संपादकीय

पहले तोलो फिर बोलो

-तनवीर जाफरी
भारतवर्ष साहित्य के क्षेत्र में एक समृद्ध देश माना जाता है। हमारे देश ने विभिन्न भाषाओं के अनेक अंतर्राष्ट्रीय याति प्राप्त लेखक व साहित्यकार दिए हैं। प्रत्येक भाषा व साहित्य में सही शब्दोच्चारण अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। परंतु समृद्ध साहित्यिक देश होने के बावजूद बड़े दुःख के साथ यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि प्रायः स्वयं को शिक्षित, ज्ञानी यहां तक कि खुद को लेखक या साहित्यकार कहने वाले तमाम लोग भी शब्दों का सही उच्चारण नहीं कर पाते। इसका परिणाम यह होता है कि गलत शब्दोच्चारण के चलते शब्द के अर्थ ही बदल जाते हैं। यदि कोई अज्ञानी व्यक्ति शब्दों का गलत उच्चारण करे तो उसकी अनदेखी इसलिए की जा सकती है कि शायद उस व्यक्ति को किसी ने शब्दोच्चारण की बारीकियों का ज्ञान नहीं दिया। परंतु जब एक शिक्षित व्यक्ति, कोई जिम्मेदार व्यक्ति और कोई ऐसा व्यक्ति जो देश को शिक्षा सहित विभिन्न क्षेत्रों में आगे ले जाने का दावा कर रहा हो और वह सार्वजनिक रूप से शब्दों का गलत उच्चारण करे और शब्दों की तुकबंदी कर मात्र लोगों को रिझाने या तालियां बजवाने हेतु इस तरह की गलत बयानी करे तो निश्चित रूप से देश के शिक्षित समाज का चिंतित होना जरूरी है।
पिछले दिनों कुछ ऐसा ही दृश्य प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उत्तर प्रदेश के मेरठ में आयोजित एक चुनावी रैली में देखने को मिला। उन्होंने अपनी आदत के मुताबिक यहां भी शब्दों की तुकबंदी कर उसके साथ खिलवाड़ करने का प्रयास किया जो उन्हें खुद उलटा पड़ गया। प्रधानमंत्री ने समाजवादी पार्टी का पहला अक्षर अर्थात् स राष्ट्रीय लोकदल का प्रथम अक्षर र व बहुजन समाज पार्टी का पहला वर्ण ब, इन तीनों प्रथम वर्णों स़रा़ब को जोड़ कर सराब बताया और जनता से पूछा कि सराब अच्छी चीज होती है या बुरी। प्रधानमंत्री ने शराब शब्द को तुकबंदी से सराब बताकर अपने समर्थकों से तालियां तो जरूर पिटवा लीं। परंतु उनके आलोचकों द्वारा प्रधानमंत्री के शराब को सराब बताने पर खूब खिल्लियां उड़ाई गईं।गौरतलब है कि शराब शऱआब जैसे फारसी के दो शब्दों को जोड़कर बनाया गया शब्द है जिसमें शर का अर्थ शरारत या फितना आदि होता है जबकि आब का अर्थ पानी। परंतु सराब न तो कोई पीने वाली चीज है न ही इसका कोई ऐसा अर्थ निकलता है जैसा प्रधानमंत्री कहना चाह रहे हैं। वे तो विपक्षी दलों के गठबंधन को नीचा दिखाने के लिए शब्दों की तुक्केबाजी कर इन दलों के पहले अक्षर को जोड़कर अपने विपक्षी गठबंधन को बदनाम करने का प्रयास करना चाह रहे थे।
प्रधानमंत्री द्वारा गलत शब्दोच्चारण किया जाना कोई नई बात नहीं है। यहां यह कहने में भी कोई हर्ज नहीं कि इस समय देश के अनेक नेता वक्ता, लेखक, संपादक तथा साहित्यकार शब्दोच्चारण की परवाह नहीं करते। केवल बोलने में ही नहीं बल्कि लिखने में भी शब्दोच्चारण की बारीकियों पर नजर नहीं रखी जाती। दरअसल सही उच्चारण की शुरुआत सही लेखन से ही होती है। जब तक शब्द के उच्चारण के अनुकूल किसी शब्द को अथवा शब्दों को लिखा नहीं जाएगा तब तक उस शब्द के उच्चारण के विषय में पता ही नहीं चल सकता। मिसाल के तौर पर खुदा और खुदाई जैसे शब्दों को ही ले लीजिए। यदि इनमें ख के नीचे बिंदी या नुक्त़ा नहीं लगेगा तो इसे खुदा या खुदाई ही पढ़ा जाएगा। और निश्चित रूप से ख की बिंदी हटते ही इसका अर्थ भी अनर्थ हो जाएगा। गोया ख के नीचे बिंदी लगने के बाद खुदा का अर्थ ईश्वर व खुदाई का अर्थ यदि ईश्वरीय सत्ता होता है तो खुदा का अर्थ कोई गड्ढा खुदा या किसी गड्ढे या जमीन की खुदाई जैसे अर्थ निकल आते हैं। इसी प्रकार का एक शब्द है जलील। इसका अर्थ होता है बहादुर। परंतु यदि इसी में ज के नीचे बिंदी लगाते हुए इसे जलील लिख दिया जाए तो इसका अर्थ नीच, घटिया आदि हो जाता है। इस प्रकार के हजारों शब्द ऐसे हैं जो बिंदी व नुक्ते लगने के बाद या उसके हटने के बाद अपने अर्थों को ही बदल देते हैं। इस प्रकार की अज्ञानता यदि साधारण, अनपढ़, अज्ञानी तथा साधारण लोगों द्वारा यदि किया जाए तो उसे दरगुजर किया जा सकता है परंतु यदि देश के प्रधानमंत्री पद पर बैठा कोई व्यक्ति सड़कछाप तुक्केबाजियां कर साहित्य का मजाक उड़ाते हुए महज लोगों से तालियां पिटवाने की खातिर ऐसा करे तो इसे देश के साहित्यिक भविष्य के लिए अच्छा नहीं का जा सकता।
हमारे देश में प्रधानमंत्री पद पर बैठने वाले पंडित जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, विश्वनाथ प्रताप सिंह, लाल बहादु शास्त्री, चैधरी चरण सिंह, इंद्रकुमार गुजराल, मोरार जी देसाई, अटल बिहारी वाजपेयी तथा डा० मनमोहन सिंह जैसे शिक्षित, ज्ञानी व साहित्यिक बारीकियों की समझ रखने वाले लोगों द्वारा आमतौर पर हमेशा सही शब्दोच्चारण के द्वारा अपनी बात जनता तक पहुंचाने का प्रयास किया गया है। इन नेताओं ने झूठ, लफ्फाजी व तुकबंदी का कभी प्रयोग न करते हुए प्रधानमंत्री पद की गरिमा का पूरा खयाल रखा है। परंतु देश को इत्तेफाक से नरेंद्र मोदी के रूप में पहले ऐसे प्रधानमंत्री मिले हैं जो शब्दों के उच्चारण तो क्या इतिहास व तथ्यों की परवाह किए बिना जब और जहां जो चाहे बोलते फिर रहे हैं। प्रधानमंत्री को गलत उच्चारण के अतिरिक्त कई जगहों पर गलत इतिहास बताते हुए और गलत बयानी करते हुए भी सुना गया है। आश्चर्य की बात तो यह है कि वे स्वयं विपक्ष पर तो झूठ बोलने का बार-बार इल्जाम लगाते हैं परंतु खुद भी वे झूठ बोलने में पीछे नहीं है।
गत् दिनों सोशल मीडिया पर एक वीडियो लोगों द्वारा खूब वायरल किया गया जिसमें प्रधानमंत्री मोदी मणिपुर के लोगों को संबोधित करते हुए यह कह रहे हैं कि राहुल गांधी ने मणिपुर से नारियल के जूस का निर्यात करने की बात कही थी। जबकि राहुल गांधी ने नारियल के जूस नहीं बल्कि अनन्नास का जूस निर्यात करने की बात की थी। 2014 का बिहार में दिया गया प्रधानमंत्री का वह भाषण जिसमें उन्होंने सिकंदर के बिहार आने व तक्षशिला विश्वविद्यालय के बिहार में होने जैसी कई तथ्यहीन बातें की थीं। इन बेसिर-पैर की बातों का नीतीश कुमार द्वारा ही भंडाफोड़ किया गया था। इसी प्रकार प्रधानमंत्री ने कबीरदास की निर्वाणस्थली मगहर में अपने भाषण में संत कबीरदास, गुरूनानक देव तथा गुरू गोरखनाथ की एक साथ बैठक करवा दी थी। जबकि इतिहास के अनुसार यह तीनों ही समकालीन संत नहीं थे। इसी प्रकार प्रधानमंत्री द्वारा अपने एक भाषण में जनता को यह बताया गया कि भगत सिंह से मिलने के लिए कांग्रेस परिवार का कोई भी व्यक्ति जेल में नहीं गया। ऐसा कहकर उन्होंने भगतसिंह के प्रशंसकों के बीच कांग्रेस व नेहरू-गांधी परिवार के प्रति नफरत पैदा करने का प्रयास किया। परंतु उनके इस भाषण के फौरन बाद ही अनेक इतिहासकार सामने आए जिन्होंने यह बताया कि पंडित नेहरू स्वयं भगतसिंह से मिलने जेल गए थे। यहां तक कि उन दिनों की अखबार में इस संबंध में प्रकाशित रिपोर्ट भी सामने लाई गई।
राजनैतिक वादों व चुनावी जुमलों की बातों को अलग रख दिया जाए तो भी प्रधानमंत्री अपने भाषणों में आए दिन कोई न कोई ऐसी गलती करते ही रहते हैं जो या तो तथ्यात्मक रूप से गलत होती हैं या फिर साहित्यिक रूप से। किसी भी देश का युवा व छात्र अपने देश के प्रधानमंत्री को आदर्श व्यक्ति के रूप में देखता है परंतु यदि कोई प्रधानमंत्री झूठी लोकप्रियता हासिल करने या महज अपने विरोधी नेताओं या दलों को बदनाम करने लिए मसखरापन व अज्ञानता परोसकर जनता की तालियां बजवाने की कोशिश करे तो यह देश के युवाओं व छात्रों के भविष्य के लिए तो हरगिज अच्छा नहीं है। शायद इसीलिए हमारे बुजर्गों द्वारा कहा गया है कि-पहले तोलो फिर बोलो।

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