संपादकीय

न्याय व्यवस्था पर कोरोना का असर

-विमल वधावन योगाचार्य, एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट
कोरोना महामारी के दौरान तकनीकी रूप से अदालतों में भी 25 मार्च, 2020 से पूर्ण लाॅकडाउन लागू कर दिया गया। वैसे सर्वोच्च न्यायालय तथा दिल्ली उच्च न्यायालय में मुकदमों की सुनवाई लगभग एक सप्ताह पूर्व ही बन्द कर दी गई थी। लाॅकडाउन के बावजूद नये मुकदमें इलेक्ट्रानिक रूप से दाखिल किये जा रहे हैं जिससे सारे देश में विचाराधीन लगभग 3 करोड़ मुकदमों की संख्या लाॅकडाउन अवधि के बाद अप्रत्याशित रूप से बढ़ जायेगी। अदालतें बन्द हैं परन्तु अति महत्त्वपूर्ण मुकदमों की सुनवाई वीडियो कान्फ्रेंस के माध्यम से की जा रही है। सर्वोच्च न्यायालय ने तो 23 मार्च को ही वीडियो कान्फ्रेंस से सुनवाई प्रारम्भ करके इस नई प्रथा का इतिहास बना दिया था। वीडियो कान्फ्रेंस में सम्बन्धित पीठ के न्यायाधीश किसी एक न्यायाधीश के घर पर या चेम्बर में एकत्र होते हैं और दूसरी तरफ सम्बन्धित पक्षों के वकील अपने-अपने घरों या कार्यालयों से इसमें भाग लेते हैं। लाॅकडाउन अवधि में जितने भी मुकदमें सुनवाई के लिए निर्धारित थे पहले तो उनमें प्रथम लाॅकडाउन की समाप्ति अर्थात् 14 अप्रैल के बाद शेष अप्रैल या मई की तीथियों के लिए निर्धारित किया जा रहा था। अब वह तरीका भी बन्द कर दिया गया है। अब तो लाॅकडाउन खुलने के बाद जब अदालतें पूर्ववत कार्य प्रणाली में आयेंगी तभी पता लगेगा कि 25 मार्च के बाद वाले मुकदमों में आगे कौन सी तिथि निर्धारित हैं। वैसे दिल्ली उच्च न्यायालय की सम्पूर्ण अदालत यह प्रस्ताव पारित कर चुकी है कि लाॅकडाउन अवधि में मुकदमों की सुनवाई की कमी को पूरा करने के लिए गर्मी की छुट्टियाँ अर्थात् पूरे जून महीने में दिल्ली उच्च न्यायालय तथा उसके अधीनस्थ सभी जिला स्तरीय और अन्य निचली अदालतें भी कार्य करेंगी। अदालत ने अधिवक्ताओं से भी यह आशा व्यक्त की है कि वे जून के महीने में न्याय व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने में पूरा सहयोग करेंगे। आशा है यह व्यवस्था सारे देश के उच्च न्यायालयों द्वारा अपनाई जायेगी, क्योंकि न्याय प्रियता का इससे अच्छा कोई उपाय नहीं हो सकता। जून में अदालतों के खुलने के बावजूद भी यह सम्भावना बनी रहेगी कि मार्च और अप्रैल के लिए निर्धारित मुकदमों की सुनवाई को कम से कम एक साल का पिछड़ापन झेलना ही होगा। जून में अदालतें खुलने के बावजूद अधिकतर समय नये मुकदमों की सुनवाई में ही व्यतीत होगा।
लाॅकडाउन अवधि में वीडियो कान्फ्रेंस के द्वारा अति महत्त्वपूर्ण मुकदमों की सुनवाई वाली अवधारणा भी सामान्य तौर पर समझ से परे है। नया प्रयोग होने के कारण अभी सामान्य अधिवक्ता इस कार्य प्रणाली से भी अवगत नहीं हैं। आमतौर पर अधिवक्ताओं के साथ-साथ पक्षकारों में भी यही विचार व्याप्त है कि वीडियो कान्फ्रेंस से सुनवाई तभी हो सकती है जब किसी सुविख्यात अर्थात् नामी वकील को साथ लिया जाये। कौन से मुकदमें अति महत्त्वपूर्ण हैं जिनके लिए वीडियो कान्फ्रेंस के माध्यम से सुनवाई आयोजित की जाये? इस प्रश्न का उत्तर अदालत के रजिस्ट्रार के पास होता है जो प्रथम स्तर पर सुनवाई करवाने या न करवाने का निर्णय देता है। रजिस्ट्रार के इन्कार के बाद अभी ऐसी भी कोई व्यवस्था नहीं है कि सीधा न्यायाधीशों की पीठ को मुकदमें के महत्त्व का हवाला देकर सुनवाई की प्रार्थना की जाये, जैसा सामान्य दिनों में होता था। इसलिए अति महत्त्वपूर्ण मुकदमा घोषित होने की प्रक्रिया भी केवल प्रशासनिक प्रक्रिया है जबकि वास्तव में यह भी न्यायिक प्रक्रिया होनी चाहिए। कोरोना महामारी तथा लाॅकडाउन जैसी विपत्ति ने न्याय व्यवस्था को काम करने का एक नया तरीका सिखा दिया है। अब विशेष रूप से वरिष्ठ अधिवक्ताओं में यह चर्चा होने लगी है कि यदि यह वीडियो कान्फ्रेंस प्रणाली लाॅकडाउन के बाद भी लागू रहती है तो उन्हें इसमें कोई आपत्ति नहीं है, क्योंकि इस प्रणाली के माध्यम से चेन्नई, बंगलौर या किसी भी दूर स्थान पर बैठे अधिवक्ता सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अपनी बहस कर सकते हैं। उन्हें दिल्ली आने की कोई आवश्यकता नहीं।
कोरोना विपत्ति ने अदालतों में ई-फाइलिंग के रूप में भी एक नई प्रक्रिया को जन्म दे दिया है। इस विषय में तो यह आगे सामान्य दिनों में भी अत्यन्त सुखद होगा कि मुकदमों को सीधा आॅनलाइन अदालतों में प्रस्तुत किया जा सके। इससे प्रशासनिक कार्यों में कमी आयेगी। वैसे दिल्ली उच्च न्यायालय में काफी समय पूर्व मुकदमें के सभी कागजों को स्कैन करके न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करने की प्रक्रिया लागू थी। बहुत से न्यायाधीश अदालत के कम्प्यूटर पर ही मुकदमें के सभी तथ्यों आदि को देखते थे। सुनवाई के लिए उन्हें कागजों की फाइल हाथ में नहीं पकड़नी पड़ती थी। इसी प्रकार कई वकील भी अपनी पूरी फाइल को स्कैन करके अपने लैपटाप या टैब के माध्यम से ही अदालत के सामने बहस करते थे। परन्तु अब तक की व्यवस्था में कागजों की फाइल अदालत में दाखिल जरूर करनी पड़ती थी। यदि आने वाले भविष्य में अदालतों की कार्यवाही को अधिक से अधिक पेपरमुक्त किया जा सका तो यह कोरोना महामारी की देन ही समझा जायेगा।
कोरोना महामारी से लड़ने के लिए लाॅकडाउन एक अच्छी व्यवस्था तो है परन्तु इसे अनिश्चितकाल के लिए नहीं चलाया जा सकता। इसलिए जब भी लाॅकडाउन समाप्त होगा उसके बाद भारत की न्याय व्यवस्था को अपनी प्रक्रिया में ये दो नये आयाम तो अवश्य ही जोड़ लेना चाहिए। प्रथम, पेपरमुक्त ई-फाइलिंग तथा द्वितीय, अदालत की खुली सुनवाई के साथ-साथ जहाँ आवश्यक हो वहाँ वीडियो कान्फ्रेंस की सुविधा को जारी रखना।
जून माह की छुट्टियों को रद्द करने का प्रयास प्रशंसनीय प्रयास है। वैसे देर-सवेर भारत की न्याय व्यवस्था को न्यायालयों की छुट्टियों के गणित में भी महत्त्वपूर्ण परिवर्तन करने ही पड़ेंगे। कब तक भारत के न्यायाधीश आँख मूंदकर अपनी लम्बी छुट्टियों को न्यायोचित ठहराते रहेंगे। एक वर्ष के 365 दिनों में से आम नागरिक को सामान्यतः केवल 52 साप्ताहिक छुट्टियाँ मिलती हैं अर्थात् एक आम नागरिक वर्ष में लगभग 313 दिन कार्य करता है। सरकारी कर्मचारियों को यदि दो दिन प्रति सप्ताह छुट्टी मिलती हो तो वे भी वर्ष में 261 दिन कार्य करते हैं। भारत की जिला स्तरीय सभी अदालतें वर्ष में लगभग 245 दिन कार्य करती हैं। राज्यों के उच्च न्यायालय वर्ष में लगभग 210 दिन कार्य करते हैं। भारत का सर्वोच्च न्यायालय वर्ष में केवल 193 दिन ही कार्य करता है। इसके बावजूद भी वकीलों की ताकतवर संस्थाएँ जब हड़तालों पर उतरती हैं तो यह उपरोक्त कार्यक्षमता और भी कम हो जाती हैं। इतने कम दिन कार्य करने वाले न्यायाधीशों को व्यक्तिगत वार्षिक छुट्टियाँ अलग भी दी जाती हैं। इसके अतिरिक्त वकीलों के द्वारा कई तरह के व्यक्तिगत कारणों को आधार बनाकर मुकदमों की कार्यवाही में अगली तिथि निर्धारित करवाना भी अन्य पक्षों के लिए छुट्टी के समान ही बन जाता है। इन कारणों से न्याय व्यवस्था की गाड़ी कभी एक्सप्रेस ट्रेन की तरह भागती हुई नजर नहीं आती। यह गाड़ी 19वीं सदी की उस छुकछुक गाड़ी के समान है जहाँ हर 15-20 मिनट के बाद एक स्टेशन आ जाता है या कोई भी व्यक्ति अपनी इच्छा से चेन खींचकर ट्रेन कहीं भी रोक सकता है। हो सकता है कोरोना महामारी के संकट से उत्पन्न नई अवस्थाएँ भारतीय न्याय प्रणाली को भी कुछ तेज गति की व्यवस्थाएँ उपलब्ध करा सके।

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