धर्म

पैगंबर मुहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन एवं उनके साथियों की शहादत की याद में मनाया जाता है मुहर्रम

मुस्लिम धर्म में मुहर्रम को खास महीने के रूप में माना जाता है। मुस्लिम धर्म में इस्लामिक कैलेंडर के मुताबिक मुहर्रम हिजरी संवत् का पहला महीना माना जाता है। पैगंबर मुहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन एवं उनके लोगों की शहादत इस महीने में हुई थी। इसी महीने में पैगंबर हजरत मुहम्मद साहब, मुस्तफा सल्लाहों अलैह व आलही वसल्लम ने मक्का से मदीना में हिजरत की थी यानी कि आप सल्ल. मक्का से मदीना मुनव्वरा तशरीफ लाए।
मुहर्रम में लोग रोजा रखते हैं। इस दिन पैगंबर मुहम्मद सल्ल. के नाती की शहादत तथा कर्बला के शहीदों के बलिदानों को याद किया जाता है। कर्बला के शहीदों ने इस्लाम धर्म को नया जीवन दिया था। कई लोग इस महीने में पहले 10 दिनों के रोजे रखते हैं। जो लोग 10 दिनों के रोजे नहीं रख पाते, वे 9 और 10 तारीख के रोजे यानि दो दिन रोज़ा रखते हैं।
कर्बला जहां सन् 60 हिजरी को यजीद इस्लाम धर्म का खलीफा बन बैठा। वह अपने वर्चस्व को पूरे अरब में फैलाना चाहता था जिसके लिए उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती थी पैगम्बर मुहम्मद साहब के खानदान के इकलौते चिराग इमाम हुसैन, जो किसी भी हालत में यजीद के सामने झुकने को तैयार नहीं थे। इस वजह से सन् 61 हिजरी से यजीद के अत्याचार बढ़ने लगे। ऐसे में वहां के बादशाह इमाम हुसैन अपने परिवार और साथियों के साथ मदीना से इराक के शहर कुफा जाने लगे लेकिन रास्ते में यजीद की फौज ने कर्बला के रेगिस्तान पर इमाम हुसैन के काफिले को रोक दिया।
वह 2 मुहर्रम का दिन था, जब हुसैन का काफिला कर्बला के तपते रेगिस्तान पर रुका। वहां पानी का एकमात्र स्रोत फरात नदी थी, जिस पर यजीद की फौज ने 6 मुहर्रम से हुसैन के काफिले पर पानी के लिए रोक लगा दी थी। बावजूद इसके, इमाम हुसैन नहीं झुके। यजीद के प्रतिनिधियों की इमाम हुसैन को झुकाने की हर कोशिश नाकाम होती रही और आखिर में युद्ध का ऐलान हो गया।
इतिहास कहता है कि यजीद की 80,000 की फौज के सामने हुसैन के 72 बहादुरों ने जिस तरह जंग की, उसकी मिसाल खुद दुश्मन फौज के सिपाही एक-दूसरे को देने लगे। लेकिन हुसैन कहां जंग जीतने आए थे, वे तो अपने आपको अल्लाह की राह में कुर्बान करने आए थे। 10वें मुहर्रम के दिन तक हुसैन अपने भाइयों और अपने साथियों के शवों को दफनाते रहे और आखिर में खुद अकेले युद्ध किया फिर भी दुश्मन उन्हें मार नहीं सका।
आखिर में अस्र की नमाज के वक्त जब इमाम हुसैन खुदा का सजदा कर रहे थे, तब एक यजीदी को लगा कि शायद यही सही मौका है हुसैन को मारने का। फिर, उसने धोखे से हुसैन को शहीद कर दिया। लेकिन इमाम हुसैन तो मरकर भी जिंदा रहे और हमेशा के लिए अमर हो गए, पर यजीद तो जीतकर भी हार गया। उसके बाद अरब में क्रांति आई, हर रूह कांप उठी और हर आंखों से आंसू निकल आए और इस्लाम धर्म की जीत हुई।

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