संपादकीय

बहुआयामी प्रतिभा के धनी स्व.प्रेम जी प्रेम साहित्यकारों और कलाकारों के रहे प्रेरणा स्रोत

-डॉ. प्रभात कुमार सिंघल
लेखक एवं पत्रकार, कोटा

प्रेमजी प्रेम का बाह्य व्यक्तित्त्व और व्यवहार सहज व सौम्य था। सामान्य कद-काठी, संवेदनशील व्यक्तित्त्व के धनी थे। जीवन में सादगी। प्रेमजी प्रेम यथा नाम तथा गुण थे। जब-कब भी हाड़ौती अंचल के साहित्य कला, संस्कृति, इतिहास और पुरातत्त्व की चर्चा या विमर्श होता है उनके अन्वेषी योगदान को हमेशा याद किया जाता है। प्रेमचंद जैन ने प्रेमजी प्रेम के रूप में कलम और कर्मठता से समाज में अलग स्थान व पहचान बनाई। एक ऐसा व्यक्तित्त्व जिसने संस्कृति के छोरों को छू कर उनके स्पंदन को महसूस किया और हाड़ौती अंचल के संस्कृति पुरुष के जन-मानस के पटल पर मधुर स्मृतियाँ हमेशा-हमेशा के लिए अंकित कर गये। राजस्थान के हाड़ोती अंचल के लोकप्रिय कवि स्व.प्रेम जी प्रेम को समर्पित होगी मेरी आगामी कृति ” जियो तो ऐसे जियो”। यह कृति हाड़ोती के साहित्यकारों, कलाकारों, इतिहासकारों एवं अन्य प्रतिभाओं पर लिखी जा रही है।
प्रेम जी प्रेम के साहित्यिक अवदान पर पीएच.डी.करने वाले युवा साहित्यकार डॉ.ओम नागर ने बताया कि वे अपने लेखन व मंचीय कवि सम्मेलनों की काव्य यात्रा से यूँ तो जीवन पर्यन्त विलग नहीं हुए लेकिन 1980 के बाद प्रेमजी प्रेेम का जिज्ञासु और अन्वेषी मन उन्हें हाड़ौती अंचल की लोक संस्कृति की ओर ले गया। ऐसे में प्रेमजी प्रेेम का मन साहित्य के साथ-साथ इस अंचल की लोक संस्कृति, पुरातत्व के अन्वेषण में भी रम गया। यही कारण रहा कि 1981 राजस्थान के मध्य अंचलों की तरह कोटा में भी हाड़ौती उत्सव के आयोजन की परिकल्पना स्वर्गीय जम्बू कुमार जैन, स्वतंत्रता सैनानी आनंद लक्ष्मण खांडेकर और प्रेमजी प्रेम ने मिलकर की ओर 1984 के हाड़ौती उत्सव का आयोजन किया गया। प्रेमजी प्रेम हाड़ौती-उत्सव के संयोजक रहे और उन्होंने हाड़ौती अंचल के गाँव-गाँव की यात्रा कर इस अंचल के लोक कलाकारों को ढूँढ निकाला।
सन् 2011 में वर्षों के लंबे अन्तराल के बाद एक बार फिर से लोक संस्कृति की छटा के बहुरंगी प्रतीक ‘‘हाड़ौती उत्सव’’ पुनः आरंभ हुआ। जिसके तहत 9 अगस्त क्रांति दिवस 2011 के ऐतिहासिक दिन पर पुनः जैन राजाबाबू और कांग्रेस नेता व समाजसेवी पंकज मेेहता के सद्प्रयासों से 7, 8 व 9 जनवरी 2012 को हाड़ौती उत्सव के तहत विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन किया गया। जिसमें शोभायात्रा में करीब 200 लोक कलाकार अपनी समृद्ध कला की झलक और छटा बिखेरते हुए कोटा शहर के बाजारों में अपना हुनर दिखाते चले। हाड़ौती अंचल के इतिहास, कला, संस्कृति और भाषा, साहित्य, सभ्यता की मनोरम झांकी बने ‘‘हाड़ौती उत्सव’’ की यादें इस अंचल के निवासियों के मन में एक बार फिर ताजा हो गई।
प्रेमजी प्रेेम ने अपने जीवनकाल में न केवल हाड़ौती (राजस्थानी) व हिन्दी में विभिन्न विद्याओं में महत्त्वपूर्ण लेखन किया। वहीं प्रेमजी प्रेम रंगकर्मी के रूप में भी लगातार सक्रिय रहे। प्रेमजी प्रेम ने जहाँ रंगकर्मी के रूप में कई नाटकों में विभिन्न भूमिकाएँ निभाई। वहीं प्रसिद्ध साहित्यकारों की ख्याति प्राप्त रचनाओं का नाट्य रूपान्तरण और निर्देशन भी किया। शहर में रंगकर्मी के क्षेत्र में तत्कालीन प्रसिद्ध संस्था ‘‘सप्त शृंगार’’ के माध्यम से प्रेमजी प्रेम ने कई नाटकों में विभिन्न भूमिकाएँ निभाईं। साथ ही नवीन रंगकर्मियों के प्रशिक्षण हेतु नाट्य शिविरों का भी आयोजन किया। प्रेमजी प्रेम ने कोटा में लगातार सात वर्षों तक ‘‘राजस्थान दिवस नाट्य समारोह’’ के नाम से नाट्योत्सव के आयोजन किए और एक जिम्मेदार रंगकर्मी के रूप में शहर में रंगकर्मी के क्षेत्र में नई पीढ़ी तैयार भी की।

  • साहित्य वैशिष्ट्य :

प्रेमजी प्रेम का साहित्यिक वैशिष्ट्य मात्र हाड़ौती की परिधि तक ही सीमित नहीं रहा है। उन्होंने अपने रचनाकर्म से जहाँ हाड़ौती बोली को एक भाषा का विशिष्ट अर्थ प्रदान किया, वहीं उन्होंने अत्यधिक साहस से राजस्थानी भाषा के मानवीकृत स्वरूप की स्थापना में विशेष योगदान दिया है। यह सही है कि उन्होंने हिन्दी भाषा में अपने कृतित्व से कम अवदान दिया। आपके हिन्दी भाषा में उस काल के लगभग सभी समाचार-पत्रों में हाड़ौती अंचल के साहित्य, संस्कृति एवं पर्यटन पर विस्तृत धारावाहिक लेख-मालाएँ प्रकाशित होती रही। उपलब्ध, हिन्दी साहित्य में एक मात्र कहानी संग्रह ‘मेरी कहानियाँ’ और निबन्ध (आलेख) संग्रह ‘यात्रा’ ही प्रकाशित है। इनके कृतित्त्व के विवेचन से जो महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष हमें प्राप्त होता है, वह यह कि प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के परिदृश्य से बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक जो सामाजिक परिवर्तन हो रहा था उसमें उनका कवि मन एक दृष्टा के भाव से वस्तुगत आलेखन करता रहा। प्रेमजी प्रेम अपनी परम्परा के वाहक थे, वे हाड़ौती की विराट सांस्कृतिक परम्परा को जीवंतता देने के लिए निरन्तर संघर्षरत रहे इसलिए उन्होंने अपने काव्य-सृजन में जहाँ हाड़ौती भाषा को नया मुहावरा दिया। वहीं हाड़ौती गद्य व हाड़ौती पद्य की सभी विधाओं को महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
प्रेमजी प्रेम के रचनाकर्म ने समाज में हो रहे परिवर्तनों को देश काल की सीमा में जाकर विवेचित किया है। उनके रचनाकर्म का परिदृश्य खण्ड काव्य ‘सूरज’ से लेकर व्यंग्य कविता संग्रह ‘चमचो’ तक फैला हुआ है। उनकी काव्य संवेदना का महत्त्वपूर्ण आलेखन ‘म्हारी-कवितावां’ में मिलता है। अतः प्रेमजी प्रेम की काव्य संवेदना का मुख्य आम आदमी का संघर्ष है। वे संघर्ष से व्यक्ति पलायन का गीत नहीं सुनाते। वरन् वे मनुष्य को जो उसके भीतर श्रेष्ठतम है, उस भाव के उद्घाटन में अपनी संवेदना प्रकट करते हैं।
औद्योगिक परिदृश्य में कोटा हाड़ौती में ही नहीं राजस्थान में अपनी पहचान स्थापित कर चुका था। अतः समकालीन परिदृश्य को रचनाकार की मानसिकता द्वारा संवेदनात्मक धरातल पर स्वीकार करना स्वाभाविक था। प्रेमजी प्रेेम का उपन्यास हाड़ौती ही नहीं राजस्थानी भाषा की वो मौलिक कृति है। जहाँ साम्प्रदायिक विद्वेष को प्रेम के कथानक के आधार पर संवेदना के स्वर मिले। इसके पूर्व हाड़ौती में कथा साहित्य में लोक-कथा आख्यान, लोक-कथाओं का अंकन कथाकारों के प्रिय विषय थे। हाड़ौती अंचल के अन्य श्रेष्ठ उपन्यासकारों में ‘उड़ जा रे सुआ’ महत्त्वपूर्ण कृति है, परन्तु उसका कथा परिदृश्य भी सामंती, समाज से मुक्त हुए परिदृश्य का अंकन है। ‘सेळी छाँव खज्यूर की’ उपन्यास के कथानक के केन्द्र में वह नायिका है जो विषम परिस्थितियों में भी अपने श्रम और चरित्र के आधार पर अपनी जमीन तलाश कर रही है। धर्म किस प्रकार राजनैतिक दबाव से अपने चेहरे को विकृत कर लेता है इसका उदाहरण इस उपन्यास का पात्र पंडित गंगासरण है। वहा जहाँ उस अनाथ बालिका का संरक्षण बनकर के उसके व्यक्तित्व का निरूपण कर रहा था, वही सरपंच बनने के बाद पूरी क्रूरता के साथ उपस्थिति होता है। समकालीन सामाजिक व्यवस्था था यह क्रूरतम उपहास है कि राजनीति किस प्रकार ग्रामीण अंचल में भी प्रवेश कर सामाजिक समरसता के ताने-बाने को तोड़ रही है। उपन्यास का नायक छोटू है जो बैलगाड़ी चलाकर के अपनी आजीविका चलाता है। किस प्रकार से धर्म और राजनीति का कुरूप गठबंधन उसे गाँव छोड़कर जाने को मजबूर कर देता है। इस उपन्यास की वह विशेषता है जो इसे राजस्थानी के उपन्यासों में एक अपना विशिष्ट स्वरूप प्रदान करती है।
समकालीन परिदृश्य में प्रेमजी प्रेम का महत्त्वपूर्ण योगदान हाड़ौती अंचल का सांस्कृतिक पुनर्जागरण है। ‘लोक’ उनकी आत्मा में बसा हुआ था। उनके गीत संग्रह ‘म्ँह गाऊँ मन नाचै’ में लोक की अनुगूँज है। राजस्थान (पूर्व राजपूताना) की पहचान मरु-भूमि और चम्बल से है। यह दोनों भौगोलिक विशेषताऐं मात्र पारिस्थितिकी का ही विभाजन नहीं करती है वरन् लोक संस्कृति का निवर्हन करती है। मारवाड़, मेवाड़ में लोक कला मण्डल, रूपायन आदि संस्थाओं द्वारा जो लोक संस्कृति के उन्नयन का प्रयास किया गया। प्रेमजी प्रेम ने ‘हाड़ौती उत्सव’ के माध्यम से हाड़ौती अंचल की लोक संस्कृति को एकरूपता दिलाकर उन्नयन का महत्त्वूपर्ण कार्य किया। हाड़ौती नदियाँ जल प्राध्यान्य है। यहाँ की नदियाँ बारहों मास बहती हैं, इसलिए राजस्थान प्रान्त में ही नहीं चित्रकला में कोटा व बून्दी की चित्रशैली प्रसिद्ध है। इन चित्रों में महत्त्वपूर्ण अंकन वन, पशु-पक्षी व प्रकृति के विभिन्न रंगों का वर्णन हुआ है। नौका-विहार इसी के संगीत के साथ चित्रकला का संबंध ‘राग-माला’ हाड़ौती अंचल की देन है। नृत्य में ‘चकरी’ नृत्य, सांगोद का स्वांग हाड़ौती अंचल की देन है। प्रेमजी प्रेम ने हाड़ौती उत्सव के लिए लोक-कलाओं के उत्थान के लिए, हाड़ौती के तत्कालीन समाचार पत्रों में निरन्तर आलेख लिखे। वह स्वयं एक कुशल निर्देशक की तरह लोकनाट्यों की प्रस्तुति भी देते रहे।
प्रेमजी प्रेम का बहु-आयामी व्यक्तित्त्व थे, उन्होंने जहाँ अपने रचनाकर्म से हाड़ौती गद्य-पद्य को अपनी सृजनात्मकता से प्रांतीय राजस्थानी साहित्य में एक सम्मानजनक स्थान दिलाया। वहीं हाड़ौती बोली को और उसके साहित्य को राजस्थानी की मानकीकृत भाषा के लिए अथक प्रयास करते हुए अन्य बोलियों के समकक्ष एक नया आधार प्रस्तुत किया। केन्द्रीय साहित्य अकादमी के द्वारा कविता संग्रह ‘म्हारी कवितावां’ पर मिला पुरस्कार हाड़ौती भाषा और साहित्य के सम्मान की ओर वो पहला कदम था जिसने प्रान्तीय स्तर राजस्थानी की एक महत्त्वपूर्ण बोली के रूप में प्रतिष्ठित किया ।

  • सृजन संसार

उनके सृजन संसार के कुछ पुष्पों में सूरज (राजस्थानी खण्डकाव्य), सरवर, सूरज अर संझयाँ (राजस्थानी गीत-संग्रह),म्हूँ गाँऊ, मन नाचै (राजस्थानी गीत-ग़ज़ल संग्रह), संवलो साँच (राजस्थानी ग़ज़ल-संग्रह), म्हारी कवितावां (राजस्थानी कविता-संग्रह),चमचो (राजस्थानी हास्य व्यंग्य काव्य-संग्रह), सैली छाँव खज्यूर की (राजस्थानी लघु उपन्यास), रामचन्द्र की रामकथा (राजस्थानी कहानी-संग्रह), मेरी कहानियाँ (हिन्दी कहानी-संग्रह) यात्रा ( हिन्दी निबन्ध-आलेख-संग्रह) सहित संपादित कृतियाँ-पत्रिकाएँ ‘बानगी’ (राजस्थानी गद्य संग्रह), आज का राजस्थानी कहाणीकार (राजस्थानी कथा-संग्रह), बिंधग्या ज्यों मोती (राजस्थानी कथा-संग्रह), सतरंगी चामल ( त्रैमासिकी पत्रिका ) और चिदम्बरा ( हिन्दी मासिक ) प्रमुख हैं।

  • सम्मान

उनके जीवन काल में अनेक प्रतिष्ठित सम्मान प्राप्त हुए जो उनके सृजनशील व्यक्तित्व के सामने बहुत बोने थे। उनका व्यक्तित्व इन सम्मानों से कहीं ज्यादा विराट था। प्रेमजी प्रेम को 1981 उनके राजस्थानी (हाड़ौती) गीत संग्रह ‘‘सरवर, सूरज अर संझ्या’’ पर तत्कालीन राजस्थानी साहित्य अकादमी, उदयपुर जो कि राजस्थानी भाषा की पुस्तकों को भी पुरस्कृत करती थी। प्रेमजी प्रेम को अकादमी की ओर से पद्य पुरस्कार प्रदान किया गया। प्रेमजी प्रेम की सृजन प्रतिभा का लोहा देश-प्रदेश ने तब माना जब सन् 1991 केन्द्रीय साहित्य अकादमी, नई दिल्ली द्वारा राजस्थानी (हाड़ौती) कविता संग्रह ‘‘म्हारी कवितावां’’ पर साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया। उनकी साहित्य, संस्कृति, नाटक के क्षेत्र में सृजनात्मक उपलब्धियों के लिए ऑल इंडिया आर्टिस्ट एसोसिएशन, शिमला द्वारा दो बार सर्वश्रेष्ठ निर्देशक व नाटकार के पुरस्कृत किया। इतना ही नहीं प्रेमजी प्रेम को सन् 1978 में चण्डीगढ़ की नाट्य संस्था की ओर से प्रेमजी प्रेम को ‘‘बलराज साहनी स्मृति’’ पुरस्कार प्रदान करने के साथ ही कोटा जिला प्रशासन ने उन्हें साहित्य एवं रंगमंच की सेवाओं के लिए पृथक्-पृथक् रूप से दो बार राष्ट्रीय दिवसों पर सम्मानित किया गया। उनकी उपलब्धियां और योगदान के मध्यनजर देश-प्रदेश में कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया गया। वहीं सन् 1991 में जब उन्हें केन्द्रीय साहित्य अकादमी की ओर से ‘‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’’ प्रदान किया गया तो हाड़ौती अंचल में कई संस्थाओं ने सार्वजनिक सम्मान समारोह आयोजित किए और दर्जनों स्थानों पर समारोह आयोजित कर अपने लाड़ले कवि का अभिनन्दन व सम्मान किया।

  • जीवन परिचय

प्रेमजी प्रेम का जन्म 20 जनवरी 1943 को कोटा जिले की (राजस्थान) लाड़पुरा तहसील के घघटाना गाँव में हुआ था। प्रेम जी प्रेम 2 मई 1993 को हम सब को छोड़ कर देवलोक गमन कर गए। उनकी की प्रारम्भिक शिक्षा मानस गाँव में हुई जो कि घघटाना से थोड़ी दूरी पर है। प्राइमरी शिक्षा मानस गाँव में हासिल करने के बाद प्रेमजी प्रेम कोटा में राजकीय सेवा में रहें अपने चाचा स्वर्गीय कल्याणमल जैन के पास रहकर रामपुरा मिडिल स्कूल से उच्च प्राथमिक तक शिक्षा ग्रहण की। इसके बाद प्रेमजी प्रेम ने कोटा के रामपुरा क्षेत्र में स्थित महात्मा गाँधी राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय से उच्च माध्यमिक शिक्षा प्राप्त की। कोटा राजकीय महाविद्यालय से वाणिज्य विषय में स्नातक की डिग्री (1964) प्राप्त करने के बाद प्रेमजी प्रेम ने राजस्थान विश्वविद्यालय से हिन्दी (1975), अंग्रेजी (1983) और इतिहास (1987) विषय में स्वयंपाठी छात्र के रूप में स्नातकोत्तर की डिग्री हासिल की। प्रेमजी प्रेम ने अपने जीवनकाल में अध्ययन को जारी रखा लोक साहित्य में श्रृंगार विषय पर शोधार्थी के रूप में जीवनकाल की अंतिम घड़ी तक अध्ययनशील रहे। प्रेमजी प्रेम ने स्थानीय स्तर पर विभिन्न कला साहित्य एवं संस्कृति के उन्नयन के लिए कार्य करने के लिए संस्थाओं की स्थापना से लेकर अन्य संस्थाओं में महत्त्वपूर्ण पदों पर रहकर साहित्य-संस्कृति की सेवा की। वे श्री भारतेन्दु समिति, कोटा के प्रधानमंत्री , सप्त श्रृंगार भारतीय संगीत एवं नाट्य संस्थान,कोटा के अध्यक्ष, हाड़ौती उत्सव आयोजन समिति, कोटा के संयोजक , फूलडोल महोत्सव समिति, किशनगंज, बाराँ के संरक्षक और नाट्यप्रभा, कोटा के संस्थापक रहे। अपने कार्यकाल में इन सभी संस्थाओं को जीवंत और क्रियाशील बनाए रखा और उन्होंने अन्य संस्थाओं में भी यथा संभव अपना, संस्थागत सेवा देकर हाड़ौती अंचल की कला, साहित्य एवं सांस्कृतिक गतिविधियों को गति प्रदान की। वे अपने जीवन काल में अपनी सृजनात्मक उपलब्धियों के चलते विभिन्न प्रतिष्ठित संस्थाओं के सदस्य रहे। जिनमें केेन्द्रीय साहित्य अकादमी, नई दिल्ली में राजस्थानी परामर्शदात्री समिति, राजस्थान संगीत नाटक अकादमी, जोधपुर, राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर और राजस्थानी भाषा-साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर शामिल है।

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