संपादकीय

हाड़ौती की पुराकला को समर्पित एक अभिनव प्रयास

पुस्तक समीक्षा

पुस्तक : राजस्थान – हाड़ौती पुरातत्त्व – एक अध्ययन
वर्ष : 2022 ई0, लेखक – डॉ. प्रभात कुमार सिंघल,
पृष्ठ : 158, मूल्य: 198 रू. (एक सौ अठानवे रू. मात्र)
प्रकाशक : वी.एस.आर.डी. अकादमिक प्रकाशन, कानपुर (उ.प्र.)
समीक्षक : ललित शर्मा, इतिहासकार
झालावाड़ (राज0)

राजस्थान विरासतों की ऐसी अनुपम भूमि है जहाँ विरासतें मूक और जड़ नहीं है बल्कि वे वाचाल और जीवन्त है। वे केवल इतिहास का आख्यान नहीं करती बल्कि वे अपने आप में गौरव की आख्याता है। यहाँ के नगर, दुर्ग, मन्दिर, प्रासाद, मूर्तियाँ, स्थापत्य तथा लोक के आलोक की परम्पराएँ अपने आप में अद्वितीय है, जिनका अपना सुदीर्घ इतिहास है। यहाँ यह तथ्य उल्लेखनीय है कि राजस्थान के विभिन्न जिलो में अवस्थित इन विरासतों का अध्ययन हो रहा है तथा बीते समय में विद्वानों ने अपना जीवन लगाकर यह अध्ययन किया है लेकिन अभी भी इस महान विरासत के अनेक अध्याय उजाकर होना शेष है।
इसी श्रृंखला में आज के राजस्थान में एक महत्त्वपूर्ण नाम डॉ. श्री प्रभात कुमार सिंघल का है जिन्होंने अपने सीमित संसाधनों के बीच हाड़ौती अंचल की महत्त्वपूर्ण पुराकला निधि का अध्ययन करने और उसके अचिह्ने पक्षों को उजागर करने में अपना जीवन लगाया है। डॉ. प्रभात कुमार सिंघल राजस्थान सरकार के जनसम्पर्क विभाग में संयुक्त निदेशक रहे है। उन्होंने इतिहास में पीएच.डी. प्राप्त की। अभी तक उनकी 3 दर्जन पुस्तकें पर्यटन, संस्कृति पर प्रकाशित हुई है। भारत के अनेक समाचार पत्रों में उनके विद्वतापूर्ण आलेख प्रकाशित हुए है। उन्हें समय-समय पर ऐसे प्रकाशन और उल्लेखनीय कार्यो के लिए विभिन्न सम्मानों से भी समलंकृत किया गया है।
हाल ही में उनकी सद्यः प्रकाशित सचित्र कृति राजस्थान-हाड़ौती पुरातत्त्व-एक अध्ययन प्रकाशित हुई है। हाड़ौती मूलतः राजस्थान के दक्षिणी-पश्चिम भाग का एक ऐसा संभाग है जिसमें कोटा, बूंदी, बारां और झालावाड़ जिले आते हैं। हाड़ा राजपूतों के प्राधान्य और शासन के लिए इस भू-भाग को हाड़ौती कहा गया। यह भू-भाग अपने में प्रागैतिहास से लेकर गुप्त, परमार, औलिंकर व प्रतिहार युग तक की कला संस्कृति को छिपाए हुए है। यहाँ यह भी तथ्य उल्लेखनीय होगा कि हाड़ौती के राज्य इतिहास, चित्रांकन परम्परा और लोक संस्कृति, बोली पर तो अनेक विद्वानों ने काफी कार्य किया परन्तु इस भाग के कला, पुरातत्त्व, शिल्प व मन्दिर स्थापत्य पर कार्य नगण्य रहा है, परन्तु इस अचिह्ने पक्ष पर मेरी दृष्टि में डॉ. सिंघल ने यह सद्कार्य पहली बार बड़ी खोजबीन और शोध के साथ किया है। शोधकर्त्ता और पर्यटक इस कृति को आधार बनाकर हाड़ौती के कला शिल्प की वृहद जानकारी आसानी से प्राप्त कर सकते है।
कोटा, बूंदी, बारां, झालावाड़ के पुरातत्त्व स्थल दर्शनीय भी है और पर्यटन के बेहद नयनाभिराम केन्द्र भी। हाड़ौती के प्राकृतिक भूगोल और हरितिमा के बीच व शिखर पर बने इन बेमिसाल स्थलों का दर्शन मानव की सहज मात्रा का क्रमिक विकास दर्शाता है। क्षेत्र के दुर्ग, महल, प्रासाद, मन्दिर, बाग-बगीचे, सरोवर, नदियाँ, प्राकृतिक स्थल, शैलचित्र सभी मनोहारी है। क्षेत्र के संग्रहालयों में रखे शिल्पखण्ड, शिलालेख, चित्र, मूर्तियाँ इस भू-भाग की उन्नत कला की अनुपम थाती है।
ये बानगी है हाड़ौती से जुड़ी कुछ महत्त्वपूर्ण कला विरासतों की जिन पर डॉ. प्रभात कुमार सिंघल ने घूम-घूम कर उन्हें देखा, परखा तथा प्राणप्रण से जीया है। उन्होंने इस पुस्तक को केवल लिखा ही नहीं वरन् उन्होंने इसमें इतिहास ओर कला पुरातत्त्व संस्कृति की धारा को समवेत रूप में प्रवाहमान भी किया है।
17 अध्यायों में विभाजित इस कृति में कोटा के राजकीय संग्रहालय की विकास यात्रा का सिंहावलोकन प्रस्तुत कर डॉ. सिंघल ने रेखांकित किया कि मूर्तिकला की दृष्टि से यह संग्रहालय इतना सम्पन्न है कि इसका स्थान भारत प्रसिद्ध मथुरा संग्रहालय के बाद आता है। 1945-46 ई. से कोटा में संग्रहालय का आरम्भ हुआ। प्रख्यात विद्वान ए.एस. अल्तेकर, एम. दीक्षित तथा इतिहासकार मथुरालाल शर्मा ने इसे अपने अथक परिश्रम से संजोया। इस संग्रहालय में अलभ्य मूर्तियाँ, शिलालेख, सिक्के और चित्रों का सुन्दर संग्रह है। संग्रहालय में प्राचीन लेख बड़वा के यूप स्तम्भ है जो भारत की प्राचीन ब्राह्मी लिपि में विक्रम 195 (ई0 238) के है। संग्रहालय में कुल 750 के लगभग दुर्लभ देव मूर्तियाँ शोध की दृष्टि से नैत्ररंजक हैं। इनमें गुप्तकालीन मूर्ति ‘झल्लरीवादक’ बड़ी प्रभावोत्पादक है। इस मूूर्ति का शिल्प अद्भुत है। निरन्तर 18वीं सदी तक की देव, देवी, दिक्पाल, ग्रह, अवतारवाद की मूर्तियों का यहाँ अच्छा संग्रह है। संग्रहालय में आहत से लेकर रियासत कालीन सिक्कों का सुन्दर संग्रह है। हस्तलिखित ग्रन्थों पर शोध करने वाले विद्वानों के हेतु यह संग्रहालय अत्यन्त उपयोगी है। इन ग्रन्थों में राज्यकालीन अनेक विद्वानों द्वारा लिखित धार्मिक सचित्र ग्रन्थ है। इन सभी का वर्णन विद्वान लेखन ने विस्तार से किया है। वर्तमान कोटा का यह संग्रहालय राज्यकालीन बृजविलास भवन में है जो पर्यटन की दृष्टि से भी सुन्दर है।
इसी संग्रहालय की विभिन्न दीर्घाओं में प्रदर्शित कला सामग्री का वर्णन विवेच्य कृति में डॉ. सिंघल ने विस्तार से किया है। प्राग-पुरातत्त्व दीर्घा में हाड़ौती क्षेत्र में लाखों वर्षो पूर्व विचरण कर रहे आदिमानव के प्रयोग में लाये गये औजारों का प्रदर्शन किया गया है। लेखक ने इन औजारों और तत्कालीन मानव के जनजीवन में प्रयोग किये गये आभूषणों का भी सुबोध रूप से परिचय देकर बहुत उत्तम कार्य किया है। ये सभी सामग्री कोटा एवं बूंदी जिले से प्राप्त विभिन्न स्थलों की है।
उक्त संग्रहालय में शैव मूर्तिकला दीर्घा पर लेखक ने विस्तार से विमर्श किया है। कोटा क्षेत्र में पूर्व मध्यकाल से ही शैव मन्दिरों और मूर्तियों के निर्माण की परम्परा रही है। लेखक ने विवेच्य कोटा संग्रहालय में प्रदर्शित शैव धर्म की प्राप्त सुन्दर मूर्तियाँ जो विभिन्न भाव भगिमांओं, अलंकरणों से युक्त है का जीवन्त वर्णन किया है। शिव की मुद्राओं, सपत्निक, शिव परिवार के गौरी, गणेश, रूद्र सहित दिक्पाल, नवग्रह, सपत्निक गणेश, शैवाचार्य आदि का परिचयात्मक विवरण दिया है।
इसी क्रम में वैष्णव मूर्तिकला दीर्घा का भी जीवन्त वर्णन रेखांकित किया गया है। लेखक ने विवेच्य धर्म पर प्रस्तुत अध्याय में खोजी दृष्टि डाली है। इस दीर्घा में बाड़ोली से अवाप्त शेषशायी विष्णु की मूर्ति अत्यन्त सुन्दर तथा नयनाभिराम है। इस मूर्ति के अलंकरण व मुद्रा शास्त्रोक्त विधि सम्मत है। इसे न्यूयार्क में प्रदर्शित किया जा चुका है। वैष्णव मूर्तियों में लेखक ने विष्णु के विभिन्न स्वरूपों की भी चर्चा की है। संग्रहालय में राज्यकालीन अस्त्र-शस्त्र और परिधान की दीर्घा पर भी कृति में सविस्तार से सचित्र परिचय दिया गया है। तत्कालीन राजसी जीवन के आभूषण, वस्त्र विधान, दैनिक जीवनोपयोगी वस्तुओं पर भी लेखक ने विस्तार पूर्वक विवरण लिखा है।
कोटा का चित्रांकन परम्परा में महत्त्वपूर्ण योगदान राष्ट्रीय स्तर का है। यहाँ की कोटा चित्र शैली दीर्घा में बूंदी, कोटा शैली को प्रस्तुत किया गया है। नायिका, शिकार, लीला पर कृति में सारगर्भित विवेचना की गई है। संग्रहालय में क्षेत्र से प्राप्त जैन मूर्ति कला पर सम्यक जानकारी दी गई है।
एक अध्याय में लेखक ने कोटा जिले के पुरातत्त्व स्थलों कंसुवा, जगमन्दिर, केसर खाँ, डोकर खाँ का मकबरा, चन्द्रसेल शिव मठ, गेपरनाथ, आलनिया के प्रागैतिहासिक शैलचित्र, आवां के बद्रीनाथ, पार्श्वनाथ मन्दिर, मानस गांव का शिव मन्दिर, बूढ़ादीत, क्षारबाग की कलात्मक छतरियाँ पर सुन्दर तथा विस्तार से जानकारी दी गई है ताकि पर्यटक, इतिहास के इन स्थलों का इतिवृत्त जान सके। ये स्थल विवेच्य जिले के गौरव है।
कोटा राजपरिवार के राव माधोसिंह संग्रहालय में प्रदर्शित राजसी वस्तुओं का सम्यक परिचय भी प्रस्तुत कृति में समाहित है। इसमें दरबार हाल में प्रदर्शित राजसी जीवन की शाही विविध वस्तुओं का सुन्दर प्रदर्शन है।
एक अन्य अध्याय में राजकीय संग्रहालय बूंदी का विशद वर्णन है। लेखक ने बूंदी क्षेत्र से प्राप्त दुर्लभ देव मूर्तियों का बड़ा जीवन्त और रोचक वर्णन किया है। विवेच्य संग्रहालय में गणेश, विष्णु स्वरूप दामोदर, ऋषिकेश, शिव अन्धकासुर, हरिहर, देवी शक्ति के विभिन्न स्वरूप, मातृका आदि का वर्णन उनके अलंकरणों सहित किया है। संग्र्रहालय की चित्रकला दीर्घा पर विशिष्ट विर्मश लेखक ने किया है। बूंदी शैली की विशेषताओं को बड़े गहन और सुक्ष्म अध्ययन से लिखने में डॉ. सिंघल ने मानो अपने आपको उसमेें रमा दिया है। कृष्णलीला, शिव पार्वती, जलचर, प्रकृति, बारहमासा, राजपुरूषों की भंगिमायें, शिकार, वन सम्पदा जैसे चित्र बूंदी की कला थाती है।
एक अध्याय में बूंदी जिले के पुरातत्व स्थलों, विश्वविश्रुत चित्रशाला, चौरासी खम्भों की छतरी, रानी जी की बावड़ी, कमलेश्वर महादेव मन्दिर, सुख महल, कवांलजी मन्दिर, शैलचित्र निधि, केशवराय पाटन, कुण्ड, तारागढ़, शिकार बुर्ज, जैतसागर, इन्द्रगढ़ की लोकदेवी बीजासन माता का सुन्दर वर्णन है। बूंदी की चित्रशाला विश्व प्रसिद्ध है। यहाँ की बूंदी शैली का पृथक निजस्व संसार प्रसिद्ध है। 84 खम्भों की छतरी राजस्थान के स्थापत्य की अनुपम कृति है। तारागढ़ का किला उतंग शिखर पर बड़ा भव्य बना है। लेखक ने इनकी महत्ता पर विशद प्रकाश डालकर इन्हें पर्यटन एवं पुरातत्त्व से जोड़ने का महनीय लेखन कार्य किया है। बूंदी क्षेत्र के शैलचित्रों का भारतीय शैलचित्र संसार में अपना वैशिष्ठ्य है। क्षेत्र में अनेक प्रासाद ऐसे है जिनकी बुर्जे से प्राकृतिक दृश्य को निहारा जाता है।
अगला अध्याय बारां जिला मुख्यालय के राजकीय पुरातत्त्व संग्रहालय की कला निधियों पर केंद्रित है। इस संग्रहालय की स्थापना वर्ष (2020 ई.) की है। इसमें इस क्षेत्र से प्राप्त 39 दुर्लभ मूर्तियाँ, 42 लघु चित्र, 84 अस्त्र-शस्त्र, 148 लोक सज्जा की कला निधियाँ है जिनका अवलोकन एवं अध्ययन कर विवेच्य क्षेत्र के साथ राजस्थान की परम्परागत कला, संस्कृति, पुरातत्त्व को सहजता से समझा जा सकता है।
बारां जिले के पुरातत्व स्थल पर जानकारी अभी तक अल्पज्ञात सी थी। लेखक ने प्रस्तुत कृति में जिले के पुरास्थल, रामगढ़ किला, भण्डदेवरा, बांसथूनी, खण्डेला, शाहबाद, किला, शेरगढ़ दुर्ग, अटरू के मन्दिर समूह, बिछालस मन्दिर, बड़ोरा, बड़वा आदि पुरातत्त्व में नवीन आयाम स्थापित किये है। जिले के दर्शनीय स्थलों कपिलधारा, सीताबाड़ी, सोरसन पर भी उत्तम जानकारी है।
कृति का एक अध्याय झालावाड़ जिले की पुरासम्पदा, पर्यटन स्थलों की महिमा पर केन्द्रित है। झालावाड़ का संग्रहालय मूर्तिकला, सिक्कों, शिलालेखों, चित्रों का नायाब खजाना है। यहाँ प्रदर्शित सचित्र अवतार चरित्र ग्रन्थ राजस्थान की पोथी चित्रण परम्परा में विशिष्ठ है। संग्रहालय की शिव पार्वती की अर्द्धनारीश्वर मूर्ति एवं नवग्रह चामुण्डा मूर्ति भारत की विशिष्ठ दुर्लभ मूर्तियों में से एक है। आहत मुद्राओं से लेकर 19वीं सदी की मुद्राएँ यहाँ है। 5वीं से 18वीं सदी के शिलालेखों का संग्रह भी देखने योग्य है। संग्रहालय में अनेक दीर्घाएँ है जिनमें विभिन्न वस्तुएँ प्रदर्शित है।
विद्वान लेखक ने झालावाड़ जिले के विभिन्न पुरा स्थलों का नैत्ररंजक परिचय कृति में लिखा है। जलदुर्ग गागरोन, कोलवी बौद्ध गुफा, सूर्य मन्दिर, चन्द्रभागा मन्दिर, दलहनपुर मठ, चाँदखेड़ी आदि पर जीवन रोचक वर्णन कृति में किया है। ये स्थल पर्यटन और भारतीय संस्कृति के सुन्दर स्थल है।
कृति का अन्तिम अध्याय हाड़ौती की संस्कृति पर केन्द्रित है। यहाँ की लोकलुभावन संस्कृति के त्यौहार अद्भुत है। बूंदी की चित्रशैली का सम्यक परिचय विवेचन सहित अध्याय में है। वेशभूषा, आभूषण, क्षेत्र की जनजातियों के जीवन परिवेश, सामाजिक स्थिति पर कृति में गहनता से विमर्श किया गया है। क्षेत्र के बारां जिले में सहरिया आदिवासी क्षेत्र पर लेखक ने विशद जानकारी दी है। इस आदिवासी जनजाति की संस्कृति पर शोध की संभावना का द्वार कृति में खोल दिया गया है जो लेखक की सुक्ष्म दृष्टि को दर्शाता है।
‘‘हाड़ौती पुरातत्त्व एक अध्ययन’’ नामक इस कृति को लिखने में मानो लेखक ने अपना पूरा मन रमा दिया है। कृति के पन्ने-पन्ने में इस बात की झलक मिलती है। कृति में अनेक ऐसे पक्ष है जो पहली बार उभर कर अनावृत हुए है जिस और अभी तक ध्यान ही नहीं गया था। लेखक डॉ. प्रभात कुमार सिंघल ने कृति में एक अर्न्तअनुशासिक दृष्टि से क्षेत्र की विरासतों का ऐसा सुन्दर अध्ययन किया है जिसमें केवल इतिहास नहीं है बल्कि उस इतिहास के अन्तर में सिमटी हुई पुरा लोक संस्कृति की भी जानकारी है जो सामान्य जन के जिये जानना बहुत आवश्यक है।
यहाँ यह भी विशेष रूप से उल्लेखनीय होगा कि इतिहास की गंगा और यमुना तो दृश्यमान होती है किन्तु कला संस्कृति की अन्तःसलिला के दर्शन हम नहीं कर पाते। लेखक को मैं हृदय से इसलिए साधुवाद देता हूँ क्योंकि उन्होंने हाड़ौती की पुराकला संस्कृति की इस सांस्कृतिक सरस्वती को हमारी आँखों के समक्ष दृश्यमान किया है। उनका यह आधुनिक भागीरथी प्रयास कभी थमे नहीं, यही हार्दिक शुभकामना हम सभी को करनी चाहिये।

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