संपादकीय

मूक, बधिर वृद्धों के लिए आशा की किरण

-अविनाश राय खन्ना
राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भाजपा

सर्वोच्च न्यायालय ने बच्चों की शिक्षा को एक निर्णय के द्वारा मूल अधिकार घोषित किया। इस निर्णय के बाद भारत की संसद ने 16 वर्ष की आयु के बच्चों को निःशुल्क शिक्षा देने का कानून भी पारित कर दिया। इस दृष्टिकोण से विचार किया जाये तो दिव्यांग बच्चों को शिक्षा की विशेष सुविधाएँ प्राप्त होनी चाहिए। दिव्यांग बच्चों में भी मूक और बधिर बच्चों की एक श्रेणी बनती है अर्थात् जो न सुन सकते हैं और न बोल सकते हैं। इसी प्रकार दृष्टिहीन बच्चों की एक अलग श्रेणी बनती है जो सुन और बोल तो सकते हैं परन्तु देख नहीं सकते। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने ऐसे सभी देशवासियों को दिव्यांग शब्द से सम्बोधित करके उनके उत्साह को बढ़ाने का प्रयास किया है। दिव्यांग शब्द के पीछे यह प्रेरणा समाहित है कि जिस मनुष्य का कोई एक अंग कमजोर होता है उसके दूसरे अंगों में और विशेष रूप से उसकी बुद्धि में दिव्य रूप से शक्तियाँ बढ़ जाती हैं।
गूंगे और बहरे लोगों के सामने अनेकों कठिनाईयाँ आती हैं और उनकी कठिनाईयाँ ऐसे वातावरण में और अधिक बढ़ जाती हैं जब सरकारों और समाज का व्यवहार भी ऐसे लोगों के समग्र विकास के प्रति गूंगे, बहरे और अन्धों की तरह हो जाता है। ऐसे अनेकों दुर्भाग्यशाली लोग सदैव एक आशा की दृष्टि बनाये रखते हैं कि कब उन्हें सामान्य नागरिकों की तरह जीवन्त जीवन जीने का अवसर प्राप्त होगा। ऐसे लोगों को शिक्षा, रहन-सहन की विशेष सुविधाएँ तथा तकनीकी या पेशेगत कार्यों को करने के लिए विशेष वातावरण प्राप्त होना चाहिए तभी उनका जीवन जीने का अधिकार सार्थक होगा। संसार में अनेकों उदाहरण हैं जब ऐसे दिव्यांगजनों को जीवन के विकास की विशेष सुविधाएँ मिलती हैं तो वे भी महान विशेषज्ञों की तरह जीवन की ऊँचाईयाँ छूते हुए दिखाई देते हैं। परन्तु सरकारी स्तर पर ऐसे लोगों की संख्या का पता लगाकर उनके लिए वैज्ञानिक प्रगति से परिपूर्ण हर प्रकार की सुविधाएँ पहुँचाना आज तक भारतीय समाज में प्रारम्भ नहीं किया जा सका। सरकारी प्रयास के अभाव में इनके लिए पर्याप्त मात्रा में शिक्षण संस्थाएँ तथा योग्यतानुसार प्रशिक्षण के साथ-साथ आजीविका कमाने के माध्यम विकसित ही नहीं हो पाते। वैसे यह समस्या केवल भारत में ही नहीं अपितु सारे संसार में लगभग इसी प्रकार चल रही है। मूक, बधिर लोगो ंमें से कई बार तो बड़ी दिव्य योग्यताएँ दब कर रह जाती हैं। इसलिए जहाँ एक तरफ केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों का यह महान दायित्व बनता है कि ऐसे दिव्यांगजनों की संख्या का आंकलन करके उनको विशेष नीतियों और कार्यक्रमों के अन्तर्गत विशेष सुविधाओं से सम्पन्न किया जाये। इसी प्रकार समाज का भी यह दायित्व बनता है कि दिव्यांग नागरिकों के सामाजिक और आर्थिक उत्थान हेतु विशेष सहयोग प्रस्तुत करने के लिए सदैव तत्पर रहें।
जम्मू कश्मीर राज्य में मूक और वधिरों के लिए कोई भी सरकारी संस्था उपलब्ध नहीं है। जम्मू शहर में गूंगे, बहरे लोगों के लिए एक गैर-सरकारी संस्था, ‘जम्मू कश्मीर समाज कल्याण केन्द्र’ नाम से कार्य करती हुई दिखाई देती है, परन्तु वित्तीय तथा अन्य साधनों के अभाव में पर्याप्त सहायता कार्य सम्पन्न नहीं हो पा रहा। लगभग यही स्थिति पंजाब प्रान्त की है, जहाँ गूंगे, बहरे बच्चों के लिए महन्त गुरबन्तादास विद्यालय भटिण्डा में गूंगे, बहरे बच्चों के लिए चलाया जा रहा है। यह संस्था भटिण्डा जिले की रेडक्रास सोसाइटी के द्वारा चलाई जा रही है। फरीदकोट में भी रेडक्रास की जिला इकाई भी ऐसा ही एक विद्यालय चलाती है। जालन्धर में स्व. डाॅ. सत्यपाल खोसला की स्मृति में एक मूक, बधिर विद्यालय चल रहा है। बरनाला में पवन सेवा समिति भी ऐसा ही एक विद्यालय चलाती है। चण्डीगढ़ में वाटिका हाई स्कूल भी विशेष रूप से मूक और बधिर बच्चों के लिए स्थापित है। इसी प्रकार रूपनगर (रोपड़) में भी मूक, बधिर बच्चों के लिए एक विद्यालय चल रहा है। दिल्ली में भी ऐसी ही कुछ संस्थाएँ गैर-सरकारी प्रयासों के अतिरिक्त सरकारी विभाग द्वारा भी चलाई जा रही हैं।
जिस प्रकार सारे देश में सामान्य बच्चों के लिए घर के नजदीक शिक्षा का प्रबन्ध किया गया है उसी प्रकार अलग-अलग दिव्यांग श्रेणियों के लिए गाँव-गाँव में स्कूल तो स्थापित नहीं हो सकते परन्तु प्रत्येक जिले में एक विद्यालय अवश्य उपलब्ध होना चाहिए जो शिक्षा के साथ-साथ ऐसे दिव्यांग बच्चों को आवास की सुविधाएँ भी उपलब्ध कराये क्योंकि शारीरिक कमजोरियों के चलते इन बच्चों के लिए प्रतिदिन घर से स्कूल आना-जाना सम्भव नहीं होता। केन्द्र तथा राज्य सरकारों ने समाज कल्याण विभाग तो अवश्य स्थापित किये हुए हैं, परन्तु सरकारी स्तर पर ऐसी संस्थाओं की स्थापना नहीं की जाती। सरकारें गैर-सरकारी संस्थाओं के माध्यम से ही कुछ वित्तीय सहायता तथा कुछ अन्य विशेष सहयोग दिव्यांगजनों तक पहुँचाने का प्रयास करती हैं। इसलिए ऐसे दिव्यांगजनों के सम्पूर्ण कल्याण का सीधा दायित्व तो समाज पर ही आता है।
मैंने भी अपने सामाजिक, राजनीतिक जीवन में मूक और बधिर लोगों को अनेकों समस्याओं से जूझते हुए देखा है। ऐसे दो युवाओं की नौकरी लगवाने का प्रयास किया और एक मूक बधिर बच्चे को तो गोद लेकर पारिवारिक साधनों से ही उच्च शिक्षा तक हर सम्भव सुविधा उपलब्ध कराई। परन्तु मेरे मन में हमेशा यह विचार आता था कि देश में अनेकों वृद्ध आश्रम सामान्य योग्यता वाले वरिष्ठ नागरिकों के लिए तो देखे जा सकते हैं परन्तु ऐसी दिव्यांगता वाले वरिष्ठ नागरिकों के लिए तो कहीं भी कोई प्रयास देखने के लिए नहीं मिलता जो न सुन सकते हैं और न बोल सकते हैं। जीवन की वृद्धावस्था में पहुँचकर मूक, बधिर लोगों को और भी अधिक गम्भीर सहारे की आवश्यकता होती है। ऐसे वरिष्ठ नागरिकों की आवश्यकताएँ भी सामान्य वृद्ध लोगों से कुछ भिन्न और अधिक होती ही हैं। कुछ दिन पूर्व एक चर्चा के बाद मेरे मन में विचार उत्पन्न हुआ कि मूक और बधिर (गूंगे, बहरे) वरिष्ठ नागरिकों को समाज में सहायता और सहारे की आवश्यकता है। मैंने होशियारपुर के कुछ परोपकारी और समाजसेवी सज्जनों से इसका उल्लेख किया तो जिले के एक सुविख्यात समाजसेवी स्व. श्री सुन्दर लाल कपूर जी के परिजनों ने विचारों की गम्भीरता को स्वीकार करते हुए अपना एक बहुत बड़ा भूखण्ड और भारी सहयोग राशि भी इस महान कार्य के लिए समर्पित करने का संकल्प व्यक्त किया जिससे गूंगे, बहरे लोगों के लिए एक आश्रम स्वरूप संस्था खड़ी की जाये। इस आश्रम का नाम ‘सुन्दरधाम’ निर्धारित किया गया है। इस नई संस्था में शामिल करने के लिए हमारे पास लगभग 20 मूक, बधिर वरिष्ठ सज्जन भी सम्पर्क में हैं। मुझे ऐसा लगता है कि यह संस्था अपने आपमें प्रथम और अद्वितीय संस्था होगी, क्योंकि मूक, बधिर वृद्ध लोगों के लिए विशेष रूप से कोई वृद्धाश्रम देखने-सुनने में अभी तक नहीं आया। यदि इस प्रकार की कोई संस्था कहीं चल रही हो तो उसके प्रबन्धक सम्मान के योग्य हैं और भविष्य में हमें उनसे भी बहुत कुछ सीखने को मिलेगा। हमारे प्रयास का केन्द्रीय विषय यही है कि मूक, बधिर लोगों की विशेष समस्याओं को अलग वातावरण में ही सुलझाया जा सकता है। यह संस्था भविष्य में मूक और बधिर बच्चों को प्रविष्ट करके उनके जीवन निर्माण में भी सहायक होगी। मुझे आशा ही नहीं परन्तु पूर्ण विश्वास है कि भविष्य में भारत के प्रत्येक जिले में गूंगे, बहरे तथा दृष्टिहीन लोगों के लिए अलग-अलग समग्र सहायता वाली संस्थाएँ स्थापित हों। यह संस्थाएँ विशेष रूप से उन लोगों के लिए बहुत अधिक सहायक सिद्ध होंगी जिनकी पारिवारिक पृष्टभूमि किसी भी रूप में कमजोर हो। केन्द्र तथा राज्य सरकारों को इस प्रकार की समाजसेवी संस्थाओं की सहायता खुलकर करनी चाहिए। अधिकारी वर्ग और विशेष रूप से विभाग के मंत्रियों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि ऐसी संस्थाओं की सहायता प्रक्रिया में किसी प्रकार का भ्रष्टाचार न पनपे।

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