संपादकीय

चैक अवमानना गैर-जमानती अपराध घोषित हो

-विमल वधावन योगाचार्य, एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट
हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले के सेब उत्पादक ने अपनी फसल बेचने के बदले लगभग 5 लाख रुपये की राशि का चैक सितम्बर, 2011 में खरीददार से प्राप्त किया। इस चैक को बैंक में भुगतान के लिए भेजा तो अवमानना के बाद चैक वापिस आ गया, क्योंकि खरीददार के खाते में पर्याप्त राशि नहीं थी। सेब उत्पादक ने विधिवत चैक अवमानना का नोटिस खरीददार को भेजा। निर्धारित अवधि में भुगतान न मिलने पर उत्पादक ने जिला अदालत के समक्ष नेगोशिएबल इन्स्ट्रूमेंटस कानून की धारा-138 के अन्तर्गत चैक अवमानना का मुकदमा प्रस्तुत कर दिया। ट्रायल अदालत में याचिकाकर्ता सेब उत्पादक तथा खरीददार की गवाहियों के बाद अपने निर्णय में कहा कि उत्पादककर्ता के द्वारा प्रस्तुत खातों से दिखाई देता है कि उसे खरीददार से जितनी राशि वसूल करनी थी उससे अधिक राशि का चैक लिया गया। इसलिए 5 लाख रुपये का यह चैक खरीददार की देनदारी से सम्बन्धित नहीं लगता। इस आधार पर ट्रायल कोर्ट ने खरीददार को आरोपमुक्त घोषित कर दिया। सेब उत्पादक ने इस निर्णय के विरुद्ध हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के समक्ष अपील प्रस्तुत की परन्तु उच्च न्यायालय ने भी खातों के आधार पर पाई गई देनदारी और चैक राशि में अन्तर होने के कारण अपने निर्णय में कहा कि याचिकाकर्ता सेब उत्पादक अपनी लेनदारी को संदेह से ऊपर सिद्ध करने में असफल रहा है। इस प्रकार उच्च न्यायालय ने भी खरीददार को आरोपमुक्त ही रखा। दोनों अदालतों के निर्णयों के विरुद्ध सेब उत्पादक ने सर्वोच्च न्यायालय का द्वार खटखटाया।
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री नागेश्वर राव तथा श्री हेमन्त गुप्ता की पीठ ने नेगोशिएबल इन्स्ट्रूमेंटस कानून की धारा-139 का उल्लेख करते हुए कहा कि चैक प्राप्तकर्ता ने अपनी किसी लेनदारी के बदले ही चैक प्राप्त किया था, इस सिद्धान्त को स्वीकार किया जाना चाहिए जब तक चैक को जारी करने वाला व्यक्ति इसके विरुद्ध यह सिद्ध न कर सके कि चैक किसी देनदारी या लेनदारी से सम्बन्धित नहीं था। सर्वोच्च न्यायालय ने चैक अवमानना के मामलों में यह स्पष्ट किया है कि याचिकाकर्ता को अपने गवाहों के आधार पर केवल यह सिद्ध करना होता है कि चैक जारी कर्ता से उसकी लेनदारी थी। चैक अवमानना के मामलों में कानून यह मानकर चलता है कि चैक किसी देनदारी के बदले ही दिया गया है। यदि कोई चैक बिना देनदारी के जारी किया जाता है तो यह सिद्ध करना चैक के हस्ताक्षरकर्ता की जिम्मेदारी होती है। सर्वोच्च न्यायालय कई बार इस सिद्धान्त को अपने पूर्व निर्णयों में स्पष्ट कर चुका है। परन्तु फिर भी ट्रायल अदालतें चैक मामलों में भी ऐसे गवाहों की आशा करती हैं जैसे कोई व्यक्ति अपनी लेनदारी सिद्ध करने के लिए दिवानी अदालत में विस्तृत प्रमाण प्रस्तुत करता है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि सेबों के खरीददार ने बिना किसी देनदारी या लेन-देन के चैक जारी करना सिद्ध नहीं किया। इसलिए यह मानना पड़ेगा कि सेब उत्पादक द्वारा प्रस्तुत प्रमाणों से यह स्पष्ट हो रहा है कि चैक सेबों की खरीद के बदले में ही जारी किया गया था। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय ने हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय तथा कुल्लू की निचली अदालत के निर्णयों को कानून के विरुद्ध ठहराया और चैक जारी कर्ता पर चैक राशि से दोगुना अर्थात् 10 लाख रुपये का जुर्माना और एक लाख रुपये मुकदमें की लागत के भुगतान का आदेश दिया। तीन माह में यह भुगतान न करने पर चैक जारी कर्ता को 6 महीने की सजा का आदेश दिया गया।
किसी भी अर्थव्यवस्था में बैंकों की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका स्थापित हो चुकी है। विकासवाद के इस युग में आज बैंकों के बिना अर्थव्यवस्था की कल्पना ही नहीं की जा सकती। चैक बैंकिंग लेन-देन का एक मुख्य माध्यम हैं। परन्तु जब किसी व्यक्ति द्वारा जारी किया गया चैक तिरस्कृत होता है तो उससे केवल लेनदार को ही कष्ट नहीं होता अपितु बैंक की सारी प्रक्रियाओं में एक सूक्ष्म सी बाधा उत्पन्न हो जाती है। इस प्रकार की सूक्ष्म बाधाएँ जब सारे देश में बहुत बड़ी संख्या में होने लगती है तो उससे समूची बैंकिंग प्रक्रिया बाधित होती हुई दिखाई देती है। अतः चैकों का निरादर अब एक व्यक्तिगत अपराध ही नहीं अपितु बैंकिंग प्रणाली में व्यापक बाधा करने वाला कार्य बनने लगा है।
सर्वोच्च न्यायालय के एक पूर्व निर्णय में यहाँ तक कहा गया है कि चैक निरादर के कारण केवल प्राप्तकर्ता को ही वित्तीय हानि नहीं होती अपितु इससे पूरी व्यापार पद्धति को झटका लगता है। व्यापारों और उद्योगों में अविश्वास पैदा होता है। इस अविश्वास के फलस्वरूप लोग नगद लेन-देन को अपनाने लगते हैं। उल्लेखनीय है कि नगद लेन-देन में करों की चोरी की सम्भावना भी प्रबल रहती है। इसलिए चैक निरादर की घटनाओं को रोकना अत्यन्त आवश्यक है।
पाकिस्तान में चैक की अवमानना को गैर-जमानती अपराध घोषित किया गया है। इसका सीधा सा अर्थ यह है कि जैसे ही कोई चैक तिरस्कृत होकर बैंक से वापिस आता है तो चैक का धारक चैक जारी करने वाले के विरुद्ध थाने में एफ. आई. आर. दर्ज करा देता है। इसे गैर-जमानती अपराध घोषित किया गया है। जब चैक जारी करने वाला व्यक्ति जमानत के लिए आवेदन करता है तो उसके सामने अदालत सीधी शर्त रखती है कि चैक राशि का भुगतान करो तो जमानत मिलेगी। वैसे चैक राशि का भुगतान करते ही शिकायतकत्र्ता अक्सर अपनी शिकायत को वापिस भी ले सकते हैं।
भारत में चैक वापसी को लेकर लाखों मुकदमें लम्बित पड़े हैं। एक तरफ ये मुकदमें न्याय व्यवस्था पर बोझ हैं तो दूसरी तरफ चैक अवमानना की घटनाएं बढ़ने से अर्थव्यवस्था में भी व्यवधान उत्पन्न होते हैं। चैक से लेन-देन की विश्वसनीयता कम होती है, व्यापार बाधित होते हैं। मुकदमेंबाजी के कारण शिकायतकत्र्ता तथा अभियुक्त दोनों पक्षों के लिए कई वर्षों का तनाव बना रहता है।सर्वोच्च न्यायालय अनेकों बार देश की सभी आपराधिक अदालतों से यह उम्मीद व्यक्त कर चुका है कि चैक निरादर के मुकदमों को शीघ्रता और संक्षिप्त प्रक्रिया के अनुसार निपटाया जाये। भारत की प्रगतिशील अर्थव्यवस्था में एक तरफ सरकारें डिजीटल भुगतान अर्थात् कैशमुक्त लेन-देन को बढ़ावा देने की बात करती हैं तो दूसरी तरफ चैक अवमानना जैसे अपराध अर्थव्यवस्था की प्रगति में बहुत बड़े बाधक बने हुए दिखाई देते हैं। इसलिए केन्द्र सरकार को यथाशीघ्र यह निर्णय लेना होगा कि चैक अवमानना की घटनाओं को रोकने का एक सरल और प्रभावशाली उपाय है कि चैक अवमानना को गैर जमानती अपराध घोषित किया जाये।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *