संपादकीय

तुम्हारी खुशियों का मांझा

-सुनील कुमार महला
फ्रीलांस राइटर, कालमिस्ट व युवा साहित्यकार (उत्तराखंड)

हे पतंगबाज !
मुझे पता है कि तुम मकर संक्रांति के इस पर्व पर
बहुत खुश, आनंदित हो।
तुम्हारे हाथों में तीक्ष्ण मांझा है।
तुम पेंच लड़ाने में
स्वयं को बहुत
आल्हादित महसूस कर रहे हो।
दिनभर मौज-मस्ती में लीन हो।
तुम्हारे पास डीजे का ज़ोरदार साउंड है।
मिठाईयों की , तिल-गुड़, रेवड़ियों की बहार है।
मस्ती का नशा
तुम्हारे सिर चढ़कर बोल रहा है।
‘वो काटा, वो मारा’ की आवाज़ तुम्हारे दिल को
न जाने कितना सुकून दे रही है ।
तुम्हारे लबो पर हंसी तैर रही है।
लेकिन हम
भोर से लेकर शाम ढलने तक,
छिपे हैं अपने नीड़ में
भूखे-प्यासे !
हमारे मन में एक अजीब सी घबराहट है
बेचैनी है ।
‘मकर संक्रांति’ का पर्व क्या हमारे लिए नहीं आता ?
तुम्हें पता है-
इस दिन(मकर संक्रांति पर)सूर्य देव अपने पुत्र शनि देव से मिलने उनके घर जाते हैं।
खुशियां तैरती हैं चहुंओर।
लेकिन
हमारी खुशियों को ‘तुम्हारी खुशियों का मांझा’
ग्रहण लगाता है।
हम पंखों को ‘मकर संक्रांति’ पर नहीं फड़फड़ा सकते।
खुला आसमान ‘तुम्हारा’ हो जाता है
कुदरत ने सिर्फ तुम्हें ही तो नहीं बख्शी है
ये धरती, ये आसमां !
जरा सोचो ! थोड़ा चिंतन -मनन करो। ‘तुम्हारे मांझे ‘ में हमें दिखता है अपना काल।
तुमसे गुजारिश है, विनती है।
हमसे हमारा आसमां न छीनो
न छीनो हमारा जीने का हक़
जो ईश्वर ने सबको दिया है
तुम भी जीओ और हमें भी जीने दो।

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