पर भी अनेकों संस्थाएँ कानूनी प्रक्रिया और मान्यताओं के साथ बनाई जाती हैं। इस प्रकार न्यायिक व्यक्तित्व की अवधारणा मानव और समाज के विकास की आवश्यकताओं के साथ जुड़ी है। दूसरे शब्दों में न्यायिक अस्तित्व की अवधारणा अब कालचक्र की सुईयों के साथ जुड़कर कानूनी मान्यता प्राप्त कर चुकी है।
एक प्राकृतिक व्यक्ति की कल्पना बेशक एक मनुष्य, महिला या बच्चे के रूप में ही स्वीकार होती हो, परन्तु इन प्राकृतिक व्यक्तियों के किसी भी संगठन को भी न्यायिक व्यक्तित्व की तरह कानूनी मान्यता दी जाती है। इसलिए कानून न्यायिक व्यक्तित्व के नाम पर प्राकृतिक और अप्राकृतिक सभी अस्तित्वों को मान्यता प्रदान करता है। अप्राकृतिक अस्तित्वों से अभिप्राय है वे अस्तित्व जो मानव की कल्पना से उत्पन्न किये गये हैं जिससे समाज का कल्याण हो और राज्य के संचालन में सहायता प्राप्त हो।
जैसे एक अवयस्क बालक अपने आप अपने कानूनी अधिकारों का प्रयोग नहीं कर सकता उसके लिए एक संरक्षक नियुक्त होता है जो उसके हित में कार्य करता है। इसी प्रकार मंदिर, गुरुद्वारों या चर्च आदि की स्थापना भी दूसरों के कल्याण के लिए ही होती है। इनका संचालन एक ऐसे मानव समुदाय के द्वारा किया जाता है जो इनमें श्रद्धा रखता है और इनके प्रति संवेदनशील होता है। इन चर्चाओं से यह सिद्ध होता है कि जब मनुष्य अपने सामाजिक विकास का कार्य खुद नहीं कर पाता तो समाज के हित में एक ऐसे संगठन की स्थापना की जाती है जिसे न्यायिक व्यक्तित्व के रूप में स्वीकार किया गया। यह मान्यता समाज के हित में ही होती है।
पंजाब हरियाणा उच्च न्यायालय ने हरियाणा के सभी पशुओं को न्यायिक अस्तित्व का दर्जा देने के साथ-साथ हरियाणा सरकार को यह निर्देश भी दिये हैं कि सभी पशुओं के संरक्षण और कल्याण के लिए विशेष उपाय किये जायें। जैसे – उनके लिए स्वास्थ्य केन्द्र तथा संरक्षण केन्द्र, मनुष्यों द्वारा उनके प्रयोग पर नियंत्रण आदि। उच्च न्यायालय के इस निर्णय के बाद अब सरकार को पशुओं के हित में बनाये गये कानूनों का पालन सुनिश्चित करना ही होगा, अन्यथा यह पशु मानवीय प्रतिनिधियों के माध्यम से अपने लिए कानूनी अधिकारों की माँग करने के लिए अब सक्षम हो चुके हैं।

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