संपादकीय

दिल दरिया है धड़कती कविताएं लरजता लेखन संसार

संगत चित्र कविताओं के पूरक नहीं कहे जा सकते, क्योंकि प्रत्येक कविता स्वयं चित्रमय है एवं स्वयं ही लक्ष्य को प्राप्त कर रही है—किसी बैसाऽी के अवलम्बन की आवश्यकता नहीं होती। लेखिका (दीप्ति दरियादिली) ने नौ वर्ष की आयु से ही काव्य-साधना एवं लेऽन आरम्भ किया, उनके नाम की दीप्ति स्वमेय ही चतुर्दिक विसरित होने लगी। उनकी अन्तर्जगत एवं बाह्य-जगत की जीवन-यात्र का डायमंड बुक्स द्वारा प्रकाशित संस्करण ‘दिल दरिया है’ है। दीप्ति दरियादिली हिन्दी साहित्य की विभिन्न विधाओं में साधनारत है। भाषा पर गहरी पकड़ के साथ अभिव्यत्तिफ़ का सौन्दर्य हृदय में आल्हाद की सृष्टि करता है। शब्दों से चित्र बनाना इनकी अन्य निपुणता है। रोमांटिक भावनाओं का दृश्यांकन आनन्द का सृजन करता है।
जब एकान्त मनः होता है तो उसका सम्बन्ध अन्यत्र कहीं जुड़ जाता है। परिणामतः चिन्तन की विविध रेऽाएं निश्चल कैनवास पर सहज रूप से उतरने लगती हैं एवं काव्य का सृजन होता है।
वे शाश्वत क्षण जिनमें रूह का दीदार हो जाय! वे अविरल पल जो आनंद के अतिरेक सागर में बदल जाय!!
मिलन के ये अद्भुत क्षण लौकिक (ज्ञातसत्ता) या अलौकिक (अज्ञात सत्ता) प्रियतम से हों_ समाधि में परिवर्तित हो जाते हैं, जिसमें अश्रु एवं वियोग जनित पीड़ा का कदाचित कोई स्थान नहीं रहता। इस सम्बन्ध में परमहंस योगानन्द की ‘समाधि’ नामक कविता का स्मरण हो आता है-
भीतर ही भीतर सुलगते आनंद ने
जो ध्यान में प्रायः सुलग उठता,
मेरे अश्रु पूर्ण नेत्रें को रुद्ध
कर दिया,
और भड़क उठा परमानंद के
शोलों के रूप में,
और स्वाहा कर लिया
मेरे अश्रुओं को,
मेरे शरीर को,
मेरे सम्पूर्ण अस्तित्व को।
ब्रह्म मुझमें समा गया,
मैं ब्रह्म में समा गया,
ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेय सब
एक हो गये।
शांत अऽंड रोमांच
सदा के लिये
जीती-जागती नित्य नवीन शांति
˟ ˟ ˟ ˟
आनंद में से आया था,
आनंद के लिये मैं जीता हूँ।
पवित्र आनंद में मैं
विलीन हो जाता हूँ।
मन का सागर बना मैं,
सृष्टि की सारी तरंगों
को पीता हूँ।
˟ ˟ ˟ ˟
निरम्र है मेरे मन का
आकाश अब-नीचे,
ऊपर, आगे पीछे_
अनंतता और मैं एकरूप
बनी एक ही एक ही
किरण हूँ अब।
हँसी का एक नन्हा सा
बुलबुला मैं,
अब बन गया हूँ
सागर हर्षाेल्लासा का।
‘दिल दरिया है’ सर्जना-संग्रह सुविज्ञ पाठकों को बहुत पसंद आयेगा।

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