संपादकीय

स्त्रियां होतीं हैं बिम्ब !

-सुनील कुमार महला
फ्रीलांस राइटर, कालमिस्ट व युवा साहित्यकार (उत्तराखंड)

नायलॉन और तार की रस्सियों पर
कपड़े सुखाते हुए भी
उसके मन में द्वंद्व चलते हैं
वे विचार ढ़ूढ़तीं हैं हर ऱोज
राख सी जिंदगी के बीच भी
चिंगारियां जलतीं हैं
जिस तरह से सूखने वाले कपड़ों को चिमटियों से
रखा जाता है सुरक्षित
उसी भांति स्त्रियां रखतीं हैं परिवार रूपी धागों को
सहेजकर
दुःख,कष्ट,पीड़ा, अन्याय सहकर भी
स्त्रियां बनतीं हैं समर्पण का बिम्ब
उन्हें होता है परिवार रूपी धागों का आंतरिक बोध
आंगन बुहारते बुहारते भी वो अक्सर करतीं हैं
इबादत
वह शून्यता में जीवन नहीं जीती
उसके अंतर्गत के भीगे शब्दों को कभी तुम टटोलना
एक भीड़ गुनगुनाती हुई सुनाई देगी तुम्हें
लेकिन
तुमने कभी ‘स्त्री’ को समझा नहीं ‘स्त्री’
स्त्रियां होतीं हैं साध्य
वो अक्सर स्पर्श में घुलतीं हैं
स्त्रियां होतीं हैं नदियां और शांत झील
वे होतीं हैं शहद और शीतल जल
जिनमें मीठापन है
शीतलता है
उसकी विवशता, उसकी टूटन को नहीं समझा कभी तुमने
क्यों कि तुम ‘ पुरूष ‘ जो हो
स्त्रियां जीवंतता खोजतीं हैं अक्सर
वो जीवन चक्र को करतीं हैं पोषित
धधकती ज्वालाओं के बीच भी
थिरकतीं हैं अक्सर स्त्रियां
उनके हृदय संगीत को हमें जरूरत है समझने की
हर ऱोज
पूरे सामर्थ्य के साथ
जीवन उत्सव को मनाने के लिए
ब्रह्मांड से ऊर्जा का पुंज एकत्रित कर
उड़ेल देती हैं परिवार पर
तब
जीवन हंसता है
मनुज खिलखिलाता है…!

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