संपादकीय

बालिकाओं की सुरक्षा के लिए परिवार और समाज को आगे आना होगा

राष्ट्रीय बालिका दिवस (24 जनवरी)

-डॉ. प्रभात कुमार सिंघल, कोटा
लेखक एवं पत्रकार

एक विदूषी महिला को कहते सुना आखिर हमारा भी वजूद है, हम खाली प्याले की तरह नहीं जो चाय पी और खत्म शो। उनके इन शब्दों में विकाशशील कहे जाने वाले समाज में बालिकाओं और महिलाओं की स्थिति पर खासा व्यंग छुपा हुआ था। कहने और देखने में तो बालिकाए चाहे खेल हो या राजनीति, घर हो या उद्योग, कठिन से कठिन नोकरियों या सेवा क्षेत्र जीवन के हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं। एशियन खेलों के गोल्ड मैडल जीतना हो या देश की राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री के पद पर आसीन होकर देश सेवा करने का काम हो। बालिकाओं की प्राचीन समय से समाज में महत्वपूर्ण भूमिका रही है। मैत्री, कामायनी एवं गार्गी जैसी महिलाएं शास्त्रार्थ में भाग लेती थी लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा, पार्वती, सीता के रूप में पूजन और कई अवसरों पर छोटी कन्याओं को पूजते समय हम भूल जाते हैं कि बालिकाएं नहीं होंगी तो कन्या पूजन कैसे करेंगे।
देश में हर वर्ष 24 जनवरी को राष्ट्रीय बालिका दिवस मनाया जाता है। राष्ट्रीय बालिका दिवस मनाने की शुरुआत 2009 से की गई। सरकार ने इसके लिए 24 जनवरी का दिन चुना क्योंकि यही वह दिन था जब 1966 में इंदिरा गांधी ने भारत की प्रथम महिला प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ ली थी। इस अवसर पर सरकार की और से कई कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। समाज में बालिकाओं को उनके अधिकारों के प्रति जागरुक बनाने के लिए अनेक आयोजन होते हैं। जागरूकता कार्यक्रमों के बावजूद भी बालिकाएं और महिलाएं आज भी सामाजिक कुरीतियों का शिकार हैं, लिंग भेद आम हैं, कन्या भ्रूण हत्या कम नहीं हो रही, जन्म लेते ही सुनसान जगह पर छोड़ देते है मरने के लिए, अबोध बालिकाओं से दुष्कर्म के मामले रोज अखबारों में पढ़ने को मिलते ही हैं, बालिकाओं के अपहरण, बलात्कार और हत्या जैसे माहौल में कहाँ सुरक्षित हैं बालिकाओं का भविष्य। और तो और अब घरों तक में अपनों के बीच सुरक्षित नहीं हैं बंलिकाएँ। कोख में बीजारोपण से ही मानव हिंसा की शिकार होती बालिकाओं के प्रतिकूल वातावरण में भी लड़कों से हर मुकाबले में आगे निकलती बंलिकाएँ धन्य हैं।
समाज मे व्याप्त कुरीतियां बालिकाओं को आगे बढ़ने में बाधाएं उत्पन्न करती हैं। पिछड़े वर्ग की बात तो छोड़ों, पढ़े-लिखे लोग और जागरूक समाज भी इस समस्या से बचे नहीं हैं। आज हजारों लड़कियों को जन्म लेने से पहले ही कोख में मार दिया जाता है या जन्म लेते ही लावारिस छोड़ दिया जाता है। सरकार ने कन्या भ्रूण जांच के नियम कठोर बनाये हैं और इसके प्रति निरन्तर जागरूकता अभियान चलाया जा रहा हैं परंतु लोग हैं कि कानून के विरुद्ध भी अपनी हरकतों से बाज नहीं आते हैं। इन मामलों में जांच के दौरान अवैधानिक परीक्षण के मामले पाये जाते हैं और ऐसे केंद्र सील कर वाद न्यायालय में प्रस्तुत किये जाते हैं।
कन्या भ्रूण हत्या एक गम्भीर मामला है। कन्या भ्रूण हत्या की वजह से हमारे देश में लड़कियों के अनुपात में काफी कमी आयी है। पूरे देश में लिंगानुपात 940ः1000 है। एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 6 से 14 साल तक की ज्यादातर लड़कियों को हर दिन औसतन 8 घंटे से भी ज्यादा समय केवल अपने घर के छोटे बच्चों को संभालने में बिताना पड़ता है। सरकारी तथ्य बताते हैं कि 6 से 10 साल की जहां 25 प्रतिशत लड़कियों को व 10 से 13 साल की 50 प्रतिशत से भी ज्यादा लड़कियों को स्कूल छोड़ना पड़ता है। एक सर्वेक्षण में 42 प्रतिशत लड़कियों ने यह बताया कि वे स्कूल इसलिए छोड़ देती हैं, क्योंकि उनके माता-पिता उन्हें घर संभालने और अपने छोटे भाई-बहनों की देखभाल करने को कहते हैं। समाज में सभी वर्गों के लोग बेटा होने की इच्छा रखते हैं और नहीं चाहते कि उन्हें बेटी हो। अनेक परिवारों में आज भी भेदभाव बरतते हुए बालिकाओं को बेटों की तरह अच्छा खाना और अच्छी शिक्षा नहीं दी जाती है। भारत में 20 से 24 साल की शादीशुदा महिलाओं में से 44.5 प्रतिशत ऐसी होती हैं, जिनकी शादियां 18 साल के पहले हुईं हैं और 22 प्रतिश ऐसी होती हैं जो 18 साल के पहले मां बनी हैं। इन कम उम्र की लड़कियों से होने वाले बच्चों में कुपोषण सबसे अधिक पाया जाता है।।
लड़कियों द्वारा अनेक क्षेत्रों में सफलता की बुलंदियां छूने के बावजूद भारत में जन्म लेने वाली अधिकतर लड़कियों के लिए यह वास्तविकता है कि वे बावजूद जागरूकता अभियानों के शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे बुनियादी अधिकारों और बाल विवाह से सुरक्षा के अधिकार से वंचित हैं। परिणाम स्वरूप वे आर्थिक रूप से सशक्त नहीं हैं। प्रताड़ना व हिंसा की शिकार हैं। समाज में लड़कियों की इतनी अवहेलना, इतना तिरस्कार चिंताजनक और अमानवीय है। सरकार ने बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ कार्यक्रम की पहल की है। इस कार्यक्रम को एक राष्ट्रव्यापी जन अभियान बनाना होगा। भारत में लगातार घटते जा रहे इस बाल लिंगानुपात के कारण को गंभीरता से देखने और समझने की जरुरत है। लिंगानुपात का कम होना एक मानव निर्मित समस्या है, जो कमोबेश देश के सभी हिस्सों, जातियों, वर्गों और समुदायों में व्याप्त है। भारतीय समाज में व्याप्त लड़कियों के प्रति नजरिया, पितृसत्तात्मक सोच, सामाजिक-आर्थिक दबाव, असुरक्षा, आधुनिक तकनीक का गलत इस्तेमाल इस समस्या के प्रमुख कारण हैं। समाज में आज भी बेटियों को बोझ समझा जाता है। आज भी बेटी पैदा होते ही उसके लालन-पालन से ज्यादा उसकी शादी की चिन्ता होने लगती है। महंगी होती शादियों के कारण बेटी का हर बाप हर समय इस बात को लेकर फिक्रमन्द नजर आता है कि उसकी बेटी की शादी की व्यवस्था कैसे होगी। समाज में व्याप्त इसी सोच के चलते कन्या भ्रूण हत्या पर रोक नहीं लग पायी है। कोख में कन्याओं को मार देने के कारण समाज में आज लड़कियों की काफी कमी हो गयी है। सर्वे बताते हैं भारत में हर साल तीन से सात लाख कन्या भ्रूण नष्ट कर दिये जाते हैं।
हमारे देश की बेटियां अंतरिक्ष में जाकर इतिहास रच रही हैं, सेना में भी शौर्य दिखा रही हैं, खेलों में पदक ले रही हैं, किसी भी प्रतियोगी परीक्षा में उनका वर्चस्व जाहिर हैं, आईएस और आईपीएस जैसी परीक्षाएं में नाम कमा रही हैं, न्याय की कुर्सी पर बैठ कर न्याय कर रही हैं, पत्रकार बन कर जोखिम उठा रही हैं और हर क्षेत्र में पुरूषों के कंधे से कंधा मिलाकर महिलाएं देश के विकास में अपनी बराबर की भागीदारी निभा रही हैं। ऐसे में उनके साथ समाज में हो रहा भेदभाव किसी भी दृष्टि से उचित नहीं माना जा सकता है। आज जरूरत है बालिका एवं महिला अधिकारों को गाँव-गाँव, झोपड़ियों तक पहुचाएं, उनके माता-पिता को जागरूक बनाएं, बालिकाओं को समुचित प्रोत्साहन मिले, उनके प्रति लोगों एवं समाज विचारधारा में बदलाव आये, बालिकाओं के लिए सुरक्षा का माहौल बने तभी वे सही अर्थो में आगे बढ़ पायेंगी और देश विकास कर पायेगा। ऐसा होने पर ही सही मायनों में हमारा राष्ट्रीय बालिका दिवस मनाना सार्थक होगा। इसके लिये सरकारी प्रयास ही काफी नहीं हैं वरण स्वयं माता-पिता और समाज को ही आगे आकर बालिकाओं और महिलाओं का महत्व समझना होगा।

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