संपादकीय

भ्रूण हत्या के विरुद्ध कड़े कानूनों की आवश्यकता

-विमल वधावन योगाचार्य,
एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट
दुनिया में इससे बड़ा कोई विश्वासघाती अपराध नहीं हो सकता कि परमात्मा के द्वारा किसी आत्मा को जब कर्मफल व्यवस्था के अन्तर्गत पुनर्जन्म के तौर पर एक विशेष माता का गर्भ इस विश्वास के साथ उपलब्ध कराया जाता है कि नया जन्म लेने वाली आत्मा और माता-पिता सहित पूरे परिवार के बीच पूर्व कर्मों का फल भोगने की प्रक्रिया सम्पूर्ण की जानी है और परमात्मा की इस सारी व्यवस्था और विश्वास के प्रति घिनौना अपराध करते हुए माता-पिता अपने अन्धविश्वासों के कारण कुछ डाॅक्टरों की मदद से उस आत्मा को जन्म लेने से पूर्व ही भयंकर निर्दयी तरीके से हत्या का शिकार बना देते हैं। इस सारी आपराधिक क्रिया को भ्रूण हत्या के नाम से जाना जाता है। भ्रूण हत्या के लिए जिस प्रकार गर्भ में पल रहे बच्ची की हत्या की जाती है, उसे यदि कोई फिल्म के रूप में देख ले तो दुनिया भर की हिंसक फिल्मों में इस प्रकार की हत्या का दृष्टान्त नहीं मिलेगा। किसी को गोली मारकर, चाकू मारकर, जहर देकर या फांसी लगाकर हत्या करते हुए तो आपने अनेकों फिल्मों में देखा होगा, परन्तु इस प्रकार किसी जीवित व्यक्ति के अंगों को कैंची से काट-काट कर धीरे-धीरे हत्या का शिकार होते हुए शायद आपने कभी न देखा हो जैसा भ्रूण हत्या की प्रक्रिया में माता-पिता की अनुमति से अपराधी डाॅक्टर के नेतृत्व में उसका अपराधी दल कार्य करता है। माँ के गर्भद्वार में से कैंची जैसे हथियार घुसाकर छोटे-छोटे टुकड़ों में गर्भस्थ बच्ची के नन्हें-नन्हें पैर, हाथ और सिर आदि को काटकर एक-एक करके गर्भद्वार से बाहर निकाला जाता है।
भ्रूण हत्या के विरुद्ध भारत में व्यापक जन-जागृति अभियान चलते हुए देखे जा सकते हैं। संसद ने कानूनों के द्वारा भ्रूण हत्या को एक अपराध घोषित करते हुए माता-पिता के साथ-साथ चिकित्सकों के लिए भी जेल सजा तथा जुर्माने के प्रावधान किये हुए हैं। परन्तु विडम्बना है कि सामाजिक आन्दोलनों और कानूनी प्रावधानों के बावजूद आज तक किसी विरले ही मुकदमें में भ्रूण हत्या करवाने वाले माता-पिता या चिकित्सक दल को सजा हुई होगी।
अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर 103 से 107 के बीच लिंग अनुपात को सामान्य माना जाता है। 103 लिंग अनुपात का अर्थ है कि समाज में 100 लड़कियाँ तथा 103 लड़के जन्म ले रहे हैं। 107 लिंग अनुपात का अर्थ है कि समाज में 100 लड़कियाँ तथा 107 लड़के जन्म ले रहे हैं। किसी समाज में यदि लिंगानुपात इससे अधिक बढ़ता है तो यह माना जाता है कि लड़कियों की संख्या में कमी और लड़कों की संख्या में वृद्धि किसी अप्राकृतिक तरीके से बढ़ रही है। जिसमें मुख्यतः भ्रूण हत्या को ही एक मात्र दोष माना जाता है।
भारत में कुछ माता-पिता की मानसिकता को कन्याओं के प्रति अपराधी बनाने के अनेकों कारण हैं। दहेज तथा विवाह के अन्य भारी खर्चों और विवाह के बाद भी लेन-देन की परम्पराओं के चलते लड़कियों को गरीब और मध्यम दर्जे के लोग सदैव एक बोझ ही मानते रहे हैं। इस बोझ से मुक्ति पाने के लिए वे भ्रूण हत्या जैसे पाप और अपराध का सहारा लेते हैं। सामान्य लोगों का यह भी मानना है कि भ्रूण हत्या का अपराध करके तो कानून उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता जबकि जन्म लेने के बाद कन्या की हत्या करने पर सीधा धारा-302 के अन्तर्गत कत्ल का मामला बनेगा। जन्म के बाद लड़कियों का पालन-पोषण और संरक्षण लड़कों की अपेक्षा कठिन माना जाता है। समाज में लड़कियों की सुरक्षा आज भी हर समय खतरे में दिखाई देती है। इस दायित्व से मुक्ति लेने के लिए भी कुछ लोग कन्याओं को जन्म से पहले स्वयं ही हत्या का पाप कर बैठते हैं। आज भारत में कुछ लोगों का यह विश्वास है कि बुढ़ापे में उनका सहारा केवल लड़का ही बन सकता है। यहाँ तक कि माता-पिता की मृत्यु होने पर अन्तिम संस्कार के लिए भी लड़के को ही अधिकारी माना जाता है। इन सारे सामाजिक अन्धविश्वासों और लड़कियों के प्रति कु-दृष्टि के चलते भ्रूण हत्या जैसे महापाप को समाप्त करना कठिन ही नजर आता है।
भ्रूण हत्या को जिस प्रकार सामाजिक जागृति के द्वारा रोकना कठिन नजर आ रहा है उसी प्रकार कानून भी अब तक इसमें विफल रहा है। कानूनी प्रावधानों के अनुसार यदि कोई व्यक्ति लिंग जाँच के लिए किसी भी प्रकार से प्रचार करता है तो उसे अधिकतम तीन वर्ष की सजा और 10 हजार रुपये जुर्माना हो सकता है। चिकित्सा से सम्बन्धित नियमों के अनुसार भी यदि कोई चिकित्सक भ्रूण हत्या के उद्देश्य से लिंग जाँच करता है तो उसे चिकित्सा अधिकार से भी वंचित किया जा सकता है। गर्भावस्था को चिकित्सा से समाप्त कराने के कानून में 12 सप्ताह तक के भ्रूण की समाप्ति की अनुमति दी गई है, परन्तु ऐसा केवल उन्हीं परिस्थितियों में किया जा सकता है जब गर्भावस्था का जारी रहना माँ के लिए शारीरिक या मानसिक तौर पर खतरनाक हो।
यहाँ तक कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा-416 में किसी महिला को गर्भावस्था के दौरान मृत्यु दण्ड नहीं दिया जा सकता। इतना ही नहीं ऐसी महिला की सजा को आजीवन कारावास में भी बदला जा सकता है। यह प्रावधान गर्भ में पल रहे बच्चे के जीवन के अधिकार को मान्यता देते हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद-21 में भी जिस जीवन के अधिकार को मूल अधिकार बताया गया है उसमें स्वाभाविक तौर पर जन्म लेने का अधिकार भी शामिल है। केवल इस आधार पर कि जन्म लेने वाली कन्या है, उसे जन्म से पूर्व ही मृत्यु का शिकार बना देना उसके मूल अधिकार का भी उल्लंघन है। भारतीय दण्ड संहिता की धारा-312 में किसी महिला के गर्भ को नुकसान पहुँचाना भी अपराध घोषित है जिसके लिए अधिकतम 3 वर्ष की सजा या जुर्माना हो सकते हैं। यदि महिला तुरन्त बच्चे को जन्म देने वाली हो तो उस परिस्थिति में गर्भ को नुकसान पहुँचाने वाले व्यक्ति के लिए यही सजा बढ़कर 7 वर्ष तक हो सकती है। गर्भ को नुकसान पहुँचाते समय यदि किसी महिला की मृत्यु हो गई तो उस अवस्था में अधिकतम 10 वर्ष की सजा हो सकती है।
इतने प्रावधानों के बावजूद अक्सर यह देखा गया है कि अदालतें ऐसे अपराध के दोषी व्यक्तियों के विरुद्ध नरम दृष्टिकोण अपनाती हैं। भ्रूण हत्या के विरुद्ध जन-जागृति में लगे सामाजिक कार्यकर्ताओं और संस्थाओं की यह माँग है कि भ्रूण हत्या को भी एक जीवित व्यक्ति की हत्या के समान ही माना जाये और इस अपराध के सिद्ध होने पर भी आजीवन कारावास की सजा अवश्य निर्धारित होनी चाहिए। इस सामाजिक बुराई को रोकने के लिए तो सख्त कानूनी प्रावधान और उनका अनुपालन अत्यन्त आवश्यक है।

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