हलचल

संवेदनाएं निबंध बनी, पगडंडी बनी यात्रा वृतांत और प्रकृति बनी कविता – डॉ.कृष्णा कुमारी

प्रस्तुति : डॉ.प्रभात कुमार सिंघल, कोटा
‘ज्योतिर्गमय’ निबंध कृति की भूमिका प्रस्तुत करके पहला सवाल विजय जोशी ने किया कि आप मूलत कवियत्री हैं, फिर कल्याण में प्रकाशित आपका प्रथम निबंध है मातृत्व बोध, जितना मुझे याद है, निबंध लिखने की बात आपके मन में कैसे आई ? कृष्णा ने ज़वाब में कहा कि जब वो कैथून विद्यालय में अप एंड डाउन करती थी तो कई माताएँ भी 2-3 महीने के शिशु को लेकर अप एंड डाउन कर रही थी। जनवरी की भीषण सर्दी में भी। मेरे मन में हर दिन आता कि माँ का प्रथम कर्तव्य बालक के लालन- पालन का है, ऐसे में शिशु सफर कर रहा है, यही संवेदनायें निबंध के स्वरूप में कैनवास पर उतर आई। राजस्थान पत्रिका में भेजा नहीं छपा, फिर कल्याण जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका में भेजने का कैसे दुस्साहस किया, पता नहीं, किन्तु छप गया, उस दिन मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। अवसर था कुछ दिन पूर्व राजकीय सार्वजनिक मंडल पुस्तकालय द्वारा कोटा में आयोजित पांच दिवसीय संभाग स्तरीय लिट्रेचर फेस्टिवल में साहित्यकार डॉ. से साक्षात्कार का सत्र।
विजय जी ने कहा आप मातृत्व बोध से सीधे श्रृद्धा पर पहुंच जाती हैं,कल्याण में अगला निबंध आपका श्रृद्धावानलभतेज्ञानम, आया था , इस पर कृष्णा जी कहती है कि मेरा बचपन गाँव सावन भादों में दादा- दादी की वात्सल्यमयी गोद में पल्लवित हुआ। पाँचवीं कक्षा तक की शिक्षा वहीं हुई। मेरे घर का पूरा वातावरण आध्यात्मिक था । दादी परम् ज्ञानी, धार्मिक, दादाश्री धर्म, अध्यात्म के साथ नाटक कला, संगीत से भी जुड़े थे। हमारी किराना की दूकान में धार्मिक पुस्तकें भी रखते थे दादाजी। दादी मंदिर में रोज कथा सुनने जाती, रात को मुझे सुनाती, सारे व्रत करती, भजन कीर्तन, दान, दक्षिणा, मुझे भी सारे व्रत करवा दिए, कार्तिक तक नहा ली दो बार। दो बार पूरी रामचरित मानस भी दादीजी को पढ़ कर सुनाई।सारे संस्कार वहीं से मुझे मिले। बिना श्रृद्धा के, विनय के ज्ञान प्राप्ति असम्भव है, यह बात मन में रमी थी, जाने कैसे निबंध में ढल गई, जो मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी।
आपने तो लीक ही तोड़ दी. ‘भय बिन होवे प्रीत’ निबंध लिख कर. ऐसा क्यों व कैसे किया के प्रश्न पर कृष्णा सहजता से उत्तर देती हैं कि
लीक छोड़ तीनों चलें
सायर, सिंह, सपूत ।
बरसों से बार – बार लोगों के मुँह से सुनती रही हूँ कि भय बिन होवे न प्रीत, स्कूल हो या घर। यह बात मेरे गले कभी नहीं उत्तरी । भला भय से प्रेम की निष्पत्ती कैसे सम्भव है, दोनों विपरीत भाव हैं, भय से जमाने भर के कार्य करवाए जा सकते हैं किन्तु प्रेम कदापि सम्भव नहीं, प्रेम का नाटक भी नहीं हो सकता। हाँ प्रीत होने पर प्रियजन को खोने का भय हर पल बना रहता है । महान संत कवि तुलसीदास जी कि चौपाई के विपरीत लिखना बहुत दुस्साहस का काम था। लेकिन मैंने उनकी बात व प्रसंग को पूरे सम्मान से प्रस्तुत किया, उसके निहितार्थ को प्रसंगानुसार अपनी समझ के अनुसार स्पष्ट किया, वहाँ व्यंजना है, आम धारणा अभिधा में चल पड़ी। इस प्रकार संत तुलसीदास जी की बात को पूरे आदर के साथ विवेचित करते हुए बड़ी विम्रता से अपनी बात लिखी जिसे पाठकों और संपादक महोदय ने बहु पसंद किया ।
आगे सवाल किया विजय जी ने कि निबंध लिखते -लिखते आप ‘आओ नैनीताल चलें,’ यात्रा वृतांत लिख देती हो ? जवाब में इन्होंने बताया कि हम नैनीताल घूमने गए. वहाँ के प्राकृतिक, सुरम्य वतावरण, नैसर्गिक सौन्दर्य, कल कल बहती सरितायें, गगन चुम्बी पर्वती श्रृंखलाएं, संगधित, सुरभित हवा, गज़ब ढाती हरितिमा, भव्य वृक्षावलियां, अहा, अद्वितीय, अनुपम, अद्भुत, दिव्य, भव्य सुषमा….सब ने मुझे आल्हादित कर दिया, घर आकर मन में आता कि इस सौन्दर्य को कैसे सम्हाल कर रखूं, और धीरे लिखना प्रारम्भ किया, कुछ मुख्य बिंदु याद करके लिख लिए। कई सालों में लिखी और छपी। पाठकों का बहुत प्रेम मिला। प्रसिद्ध कहानीकार क्षमा चतुर्वेदी जी नैनीताल इसी किताब को लेकर गई. एक दिन रात को लगभग 8बजे बेल बजी, एक किशोर दरवाजे पर खड़ा था। मुझे देख कर बोला आप कृष्णा जी हैं ? मैंने हाँ कहते हुए उसे ड्राइंग रूम में बुलाया । उसने बताया कि आपकी किताब मुझे मेरे रूम में मिली, शायद मेरा पार्टनर कहीं से लाया होगा। मैंने चार घंटे में पूरी पढ़ ली, पता अपने पास का देख कर मिलने आ गया, उसने मुझे पूरी किताब सुना दी, फिर कहा कि नैनीताल जरूर जाऊंगा, मैंने एक प्रति भेंट की, चाय आदि हुई. जाते समय बोला कि मैंने सोचा कि बाहर से ही भगा दोगे, इतने बड़े लेखक हो,किन्तु आपने तो बहुत सम्मान, प्रेम दिया,क्या लेखक ऐसे होते हैं, मैंने कहा कि लेखक ऐसे ही होते हैं। उसके मोबाइल नंबर लिए, नागौर से उसने माता पिता से बात करवाई, परीक्षा के लिए जाने से पहले फोन करके मुझ से शुभकामनायें, आशीर्वाद लिए, अब वो बड़ी कम्पनी में कार्यरत है. यह मेरे लिए नोबल पुरस्कार से कम नहीं था।
एक दिन नैनीताल से श्रीमान सिद्धेश्वर जी का फोन आया कि दिल्ली पुस्तक मेले में नैनीताल की किताब देखी, तो मुझे अच्छा लगा, मैंने खरीद ली, घर आकर पढ़ी। अब मैं अपने ही नैनीताल को आपकी दृष्टि से देख रहा हूँ. अब वो मेरे मित्र हैं.
अंतिम पायदान पर सदन से प्रश्न पूछने की बात त कही तो प्रतिष्ठित साहित्यकार श्रीमान जमील कुरैशी साहब ने पूछा कि शब्दों से रचना में सौंदर्य की उत्पत्ती सम्भव है ? ज़वाब में कृष्णा ने कहा कि रचना में जो शब्द अनायास आते हैं तो सौंदर्य स्वत :दृश्यमान हो जाता है, हाँ बरबस, सायास प्रयोग किये गए शब्दों से निर्मल सौंदर्य दृष्टिगोचर नहीं हो पाता। अभी कल ही समाकालीन भारतीय साहित्य पत्रिका एक लेखिका के पत्र के उत्तर हरिवंशराय बच्चन जी ने प्रसंगानुसार लिखा कि आकाश के कई प्रयायवाची शब्द हैं फिर भी प्रसंग और विषय के अनुरूप शब्द प्रयोग में लाये आते हैं। इस की पुष्टि बच्चन साहब ने एक उदाहरण से की।
कुरैशी जी ने फिर पूछा कि आपकी किताबें मैंने पढ़ी हैं, प्रेम पर आपने बहुत लिखा है, आप प्रेम को कैसे परिभाषित करेंगी ?
इस पर कृष्णा जी ने बताया कि प्रेम को किसी भी परिभाषा में नहीं बांधा जा सकता है, यह एक ऐसी अद्भुत, अनिर्वचनीय, अलौकिक, अनुपम, अद्वितीय, दिव्य महानुभूति है जो शब्दों से बहुत परे हैं। प्रेम मात्र अहसास है। प्रेम कब, कहाँ, किस से, कैसे हो जाता है यह तो प्रेमीजन ख़ुद भी नहीं जान पाता। महाकवि सूरदास जी के शब्दों में -ज्यौं गूंगेहिं मीठे फल को रस, अंतरमन ही भावै ॥
तुलसी के अनुसार -गिरा अनयन, नयन बिनु बानी।
अगला प्रश्न किया उन्होंने आपकी काव्य -सृजन की प्रेरणा कौन रहा? कृष्णा जी ने ज़वाब में कहा कि एक पूर्णिमा की अर्द्धयामिनी को घर के पिछवाड़े में लगे पेड़ के पत्तों से छनकर दुग्ध धवल चांदनी वातायन से होकर मेरे पलंग पर छिटक रही थी, मैं जगी हुई थी। उस चांदनी की सुकोमल, रेशमी, शीतल, छुवन ने मेरे पोर -पोर को आल्हादित व झंस्कृत कर दिया , इतनी आनंदमयी,सुखद, सुकोमल अनुभूति हुई कि अनायास कुछ पंक्तियाँ मेरे अंतस में उतर आई…
तरु पल्लवों से छन कर
मेरे आँगन में छिटकी चांदनी
रजत नीर से
धरा सुंदरी को नहलाती चांदनी ……
कुछ और पंक्तियाँ हैं। एक छोटी सी कविता जैसी बन गई। अपने मित्र श्रीमान दिलीप शर्मा जी को दिखाई तो आपने नवज्योति में छपवा दी. इस प्रकार मेरी प्रथम प्रेरणा प्रकृति, चांदनी रही। जो मुझे आज भी बेहद पसंद है। हाँ, उन्हीं दिनों श्रीमान विजय जोशी साहब और मैं एक ही विद्यालय में कार्यरत थे, आप तो प्रारम्भ से ही कला -संस्कृति, साहित्य -सृजन में कीर्तिमान बना चुके थे, वहीँ से आपसे मुझे सतत प्रेरणा मिलने लगी… इनके मार्गदर्शन से मेरा सृजन गतिमान होता गया।

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