संपादकीय

चिकित्सा काण्डों में न्यायिक संवेदनशीलता आवश्यक

-विमल वधावन योगाचार्य
(एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट)
मानव चिकित्सा से सम्बन्धित आधुनिक विज्ञान देखने में दिन-दूनी रात-चैगुनी उन्नति करता हुआ दिखाई दे रहा है। परन्तु वास्तविकता में इन सब नये आविष्कारों और खोजों का परिणाम यह निकल रहा है कि मानव जीवन डाॅक्टरों और मशीनों के बीच एक खिलौना बनकर रह गया है। डाॅक्टर, औषधि निर्माता कम्पनियाँ और चिकित्सा मशीनों के उद्योग रोगियों को बीमारियों का डर दिखाकर खूब पैसा बटोर रहे हैं। मनुष्य इस गलतफहमी में ही खोया रहता है कि उसका बढ़िया इलाज होगा, रोग मुक्ति होगी परन्तु बहुतायत यह देखने में आता है कि साइड इफेक्ट के नाम पर रोग बढ़ते जाते हैं, मानव शरीर कमजोर होता चला जाता है और पैसा लुटाने का सिलसिला मृत्यु तक चलता रहता है। चिकित्सा उद्योग के आर्थिक षड्यन्त्रों को आज समझदार व्यक्ति भी समझ नहीं पा रहे। आधुनिक चिकित्सा की कमियों के अतिरिक्त व्यक्ति ठगा हुआ तो तब महसूस करता है जब डाॅक्टरों या उनके अधीन काम करने वाले कर्मचारियों आदि की लापरवाही ही रोगी की मृत्यु आदि का कारण बन जाती है।
अमेरिका की एक प्रसिद्ध कम्पनी जाॅनसन एण्ड जाॅनसन के अधीनस्थ स्थापित थी। इस कम्पनी ने कुल्हे की हड्डियों के सैट का उत्पादन प्रारम्भ किया। हजारों की मात्रा में यह सैट भारत में भी गैर-कानूनी तरीके से सरकार की अनुमति लिये बिना भेज दिये गये। इन गैर-कानूनी हरकतों के अतिरिक्त अधिक चिन्ताजनक तथ्य यह रहा कि भारत के बड़े अस्पतालों में 14,525 रोगियों के आॅपरेशन करके उन्हें यह सैट लगा दिये गये जो बाद में रोगियों के लिए अनेकों अन्य परेशानियों का कारण बन गये। कई रोगियों की तो मृत्यु भी हो गई। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने एक विशेषज्ञ समिति गठित करके इस सारे चिकित्सा काण्ड की जाँच करवाई। दिल्ली के मौलाना आजाद मेडिकल काॅलेज के एक प्रोफेसर डाॅ. अरूण अग्रवाल की अध्यक्षता में गठित इस समिति ने यह निष्कर्ष निकाला कि जाॅनसन कम्पनी इस सारी चिकित्सा लापरवाही का स्पष्ट दोषी है। परन्तु केन्द्र सरकार ने उन सभी पीड़ित रोगियों की सुरक्षा के लिए कोई प्रयास नहीं किया। उन्हीं रोगियों में से एक मृतक रोगी के पुत्र अरूण कुमार गोयनका ने इस सारे चिकित्सा काण्ड को उजागर करते हुए सीधा सर्वोच्च न्यायालय में रिट् याचिका प्रस्तुत की। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश श्री रंजन गोगोई के साथ न्यायमूर्ति श्री एस.के. कौल और श्री के.एम. जोसफ की पीठ ने इस काण्ड पर सुनवाई प्रारम्भ करते हुए केन्द्र सरकार से जवाब माँगा है। यह रिट् याचिका एक प्रकार से व्यापक जनहित याचिका है जिसमें सभी पीड़ित रोगियों के मुआवजे आदि पर विचार किया जा सकता है। परन्तु विडम्बना यह है कि भारत की सारी व्यवस्थाएँ और यहाँ तक कि न्यायाधीशों की मानसिकता भी अभी उस स्तर तक विकसित नहीं हुई जिसमें चिकित्सा के नाम पर होने वाले दुनिया के सबसे बड़े षड्यन्त्र और विशेष रूप से चिकित्सकों आदि की भयंकर लापरवाहियों की रोकथाम का कोई स्थाई समाधान ढूंढा जा सके। जब तक इन चिकित्सा षड्यन्त्रों की पूरी रोकथाम नहीं होती तब तक न्यायालयों और सरकारों को ऐसी लापरवाहियों के विरुद्ध मुआवजे की व्यवस्था तो इतनी जोरदार बनानी चाहिए कि चिकित्सकों के दिमाग अपने आप ही सुधार के मार्ग पर चल पड़ें।
सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई के दौरान जाॅनसन एण्ड जाॅनसन कम्पनी के इस चिकित्सा काण्ड के कई और तथ्य भी सामने आये। इस कम्पनी द्वारा निर्मित कुल्हे के सैट अमेरिका में भी हजारों लोगों पर प्रयोग किये गये थे। उन प्रयोगों से यह सिद्ध हुआ कि यह नया आविष्कार रोगियों के लिए कई समस्याओं का कारण बन जाता है और यहाँ तक कि रोगियों की मृत्यु भी हो सकती है। अमेरिका की न्याय व्यवस्था ने रोगियों के पक्ष में जोरदार सहानुभूति दिखाते हुए लगभग 9 हजार रोगियों में 4 करोड़ डाॅलर से भी अधिक की राशि मुआवजे की तरह वितरित करने का आदेश जारी कर दिखाया। इसी विषय को लेकर अमेरिका की अदालतों में लगभग 1500 मुकदमें अभी भी विचाराधीन हैं। अमेरिका में किसी आविष्कार की इतनी दुर्दशा होने के बावजूद ये उपकरण भारत के लोगों से लाभ कमाने के लिए भारत में कैसे आ गये? सरकार से इन उपकरणों के आयात की अनुमति भी नहीं थी। यह सारे तथ्य सिद्ध करते हैं कि आधुनिक चिकित्सक समुदाय भारतीय रोगियों की जान से खेलने को अपनी धन कमाने की लालसा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं समझता। परन्तु विडम्बना यह है कि भारत की सरकारें और न्यायालय क्यों निद्रालीन हैं। भारत के न्यायालयों से विशेष अपेक्षा है कि वे चिकित्सक उद्योग की लापरवाहियों से जुड़े मामलों को विशेष सहानुभूति से देखें।
दिल्ली सरकार के एक आपातकालीन दुर्घटना अस्पताल में एक रोगी की लात का आॅपरेशन कर दिया गया जबकि उसे केवल सिर पर चोट लगी थी। दिल्ली के ही एक अन्य चिकित्सा लापरवाही के मामले में 4 माह के एक बच्चे को पेन किलर जैसी औषधियाँ दे दी गई जिससे उसकी मृत्यु हो गई। तेलंगाना अस्पताल में 3 माह के एक मृत बच्चे का शरीर चूहों के द्वारा खाये जाने का मामला भी सुर्खियों में रहा। बिहार की एक 60 वर्षीय महिला की आँख का आॅपरेशन हुआ। आॅपरेशन के बाद उसने नर्स से पीने के लिए पानी मांगा तो नर्स ने उसे एसिड पिला दिया जिसके कारण उस महिला की मृत्यु हो गई। मथुरा में 6 वर्ष के एक बच्चे के सिर का आॅपरेशन करते समय चिकित्सा की एक सूई उसके मस्तिष्क में ही छोड़ दी गई। दिल्ली के ही नहीं अपितु सारे देश के एक प्रतिष्ठित संस्थान एम्स में आकर बिहार की महिला ने लम्बे पेट दर्द की शिकायत की तो डाॅक्टरों ने उसका डायलिसिस प्रारम्भ कर दिया। एम्स प्रबन्धन ने सम्बन्धित डाॅक्टर से चिकित्सा कार्य वापिस ले लिये। चिकित्सकों की ऐसी लापरवाहियों की बहुत बड़ी सूचियाँ बन सकती हैं। देश की न्याय व्यवस्था को ऐसे मामलों में बहुत बड़ी संवेदनशीलता का विकास करने की आवश्यकता है। सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ वर्ष पूर्व चिकित्सा लापरवाही के एक ऐसे ही मामले में 11 करोड़ का मुआवजा देने का आदेश करके इस नई संवेदनशीलता का मार्ग प्रशस्त कर दिया है। परन्तु अब भी हमारे देश की न्याय व्यवस्था इस विषय पर पूरी तरह से जागृत नहीं हो पाई। प्रत्येक चिकित्सा लापरवाही को एक बहुत बड़े चिकित्सा काण्ड की तरह समझा जाना चाहिए।

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