संपादकीय

अधिक सयाने नेता ना घर के रहे ना घाट के

-रमेश सर्राफ धमोरा
राजस्थान सरकार से मान्यता प्राप्त स्वतंत्र पत्रकार (झुंझुनू, राजस्थान)

कहते हैं राजनीति संभावनाओं का खेल है। इसमें कब क्या हो जाए किसी को पता नहीं रहता है। राजनीति में जरा सा चूकने पर खेल ऐसा बिगड़ जाता है कि फिर सुधरे भी नहीं सुधर पाता है। देश में चल रहे लोकसभा चुनाव के दौरान कुछ राजनीतिक दलों व उनके नेताओं के साथ भी कुछ ऐसी घटनाएं घट गई जो ना उनसे निगलते बन रही है ना ही उगलते।
बिहार में लोक जनशक्ति पार्टी के नेता व केंद्र में मंत्री रहे पशुपति पारस अपने भतीजे चिराग पारस कि एनडीए से बगावत के वक्त खुलकर एनडीए के साथ रहकर अपना मंत्री पद बचा ले गए थे। उसे वक्त उनके साथ पार्टी के 6 में से पांच सांसद भी थे। मगर समय का चक्र देखिए आज पशुपति पारस के पास ना तो मंत्री पद बचा है ना ही लोकसभा की सीट बच पाई है। चिराग पासवान के एनडीए में वापस आने के चलते सीट शेयरिंग में उन्हें पांच सीट दे दी गई। जबकि उनके विरोधी चाचा पशुपति पारस वाली लोक जनशक्ति पार्टी को एनडीए में एक भी सीट नहीं दी गयी।
इससे नाराज होकर पशुपति पारस लालू यादव नीत महागठबंधन में शामिल होने की घोषणा कर केंद्रीय मंत्री पद से भी इस्तीफा दे दिया था। मगर राजनीति के चतुर खिलाड़ी लालू यादव ने पशुपतिनाथ पारस को घास नहीं डाला और उनकी पार्टी को गठबंधन में एक भी सीट नहीं दी। इससे पशुपति पारस की स्थिति बहुत ही हास्यास्पद हो गई। और वह फिर से एनडीए में शामिल होकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गुणगान करने लगे हैं। पशुपति पारस के चक्कर में उनके दूसरे भतीजे प्रिंस राज भी इस बार बिना टिकट ही रह गए। उन्हें भी किसी गठबंधन में शामिल नहीं किया गया है।
कहां जा रहा है कि भाजपा द्वारा पशुपति पारस को चिराग पासवान का समर्थन करने के बदले राज्यपाल का पद व प्रिंस राज को बिहार सरकार में मंत्री बनाने का ऑफर दिया गया था। मगर उन्होंने उस ऑफर को छोड़कर महागठबंधन से सीट लेने के चक्कर में केंद्रीय मंत्री पद से भी इस्तीफा देते हुये एनडीए के खिलाफ बयानबाजी कर दी थी। अब देखते हैं चुनाव के बाद आगे पशुपति पारस व उनके भतीजे प्रिंस राज का फिर से राजनीतिक पुनर्वास होता है या वह राजनीति के बियाबान में खो जाते हैं। इसका पता तो लोकसभा चुनाव नतीजे के बाद ही लग पाएगा। फिलहाल तो पशुपति पारस ना घर के रहे ना घाट के रहे वाली स्थिति में है।
खुद को सन ऑफ मल्लाह कहलाने वाले विकासशील इंसान पार्टी के अध्यक्ष मुकेश सहनी के साथ भी कुछ ऐसा ही वाकया हुआ है। कभी मुंबई कीे फिल्में इंडस्ट्री में काम कर पैसे कमाने वाले मुकेश सहनी की फितरत एक जगह टिकने की नहीं रही है। वह बिहार में बड़ी राजनीति करने का सपना देखते रहते हैं। इसी चक्कर में वह अलग-अलग गठबंधनों में शामिल होकर चुनाव लड़ते रहे हैं। मगर कभी चुनाव नहीं जीत पाए हैं।
पिछले विधानसभा चुनाव में उन्होंने बिहार के एनडीए गठबंधन में शामिल होकर 13 सीटों पर अपनी पार्टी को चुनाव लड़वाया था और उनकी पार्टी के चार विधायक जीते थे। उनका स्वयं को भी नीतीश कुमार की सरकार में मंत्री बनाया गया था। मगर अपनी फितरत के मुताबिक वह अधिक समय तक गठबंधन में नहीं टिक पाए। तब भाजपा ने उनके विधायकों को तोड़ लिया और वह अकेले रह गए। अब उनका विधान परिषद का कार्यकाल भी पूरा हो गया है। इस बार के लोकसभा चुनाव में उन्होंने फिर से भाजपा के एनडीए व लालू प्रसाद यादव के महागठबंधन में शामिल होकर लोकसभा चुनाव लड़ने का प्रयास किया था। मगर उनके मांग पत्र व सीटों की संख्या देखकर किसी भी गठबंधन ने उनसे तालमेल करना मुनासिब नहीं समझा। दोनों ही गठबंधन उन्हें बातों में उलझाए रखा और अंत में किसी ने भी उनके साथ तालमेल नहीं किया। आज मुकेश सहनी यदि लोकसभा चुनाव लड़ते हैं तो उन्हें अपने ही दम पर चुनाव मैदान में उतरना पड़ेगा।
पूर्णिया के पूर्व सांसद पप्पू यादव किसी समय बिहार में चर्चित युवा नेता होते थे। कम उम्र में ही कई बार सांसद, विधायक बनने वाले पप्पू यादव की बाहुबली वाली छवि के चलते उन्हें चुनाव जीतने में कोई दिक्कत नहीं होती थी। एक समय उन्होंने शरद यादव जैसे दिग्गज नेता को भी हरा दिया था। मगर अब समय का फेर देखिए आज वही पप्पू यादव एक टिकट के लिए मारे मारे घूम रहे हैं। पिछले दिनों उन्होंने राजद सुप्रीमो लालू यादव से अपने संबंध सुधारने के लिए उनके आवास पर जाकर हाजिरी भी दे दी थी। फिर उन्होंने अपनी जन अधिकार पार्टी का दिल्ली कांग्रेस मुख्यालय में जाकर कांग्रेस में विलय कर दिया था।
कांग्रेस में शामिल होने के बाद पप्पू यादव ने पूर्णिया से कांग्रेस टिकट पर चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी थी। मगर राजनीति के चतुर खिलाड़ी लालू प्रसाद यादव ने पप्पू यादव को माफ नहीं किया था और उसके साथ खेला कर दिया। लालू यादव ने बिहार में सीट बंटवारे के दौरान पूर्णिया की सीट अपनेी पार्टी राजद के खाते में रखकर वहां से जदयू की विधायक बीमा भारती को राजद प्रत्याशी घोषित कर दिया। इसके चलते पप्पू यादव का पूर्णिया से कांग्रेस प्रत्याशी नहीं बना पाई। अब पप्पू यादव ने घोषणा की है की जान चली जाएगी तब भी पूर्णिया को नहीं छोड़ेंगे और वह पूर्णिया से ही निर्दलीय चुनाव लड़ेंगे।
पप्पू यादव के बयान पर कांग्रेस के बिहार प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश सिंह ने उनसे कन्नी काटते हुए कहा है कि पप्पू यादव ने अपनी पार्टी का कांग्रेस में विलय किया है लेकिन खुद पार्टी के सदस्य नहीं बने हैं। ऐसे में वह कहीं से भी चुनाव लड़ने को स्वतंत्र है। कांग्रेस पार्टी को उनसे कोई लेना देना नहीं है। पूर्णिया से टिकट नहीं मिलने के बाद पप्पू यादव की हालात देखते ही बनती है। वह न घर के रहे ना घाट के उल्टे उनके बने बनाये समीकरण और बिगड़ गए हैं। हालांकि पिछले चुनाव में पप्पू यादव ने मधेपुरा से लोकसभा चुनाव लड़ा था। जहां उनकी जमानत जप्त हो गई थी। उन्हें मात्र 97631 यानि 8.51 प्रतिशत वोट ही मिले थे। जबकि 2014 में वह मधेपुरा से चुनाव जीते थे। मधेपुरा में पिछली बार जमानत जब्त होने के चलते पप्पू यादव इस बार पूर्णिया से चुनाव लड़ रहें हैं। पप्पू यादव की पत्नी रंजीता रंजन कांग्रेस से राज्यसभा सांसद व पार्टी की राष्ट्रीय सचिव है। पूर्व में वह सहरसा व सुपौल से सांसद भी रह चुकी हैं।

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