संपादकीय

महान योद्धा थे महाराणा प्रताप

9 मई जयन्ती पर विशेष

-रमेश सर्राफ धमोरा
सरकार से मान्यता प्राप्त स्वतंत्र पत्रकार (झुंझुनू,राजस्थान)

महाराणा प्रताप मेवाड़ के शासक और एक ऐसे महान वीर योद्धा थे जिन्होंने कभी मुगल बादशाह अकबर की अधीनता स्वीकार नही की। महाराणा प्रताप जीवन पर्यन्त मुगलों से लड़ते रहे और कभी हार नही मानी। उनका जन्म 9 मई 1540 को राजस्थान के कुम्भलगढ़ में सिसोदिया कुल में हुआ था। उनके पिता का नाम महाराणा उदय सिंह द्वितीय और माता का नाम रानी जीवंत कंवर था। महाराणा प्रताप अपने पच्चीस भाइयो में सबसे बड़े थे। इसलिए उनको मेवाड़ का उत्तराधिकारी बनाया गया।
महाराणा प्रताप के समय में दिल्ली पर अकबर का शासन था और अकबर की निती हिन्दू राजाओ की शक्ति का उपयोग कर दूसरे हिन्दू राजा को अपने नियन्त्रण में लेने की था। 1567 में जब राजकुमार प्रताप को उत्तराधिकारी बनाया गया उस वक्त उनकी उम्र केवल 27 वर्ष थी। उस वक्त मुगल सेना ने चित्तोड़गढ़ को चारो और से घेर लिया था। तब महाराणा उदयसिंह मुगलों से लडने के बजाय चित्तोड़गढ़ छोडकर परिवार सहित गोगुन्दा चले गये। महाराणा प्रतापसिंह फिर से चित्तोड़गढ़ जाकर मुगलों से सामना करना चाहते थे। लेकिन उनके परिवार ने चित्तोड़गढ़ जाने से मना कर दिया।
गोगुन्दा में रहते हुए महाराणा उदयसिंह और उसके विश्वासपात्रो ने मेवाड़ की अस्थायी सरकार बना ली थी। 1572 में महाराणा उदय सिंह अपने पुत्र प्रताप को महाराणा का खिताब दिया। उसके बाद उनकी मृत्यु हो गयी। वैसे महाराणा उदय सिंह अपने अंतिम समय में अपनी प्रिय रानी भटियानी के पुत्र जगमाल सिंह को राजगद्दी पर बिठाना चाहते थे। प्रताप ने अपने पिता की अंतिम इच्छा के अनुसार उसके सौतेले भाई जगमाल को राजा बनाने का निश्चय किया। लेकिन मेवाड़ के विश्वासपात्र चुंडावत राजपूतो ने जगमाल सिंह को राजगद्दी छोडने को बाध्य कर दिया। तब जगमाल सिंह ने बदला लेने के लिए अजमेर जाकर अकबर की सेना में शामिल हो गया और उसके बदले में उसको जहाजपुर की जागीर मिल गयी। इस दौरान राजकुमार प्रताप को मेवाड़ के 54 वे शासक के साथ महाराणा का खिताब मिला।
1572 में प्रताप सिंह मेवाड़ के महाराणा बन गये थे। लेकिन वो पिछले पांच सालो में चित्तोड़गढ़ नहीं गये थे। महाराणा प्रताप को अपने पिता के चित्तोड़गढ़ को पुनः देख बिना मौत हो जाने का बहुत अफसोस था। अकबर ने चित्तोडगढ़ पर तो कब्जा कर लिया था। लेकिन मेवाड़ का राज अभी भी उससे बहुत दूर था। अकबर ने कई बार अपने दूतो को महाराणा प्रताप से संधि करने के लिए भेजा। लेकिन महाराणा प्रताप ने संधि प्रस्तावों को ठुकरा दिया। 1573 में संधि प्रस्तावों को ठुकराने के बाद अकबर ने मेवाड़ का बाहरी राज्यों से सम्पर्क तोड़ दिया और मेवाड़ के सहयोगी दलों को अलग थलग कर दिया।
महाराणा प्रताप ने मुगलों से सामना करने के लिए अपनी सेना को अरावली की पहाडियों में भेज दिया। महाराणा युद्ध उस पहाड़ी इलाके में लड़ना चाहते थे जहां मेवाड़ की सेना थी। क्योंकि मुगल सेना को पहाड़ी ईलाके में यु़द्ध लड़ने का बिलकुल भी अनुभव नही था। पहाडियों पर रहने वाले भील भी राणा प्रताप की सेना के साथ हो गये। महाराणा प्रताप खुद जंगलो में रहने लगे ताकि वो जान सके कि स्वंत्रतता और अधिकारों को पाने के लिए कितना दर्द सहना पड़ता है। उन्होंने पत्तल पर भोजन किया, जमीन पर सोये और दाढी नही बनाई। दरिद्रता के दौर में वो कच्ची झोपडियो में रहते थे जो मिटटी और बांस की बनी होती थी।
18 जून 1576 को महाराण प्रताप के 20 हजार और मुगल सेना के 80 हजार सैनिको के बीच हल्दीघाटी का युद्ध शुरू हो गया। उस समय मुगल सेना की कमान अकबर के सेनापति मान सिंह ने संभाली थी। महाराणा प्रताप की सेना मुगलों की सेना को खदेड़ रही थी। महाराणा प्रताप की सेना में झालामान, डोडिया भील ,रामदास राठोड़ और हाकिम खा सूर जैसे शूरवीर थे। मुगलों के पास तोंपे और विशाल सेना थी। लेकिन प्रताप की सेना के पास केवल हिम्मत और साहसी जांबाजो की सेना के अलावा कुछ भी नही था। महाराणा प्रताप के बारे में कहा जाता है कि उनके भाले का वजन 80 किलो और कवच का वजन 72 किलो हुआ करता था। इस तरह वह भाला, कवच, ढाल और तलवारों को मिलाकर कुल 200 किलो का वजन साथ लेकर युद्ध करते थे।
इतिहासकार कर्नल टॉड ने हल्दी घाटी के युद्व को मेवाड़ की थर्मोपल्ली की संज्ञा दी है। इस युद्व में महाराणा प्रताप का स्वामी भक्त एवं प्रिय घोड़ा चेतक मारा गया। हल्दी घाटी के युद्व में पराजय के बावजूद महाराणा प्रताप के यश और कीर्ति में कोई कमी नहीं आई। बल्कि हल्दी घाटी को इस युद्व ने समूचे भारत के स्वाधीनता प्रेमियों के लिए पूजनीय क्षेत्र बना दिया। वहीं इस युद्व ने महाराणा प्रताप को जननायक के रूप में सम्पूर्ण भारत में प्रसिद्व कर दिया।
हल्दी घाटी के युद्व के बाद महाराणा प्रताप के जीवन में जिस संकट काल का प्रारंभ हुआ वह लगभग दस वर्ष (1576-1586) तक चला और बीतते समय के साथ वह अधिक विषम होता चला गया। इस दौरान गोगुन्दा से दक्षिण में स्थित राजा गांव में महाराणा के परिवार को घास की रोटी भी नसीब नहीं हुई और एक बार वन विलाव उनके भूखे बच्चों के हाथ से घास की रोटी भी छीन कर ले गया था।
इस संकट के समय में महाराणा प्रताप के मंत्री भामाशाह और उनके भाई ताराचंद ने मुल्क मालवे से दण्ड के 25 लाख रूपए तथा 20 हजार स्वर्ण मुद्राएं उनकों भेंट कर अपनी स्वामी भक्ति का परिचय दिया। इस धन से उन्होंने पुनः सेना जुटाकर दिवेर को जीत लिया और चांवड पंहुचकर अपना सुरिक्षत मुकाम बनाया। मेवाड़ के बचे हुये भू भाग पर फिर से महाराणा का ध्वज लहराने लगा। बांसवाडा और डूंगरपुर के शासकों को भी पराजित कर प्रताप ने अपने अधीन कर लिया। अकबर के आक्रमक अभियानों की समाप्ति के बाद मेवाड़ में नए युग का सूत्रपात हुआ। महाराणा प्रताप ने एक वर्ष में ही चितौड़गढ़ और जहाजपुर को छोडकर सम्पूर्ण मेवाड़ पर सत्ता कायम कर ली। उन्होंने चांवड को अपनी राजधानी बनाकर सारे राज्य में शांति व्यवस्था कायम की।
महाराणा प्रताप कुशल प्रशासक होने के साथ-साथ पीडितों और विद्वानों का आदर भी करते थे। उनकी प्रेरणा से ही मथुरा के चक्रपाणी मिश्र ने विश्व वल्लभ नामक स्थापत्य तथा मुहूर्त माला नामक ज्योतिष ग्रंथ की रचना की। चांवड मे चावंड माता के मंदिर का निर्माण भी महाराणा प्रताप ने ही करवाया था। उनके दरबार में कई विख्यात चारण कवि थे। जिनमें कविवर माला सांदू और दुरासा आढा ने उनकी प्रंशंसा में उच्च कोटि की काव्य रचना की। सादड़ी में जैन साधू हेमरत्न सूरि ने गोरा बादल-पद्मिनी चौपाई की रचना भी महाराणा प्रताप के समय ही की थी। महाराणा प्रताप ने चावंड को चित्रकला का केन्द्र बनाकर नई चित्र शैली मेवाड शैली का प्रारम्भ करवाया था।
महाराणा प्रताप ने अपने जीवन के अंतिम दिनों में अपने पहले पुत्र अमर सिंह को सिंहासन पर बैठाया। महाराणा प्रताप शिकार के दौरान बुरी तरह घायल हो गये और उनकी 56 वर्ष की आयु में मौत हो गयी। उनके शव को 29 जनवरी 1597 को चावंड लाया गया। इस तरह महाराणा प्रताप इतिहास के पन्नो में अपनी बहादुरी और जनप्रियता के लिए अमर हो गये।

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