संपादकीय

सेना को सेना ही रहने दो, सियासी चुनाव चिन्ह न बनाओ

-तौसीफ कुरैशी
सियासत भी क्या-क्या करने पर मजबूर कर देती है जिसका अंदाजा भी नही लगाया जा सकता है पिछले एक दशक से हमारे देश में एक ऐसी सियासत ने जन्म लिया है जिसकी शुरूआत गुजरात के गोधरा से हुई जहां घिनौनी सियासत का वो रूप देखने को मिला कि सोचने भर से ही रूह कांप जाए, महिलाओं की आबरू को तार-तार किया गया अजन्मे बच्चों को माओं के पेट चीरकर निकाल लिया गया मासूम बच्चों को आग के हवाले कर दिया गया पूरी की पूरी बस्तियों को आग के हवाले कर दिया गया। दंगाइयों को खुली छूट दी गई कोई भी कानून काम नही कर रहा था कानून के रखवाले हाथ पर हाथ धरे बैठे तमाशा देख रहे थे वो न कुछ सुनना चाह रहे थे और न देखना बस अपने सियासी आका को ख़ुश करने में लगे थे। कांग्रेस सांसद अहसान जाफरी को भी अपनी जान देनी पड़ी मरने से पूर्व उन्होने जान बचाने के सभी जतन किए लेकिन कुछ काम नही आया और अंतत उन्हें भी मौत के आगोश में सोना ही पड़ा अब सवाल ये उठता है कि लोगों के जहनों में इतना जहर कहां से और क्यों भरा था जिस मुल्क में सदियों से हिन्दू-मुस्लिम-सिख व इसाई प्यार मोहब्बत से रहते आ रहे थे आखिर ऐसा क्या हुआ जो सदियों से बनी प्यार की माला मिनटों में बिखर गई और एक दूसरे के ख़ून की होली खेलने पर उतारू हो गए ये सब यूं ही नही हो गया यह सब एक सोची समझी साजिश के चलते अंजाम दिया गया उनका मक़सद देश में ऐसे युग की शुरूआत करनी थी जिसमें किसी और की जगह नही है और एक ऐसी दीवार खड़ी करनी थी जो एक दूसरे की सूरत न देख सके लेकिन यह सोच इतना सब कुछ करने के बाद भी कामयाब नही हुई कुछ ही लोग है जो इस आईडियोलोजी को स्वीकार करते है ज्यादातर बहुसंख्यक सबको साथ लेकर चलने में विश्वास रखते है परन्तु वो ऐसी आईडियोलोजी है जो सत्ता में बने रहने के लिए इस तरह के षड्यंत्र रचती रहती है जिससे माहौल साम्प्रदायिक बना रहे और हमारी सत्ता चलती रहे इस काम में उनका साथ गोदी मीडिया दे रही है। नफरत फैलाने वाली डिबेटों का हर रोज संचालन ऐसे हो रहा जैसे किसी अपने जन्मदाता को ख़ुश किया जा रहा हो। गोधराकाण्ड के लम्बे अर्से के बाद 2014 में नागपुरिया आईडियोलोजी को सत्ता तो मिली लेकिन उनको कई मखौटे बनाने पड़े सबका साथ, सबका का विकास जैसे नारे का सहारा लेना पड़ा भले ही काम उस नारे के खिलाफ किया हो लेकिन उस सोच को यह अहसास हो गया कि इस मुल्क में नागपुरिया आईडियोलोजी को पूरी तरह से लागू नही किया जा सकता है लाशों पर सियासत करने की आदी हो चुकी इस सोच पर सवाल खड़े हो रहे है क्या पुलवामा में हुआ आतंकी हमला है या ये भी एक षड्यंत्र का हिस्सा है हमारे सैनिकों पर हमला है या कुछ ओर है? सियासत कुछ भी करने के लिए मजबूर कर देती है लानत है ऐसी सियासत पर जो ये भी भूल जाए कि हमारा देश है तो हम है और हम है तो सियासत भी तभी है? क्योंकि सरकार ने इसके बाद जो माहौल गोदी मीडिया के माध्यम से बनाने की कोशिश की उसका अब धीरे-धीरे ख़ुलासा होता जा रहा है हिन्दुस्तान के द्वारा पाकिस्तान के बालाकोट में हमारी सेना ने सफलतापूर्वक एयर स्ट्राइक की गई नापाक को बताया गया कि हम क्या कर सकते है। इसमें किसी को कोई शक नही है और हो भी नही सकता लेकिन जिस तरीक़े से उसका प्रस्तुतीकरण अपने सियासी लाभ को किया जा रहा है उस पर आपत्ति है और होनी भी चाहिए। उसमें कितने आतंकी मरे इसकी कोई जानकारी सेना द्वारा नही दी गई पहली बात तो इसकी जानकारी होती ही नही लेकिन गोदी मीडिया ने खुद ही या गोदी मीडिया के संचालनकर्ता के कहने पर तीन सौ से लेकर साढ़े तीन सौ आतंकी मारे जाने की सूचना फैला दी जबकि यह बात करनी ही नहीं थी लेकिन सत्तारूढ़ दल के भोंकूँ बनने की दौड़ या होड़ ने बेवजह हमारा चेहरा धुँधला कर दिया इससे बेहतर ये होता कि हम कहते कि जैश के ठिकानों को उसके शरणदाता पाकिस्तान की सीमा के अस्सी किमी अंदर जाकर ठोका है मसूद अजहर जैसे आतंकी तुम कही भी छिप जाओ अब पाताल भी तुम्हें नहीं बचा पाएगी तुम्हें नहीं छोड़ा जाएगा तुम हमारी क्षमता की जद में हो। अंतरराष्ट्रीय मीडिया को हमारी हंसी उड़ाने का मौक़ा नहीं मिलता अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने गोदी मीडिया के उन दावों की यह कहकर हवा निकाल दी कि वहां पर ऐसा कुछ नही हुआ सवाल यह नही है वहां कोई मरा या नही सवाल यह है कि हमने उसके घर में जाकर उसे ललकारा है ये कोई कम बात नहीं है लेकिन गोदी मीडिया के एक झूट फैलाने से इसका हिन्दुस्तान को कूटनीतिक तौर पर कितना नुक़सान हुआ यह भी नही बताया जा सकता ये तो उस पर विचार करने से ही समझ में आ जाता है सरकार को जब कूटनीतिक तरीक़ों का इस्तेमाल कर हिन्दुस्तान के लिए काम करना चाहिए था लेकिन हम अपनी सियासी रैलियों को सम्बोधित करने में लगे थे अपने बूथ मजबूत करने में लगे थे लेकिन गोदी मीडिया ऐसी खबरों को खबर बनाने के लिए भी तैयार नही है क्या ये सब देशहित में कहा जा सकता है असल में कुछ ही दिनों में हमारे यहां लोकसभा चुनाव होने वाले है सरकार के पास कुछ बताने को नही है क्योंकि सारा समय तो इस सरकार ने हिन्दु मुसलमान करने में ही पूरा कर दिया अब जब हिसाब-किताब का समय आया तो सेना का इस्तेमाल कर जनता का ध्यान बाँटना चाह रहे है। इन सब गंभीर विषयों पर बात करने के लिए देश के जाने-माने वरिष्ठ पत्रकारों ने सूर्य टीवी चैनल पर चर्चा की जिनको पुण्य प्रसून वाजपेयी के द्वारा आमंत्रित किया उनमें ओम थानवी, दी वायर के संपादक, व एक अन्य पत्रकार सहित वाजपेयी ने काफी गंभीर चर्चा की इनका भी यही मानना था कि मीडिया के द्वारा सवाल पूछना छोड़ देना देशहित में नहीं है। देश के जाने माने पत्रकारों ने सूर्य टीवी चैनल पर लाइव चर्चा की इस चर्चा को सुनकर लगा कि देश कितनी गंभीर स्थिति में आ गया है उन्होने हर विषय खुलकर बात की इस पूरी चर्चा में सबसे ज्यादा चर्चा अगर किसी विषय पर की गई तो वह पत्रकारिता के गिरते स्तर पर की गई। इस विषय पर उनको ख़ून के आँसू बहाते हुए देखा गया जिस तरीक़े से आज पत्रकार अपना जमीर बेच रहा है जिसकी वजह से इस देश की लोकतंत्र की बुनियाद हिल रही है वैसे तो हर संस्थान की स्वतंत्रता को खतम किया जा रहा है क्या ये उचित है? लेकिन सियासत जो ठहरी।बालाकोट में तीन सौ या उससे अधिक आतंकवादियों को मार गिराया लेकिन ये गिनती कहां से आई कोई इसको अपने नाम से देने या कहने को कोई तैयार नही है न सरकार न सेना आस्ट्रेलिया की एक न्यूज एजेंसी व जानी मानी न्यूज एजेंसी रॉयटर ने कहा है कि भारत की मीडिया का ये दावा गलत है कि वहां ऐसा कुछ हुआ है लेकिन भारत में इस सच से पर्दा उठाने को मीडिया तैयार नही है आज ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि अगर मोदी को चोर कहा जाएगा तो उसे भारत के खिलाफ बना दिया जाएगा, क्या ये लोकतंत्र के लिए ठीक है हमारे देश के लोगों को इस ख़तरनाक खेल को समझना होगा और इस ख़तरनाक खेल के खिलाफ सड़कों पर आना होगा नही तो हम देश के साथ वफादारी नही कर रहे है मीडिया संस्थान के लोग जहर फैलाने का काम कर रहे है जिस तरीक़े से वो जनता और नौजवानों को उत्तेजित करते है मानो वो टीवी पर नहीं सरहद पर हो क्या यही राष्ट्रवाद है? इस पूरी चर्चा में नोटबंदी पर भी बात की गई आतंकवाद को भी नोटबंदी से जोड़ा गया था कि नोटबंदी से आतंकवाद की कमर टूट जाएगी कालेधन का ख़ात्मा हो जाएगा जबकि ऐसा कुछ नही हुआ मोदी ने नोटबंदी के फायदे गिनाए थे कि अगर यह सब नही हुआ तो मुझे जिस चैहराहे पर चाहे जो सजा दे देना पचास दिन माँगे थे लेकिन नोटबंदी से कोई लाभ नही हुआ सिवाए नुकसान के अब उनसे कोई सवाल नही पूछा जा रहा कि क्या हुआ पचास दिन क्या सालों हो गये परन्तु कुछ नही हुआ। राफेल में हुई तथाकथित बंदरबाँट की बात को नहीं उठाया जा रहा किसान की माली हालत पर कोई चर्चा नहीं बेरोजगारी पर कोई चर्चा नहीं, जीएसटी पर कोई चर्चा नहीं, स्मार्ट सिटी पर कोई चर्चा नहीं इसी चर्चा में ये भी निकल कर आया कि गोधराकाण्ड की तरह पुलवामा में हुए आतंकी हमले में शहीद हुए हमारे सैनिकों की शहादत के ख़ून पर भी सियासत हो रही है जो किसी लिहाज से सही नहीं कहा जा सकता परन्तु फिर भी ये सब हो रहा है जो नहीं होना चाहिए। इससे ये भी साबित हो रहा है कि अपनी नाकामियों को छुपाने का जरिया मिल गया है पुलवामा हमला। ये वक़्त और शहादत की मांग है कि हमारी सेना को सियासी चुनाव चिन्ह न बनाओ हमारी सेना को सेना ही रहने दो।

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