संपादकीय

तितलियां (काव्य-धारा)

-सुनील कुमार महला
फ्रीलांस राइटर, कालमिस्ट व युवा साहित्यकार

जीवन तितलियों की तरफ
रंग-बिरंगा और वासंती है
आज़ाद है यह जीवन
तितलियों की तरह
न जाने क्यों समझता नहीं है आदमी ?
पदार्थ और विलासिता में रचा-बसा आदमी
याद रखिए कि
काफ़ी नहीं है सिर्फ और सिर्फ जीना
जीवन की आबोहवा में महक, सुरभि होनी चाहिए
होनी चाहिए थोड़ी गुनगुनी धूप
पदार्थ और विलासिता से परे
जीवन की मीठी-तीखी किरणों का अहसास होना चाहिए
आदमी को
तितलियों का जीवन
जीवन का उजला पक्ष ही तो है
लेकिन आदमी केवल तितलियों की सुंदरता, कोमलता देखता है
तितलियों सा कोलाहल जीवन में महसूस नहीं करता
जीवन की धूप-छांव , अंत तो शुरूआत मात्र है
अक्सर खुशियां
तितलियों की तरह होतीं हैं
आदमी खुशियां ढ़ूढ़ता है तो खुशियां ब्रह्मांड में कहीं खो जाती हैं
लेकिन
मौन रहकर, विनम्रता से ग़र करता है इंतज़ार
तो चलीं आतीं हैं अनगिनत खुशियां
बिखर जाते हैं खुशियों के फूल
अपने भाग्य को नहीं कोसती तितलियां कभी
वो होतीं हैं
क्षण-भंगुर
लेकिन जीवन से संतुष्ट हमेशा
फूलों से रस इकट्ठा करते हुए
वे जीवन को सहजता से जीतीं हैं
घाटियों, बगीचों में फूलों पर मंडरातीं
ईश्वर के अनमोल उपहारों से आनंदित होतीं हैं तितलियां
अपने संक्षिप्त क्षणों को भी पल-पल रोशन करतीं
पहाड़ों की चोटियों से मैदान -रेगिस्तान तक
स्वतंत्र, स्वच्छंद
जीवन के रोमांच को साझा करतीं
जीवन एक मंच है
यहां एक पल आना है, दूसरे पल जाना है
और हम सब हैं
एक दिन की तितलियां…!

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