संपादकीय

“शमशान की शान”

-शिखा अग्रवाल, भीलवाड़ा

रूह कांपती जिसके नाम से,
सांसे थम जाती जिस धाम पे,
वीर योद्धाओं से है जिसकी पहचान,
मैं हूं एक श्मशान।।
हो कोई रंक या राजा,
चाहे हो तुलसी या कबीर,
भेद नहीं किसी का मैं जानू,
क्यों? क्योंकि-
मैं हूं एक श्मशान।।
लोह पुरुषों की काया से सजा,
वीरांगनाओं के तेजस्व से रूप मेरा खिला,
रणबांकुरे के लहू में डूबा ,
फिर भी हूं मैं बदनाम,
क्यों? क्योंकि-
मैं हूं एक श्मशान।।
महा कवियों के अलंकार से अलंकृत,
संगीतज्ञ के स्वर से झंकृत,
नर्तकीयो की पायल से खनकती यह भूमि ,
फिर भी है बदनाम,
क्यों ? क्योंकि-
मैं हूं एक श्मशान ।।
मानव मानव में भेद करता,
तेरा मेरा पूरा जीवन करता,
रिश्तो की अनदेखी करता,
मैं सब देख कर भी हूं बदनाम,
क्यों ?क्योंकि –
मैं हूं एक श्मशान।।

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