संपादकीय

सेवा निवृत्त न्यायाधीशों की योग्यता का लाभ

-विमल वधावन योगाचार्य
एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री आदर्श गोयल को सेवानिवृत्त होते ही राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया गया। इस विषय को लेकर न्याय व्यवस्था से सम्बन्धित सक्रिय बुद्धिजीवियों के तर्क-वितर्क प्रारम्भ हो गये। न्यायाधीशों को सेवानिवृत्ति के बाद सरकारी पदों पर नियुक्ति के विरोध में एक मात्र तर्क यह दिया जा रहा है कि इसके कारण एक न्यायाधीश के रूप में कार्य करते हुए जब दिमाग में सेवानिवृत्ति के बाद मिलने वाले पदों पर नजर रहती है तो उन्हें प्राप्त करने की अभिलाषा में वह न्यायाधीश सरकार के पक्ष में अपने निर्णयों को प्रभावित करने लगता है।
न्यायमूर्ति श्री आदर्श गोयल के मामले में यह तर्क अपने आपमें कोई विशेष महत्त्व नहीं रखता क्योंकि उन्होंने अपने कार्यकाल में कई निर्णय सरकारी कानूनों और व्यवस्थाओं के विरुद्ध भी दिये हैं। सरकार के विरुद्ध सबसे महत्त्वपूर्ण निर्णय था उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय के लिए न्यायाधीशों की नियुक्ति का, जिसमें न्यायमूर्ति श्री गोयल ने यह मत व्यक्त किया था कि न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया में न्यायपालिका सर्वोच्च रहनी चाहिए और कार्यपालिका का हस्तक्षेप सीमित होना चाहिए। इसी निर्णय के द्वारा संसद द्वारा पारित कानून ही रद्द कर दिया गया था। इसी प्रकार वैवाहिक विवादों से जुड़े मुकदमों में भारतीय दण्ड संहिता की धारा-498ए के दुरुपयोग को रोकने के लिए न्यायमूर्ति श्री गोयल की अध्यक्षता वाली पीठ ने ही कड़े नियम जारी किये थे। अनुसूचित जाति और जनजाति कानून के दुरुपयोग को रोकने के लिए भी इसी प्रकार न्यायमूर्ति श्री गोयल की अध्यक्षता वाली पीठ ने ही यह निर्णय दिया था कि केवल शिकायत पर मुकदमा दर्ज न करके उसकी विधिवत छानबीन अवश्य की जानी चाहिए। न्यायाधीश की कुर्सी पर बैठकर जब व्यक्ति समाज के किसी भी विवाद पर निर्णय देने के लिए विचार करता है तो उसका अपना एक स्वाभाविक विवेक जागृत होता है जिसके सहारे वह एक विशेष निर्णय लेता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि सभी न्यायाधीश भी एक सामान्य मानव की तरह हैं जिनके जीवन में अलग-अलग दर्शनों, सिद्धान्तों, विचारधाराओं आदि का प्रभाव होता है। इसमें भी कोई संदेह नहीं कि अनेकों बार न्यायाधीश अपने विचारों से प्रभावित होकर गलत निर्णय भी दे बैठते हैं। परन्तु हमारे देश की न्यायपालिका का तन्त्र इतना अच्छा विकसित है कि कोई भी निर्णय सदा के लिए अन्तिम निर्णय नहीं बन सकता। निचली अदालतों के निर्णय की जाँच उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा की जाती है। यहाँ तक कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय भी कई बार भविष्य में सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा ही बदले गये हैं। भारत का नागरिक जिस संसद को चुनता है वह संसद सर्वोच्च न्यायालय के बड़े से बड़े निर्णय के बावजूद भी भिन्न कानून बना सकती है। संसद के बनाये कानूनों की संवैधानिकता पर सर्वोच्च न्यायालय को विचार करने का पूरा अधिकार है। इस प्रकार हम देखते हैं कि न्यायपालिका और विधायिका की सारी कार्य प्रणाली में कोई एक व्यक्ति पूरा प्रभावशाली नहीं बन सकता।
न्यायाधीशों को सेवानिवृत्ति के बाद उन्हें नियुक्ति देने के लिए हमारे देश में अनेकों ऐसे प्राधिकरण और आयोग चल रहे हैं जिनमें बाकायदा न्यायाधीशों को ही मुख्य पदों पर नियुक्त करने के प्रावधान हैं। मानवाधिकार आयोग, उपभोक्ता आयोग, विधि आयोग, प्रेस कौंसिल, राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण, सैनिक प्राधिकरण, नदियों के जलों का बंटवारा करने वाले प्राधिकरण आदि। सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की नियुक्ति पर प्रश्न उठाने का मतलब है इन सभी प्राधिकरणों और आयोगों को बन्द करवाने की माँग, जो सम्भव नहीं हो सकता। इसलिए न्यायाधीशों की पुनर्नियुक्ति पर आपत्तियाँ करने से अच्छा है कि संसद कोई ऐसी प्रणाली विकसित करे जिससे इन नियुक्तियों पर राजनीतिक भेद-भाव के आरोप न लग सके।
कुछ बुद्धिजीवियों का यह मानना है कि किसी भी न्यायाधीश के सेवानिवृत्त होने के बाद एक या दो वर्ष का समय शान्त अवधि की तरह घोषित किया जाना चाहिए। शान्त अवधि के बाद ही नियुक्तियाँ की जानी चाहिए। यदि शासकदल को इन नियुक्तियों में राजनीतिक विचारधारा के आधार पर भेदभाव करना होगा तो शान्त अवधि के बाद भी शासक दल अपनी विचारधारा के न्यायाधीशों को पुनर्नियुक्ति से लाभान्वित करेगा।
सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश श्री आर.एम.लोढा ने भारत के दो प्रधानमंत्रियों को इस विषय पर एक निश्चित प्रणाली बनाने के ठोस सुझाव दिये थे। अप्रैल, 2014 में जब श्री लोढा मुख्य न्यायाधीश बने तो तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह को और सितम्बर, 2014 में सेवानिवृत्ति के समय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी को यह सुझाव दिये गये। इस सुझाव के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति से तीन माह पूर्व दो में से एक विकल्प चुनने को कहा जाये। प्रथम विकल्प के अनुसार जो न्यायाधीश सेवानिवृत्ति के बाद सरकारी पदों की इच्छा व्यक्त करें उन्हें सेवानिवृत्ति से अगले 10 वर्ष तक उनके अन्तिम वेतन की गारण्टी दी जाये जिसमें आवास, वाहन तथा अन्य सुविधाएँ शामिल न हों। इस विकल्प को चुनने वाले न्यायाधीश सेवानिवृत्ति के बाद कोई निजी व्यवसायिक कार्य नहीं कर पायेंगे। ऐसे पैनल में से ही सरकारी पदों पर नियुक्तियाँ दी जायें अथवा इन न्यायाधीशों से कोई भी न्यायिक कार्य करवाया जाये। इस पैनल में से नियुक्तियों के लिए भी केन्द्रीय स्तर पर प्रधानमंत्री, भारत के मुख्य न्यायाधीश के साथ विचार-विमर्श करके निर्णय लें और राज्य स्तर पर मुख्यमंत्री, राज्य के मुख्य न्यायाधीश से विचार-विमर्श करके निर्णय लें। दूसरी श्रेणी में वे न्यायाधीश रह जायेंगे जो भविष्य में सरकारी पदों पर नियुक्ति नहीं चाहते। उन्हें केवल पेंशन प्राप्त करने और निजी व्यवसायिक कार्यों को करने का ही अधिकार होगा।
यदि सरकार इस सरल से सुझाव को एक प्रणाली के रूप में घोषित कर दे तो सेवानिवृत्ति के बाद पद मिलने की प्रक्रिया संदेहों और विवादों से बाहर हो सकती है। नहीं तो जब भी किसी न्यायाधीश को सेवानिवृत्ति के बाद किसी भी पद पर नियुक्त किया जायेगा आपत्तियाँ उठती ही रहेंगी। एक न्यायाधीश के रूप में लम्बा समय कार्य करने के बाद व्यक्ति का विवेक, कानूनों की व्याख्या करने का तरीका और निर्णयों में दूरदर्शिता का अच्छा विकास हो जाता है। सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की इन महान योग्यताओं का लाभ अर्द्धन्यायिक प्राधिकरणों और आयोगों के माध्यम से तो उठाया ही जाता है, इसके अतिरिक्त संसद और विधानसभाओं के द्वारा कानून बनाने की प्रक्रियाओं में भी इन महान योग्यताओं का लाभ उठाया जाना चाहिए।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *