संपादकीय

सीमा पर बसे लोगों की अन्तहीन कठिनाईयाँ (1)

-विमल वधावन योगाचार्य
(एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट)

राजनीतिक दलों, समाचार पत्रों और अन्य मीडिया प्रबन्धकों के पास विशाल जन सम्पर्क की बहुत बड़ी शक्ति होती है। मेरी सदैव यह मान्यता रही है कि जन सम्पर्क शक्ति का प्रयोग कई छोटे-बड़े समाजसेवा कार्यों के लिए किया जा सकता है। जब भी कहीं कोई प्राकृतिक आपदा आती है तो ऐसी ही छोटी-बड़ी सभी जनशक्तियाँ पीड़ितों की सहायता में जुट जाती हैं।
किसी भी आतंकवाद का उद्देश्य जनता की आवाज को बन्द करना होता है। ‘पंजाब केसरी’ समाचार पत्र समूह के संस्थापक लाला जगत नारायण जी भी ऐसे ही आतंकवाद का शिकार हो गये। परन्तु इस पत्र समूह ने अपने मिशन को नहीं छोड़ा। दूसरी शहादत उनके सुपुत्र श्री रमेश जी के रूप में हुई। इसके उपरान्त श्री विजय कुमार चोपड़ा जी ने मिशन की कमान संभाली और एक निष्ठावान गाँधीवादी की तरह आतंकवाद को यह स्पष्ट संदेश दिया कि जनता की आवाज का यह मिशन तो बन्द नहीं होगा बल्कि पूरी विनम्रता के साथ उस आतंकवाद के पीड़ित परिवारों को कई प्रकार से सहायता देने का महान प्रयास प्रारम्भ कर दिया। उनके इस कार्य में समाचार पत्र के साथ जुड़ी जनशक्ति ने भी उनका भरपूर सहयोग दिया। जिसका परिणाम है कि आज इस एक समाचार पत्र घराने ने अरबों रुपये नकद तथा सामग्री के रूप में सीधे पीड़ित परिवारों को पहुँचाने के साथ-साथ केन्द्र, तथा राज्य सरकारों और यहाँ तक कि 1971 में बंगलादेश सरकार को भी त्रासदी पीड़ितों के लिए सहायता राशि समर्पित की थी। यह मिशन 1966 में बिहार त्रासदी सहायता से प्रारम्भ हुआ था। मेरी दृष्टि में इतनी विशाल सहायता का प्रबन्ध करना और अपनी निगरानी में उसे सही स्थान तक पहुँचाना किसी विशाल प्रणेता का ही कार्य हो सकता है और वह प्रणेता थे लाला जगत नारायण जी।
गत माह मैंने पंजाब के एक टी.वी. चैनल पर देखा कि पठानकोट जिले के सीमावर्ती खुदाईपुर गाँव के कुछ किसान तारों वाली बाड़ के दूसरी तरफ जीरो लाईन के बीच खेती कर रहे थे तो पाकिस्तान सेना के तीन सैनिकों की निगरानी में एक पाकिस्तानी युवक ने सुखवीर सिंह नामक सिक्ख किसान के साथ हाथापाई की और उसे पाकिस्तान की तरफ खींचकर ले जाने लगा। बहादुर युवक किसी तरह से छूटकर बाड़ की तरफ भागा और बच गया। हमारे देश की सीमाओं पर लोहे की कंटीली तारों से जो बाड़ लगाई गई है वह वास्तव में भारत-पाकिस्तान सीमा की जीरो लाईन पर नहीं है, बल्कि उससे काफी अन्दर भारत की तरफ है। कहीं-कहीं यह दूरी 100-200 मीटर है तो कहीं 1 से 5 किलोमीटर तक है। तारों की बाड़ और जीरो लाईन के बीच में भी भारतीय गाँवों की भूमि है जिसपर किसानों को तार पार करके जाना पड़ता है। इन कंटीली तारों के बीच गेट बनाये गये हैं जहाँ से बी.एस.एफ. की अनुमति लेकर किसान तारों के पार खेती करने जाते हैं।
इस सम्बन्ध में मैंने पंजाब केसरी के मुख्य प्रबन्धक एवं मुख्य सम्पादक श्री विजय चोपड़ा जी से सम्पर्क किया तो उन्होंने कहा कि मुझे स्वयं पंजाब और जम्मू कश्मीर राज्य के साथ लगती पाकिस्तान सीमा के कुछ क्षेत्रों में जाकर लोगों की वास्तविक समस्याओं को समझना चाहिए। इस बीच श्री विजय चोपड़ा जी ने जालन्धर के पूर्व निगम पार्षद तथा पंजाब केसरी के वरिष्ठ संवाददाता एवं जाने-माने लेखक श्री वीरेन्द्र शर्मा जी के साथ मेरा सम्पर्क करवाया। श्री वीरेन्द्र शर्मा ने मुझे सीमान्त क्षेत्रों के बारे में कई चैंकाने वाले तथ्य बताये जिन्हें सुनकर मेरी जिज्ञासा और अधिक प्रबल होने लगी थी। पंजाब केसरी समूह के द्वारा पंजाब और जम्मू कश्मीर के सीमावर्ती गाँवों में कई प्रकार की सहायता सामग्री वितरित की जाती है। अब तक 500 से अधिक ट्रक सहायता सामग्री वितरित की जा चुकी है। मैंने अपने आपको तुरन्त इस दौरे के लिए तैयार कर लिया।
हमारा सबसे पहला दौरा 8 गाँवों के एक ऐसे क्षेत्र में था जिसका दो तिहाई हिस्सा रावी नदी के घेरे में है और शेष एक तिहाई हिस्सा भारत-पाकिस्तान के सीमा के घेरे में है। सीमा और नदी एक प्रकार से इन 8 गाँवों के चारो तरफ एक चक्र का निर्माण करते हैं। भरियाल, तूर, छेबे, ममिया, कुकर, चकरंगा, लसियान तथा कजले नामक इन गाँवों की सबसे बड़ी समस्या यह नजर आई कि यहाँ पहुँचने के लिए रावी नदी पर दो कच्चे पुल बनाये गये हैं जो नावों पर निर्मित हैं। वर्षा ऋतु में इन पुलों को हटा दिया जाता है, क्योंकि नदी में पानी बढ़ने से ये पुल टूट कर नावों को भी बहा ले जा सकते हैं। वर्षा ऋतु के अतिरिक्त भी जब नदी में पानी बढ़ता है तो इन पुलों के बावजूद गाँवों के लिए आवागमन बाधित हो जाता है। ऐसे समय में गाँवों की फसलें बर्बाद हो जाती हैं, बच्चों की शिक्षा बाधित हो जाती है, चिकित्सा सुविधाएँ तक भी नहीं मिल पाती। सामान्य समय में भी फसलों को मंडियों तक ले जाने के लिए ट्रैक्टर ट्रालियों से नदी पार करवाई जाती है और फिर यहाँ से दुबारा ट्रकों में भरकर फसलों को मंडी पहुँचाया जाता है। हम इस क्षेत्र में तैनात बी.एस.एफ. के कुछ अधिकारियों से भी मिले। उन्हें भी इन कच्चे पुलों के कारण कई कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है।
इसके बाद हम पठानकोट के उस खुदाईपुर गाँव पहुँचे जहाँ एक सप्ताह पूर्व सिक्ख किसान सुखवीर सिंह के साथ बाॅर्डर पार से कुछ लोगों ने आकर हाथापाई की थी। इस गाँव के सरपंच श्री सुरजीत सिंह तथा कई अन्य लोगों ने हमें कंटीली तारों और बाॅर्डर की वास्तविक जीरो लाईन के बीच पड़ने वाली जमीन पर खेती करने में अनेकों कठिनाईयों से अवगत कराया।
जिन किसानों की भूमि कंटीली तारों के पार है उन्हें 10 हजार रुपये प्रति एकड़ का मुआवजा देने का प्रावधान है जिसमें केन्द्र सरकार 65 प्रतिशत अनुदान देती है और शेष 35 प्रतिशत पंजाब सरकार द्वारा दिया जाता है। सामान्य खेती की अवस्थाओं में एक एकड़ भूमि से 4-5 लाख रुपये की कमाई हो सकती है, परन्तु सीमा पर हालात सदैव असामान्य और अनिश्चित ही रहते हैं। ऐसे में 10 हजार रुपये प्रति एकड़ प्रति वर्ष का मुआवजा बहुत थोड़ा लगता है। इस मुआवजे का भुगतान भी कभी समय पर नहीं किया जाता। पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय ने सीमावर्ती किसानों की इन समस्याओं के लिए एक विशेष प्राधिकरण भी गठित किया है। परन्तु इस समस्या का समाधान कहीं दिखाई नहीं देता।
इसके बाद हम सायंकाल लगभग 6 बजे जम्मू के आर.एस. पुरा सैक्टर स्थित एक सीमावर्ती गाँव जंगवाल पहुँचे जहाँ पंजाब केसरी सहायता सामग्री का वितरण किया गया। इस कार्यक्रम में मैंने गाँव के हजारों लोगों के चेहरों पर अत्यन्त कृतज्ञता का भाव अनुभव किया। सीमावर्ती क्षेत्रों में रहने वाले ग्रामवासियों की कठिनाईयों का कोई अन्त नहीं है। परन्तु सरकारें और देशवासी यदि चाहें तो उनकी हर कठिनाई में सहयोगी जरूर बन सकते हैं। इस दौरे से मेरे मन में कई सुझाव उठते रहे और संकल्प बनते रहे कि जिन सीमान्त क्षेत्रों के लिए जब पंजाब केसरी समूह बिना थके सहायता सामग्री बांटने का कार्यक्रम संचालित कर सकता है तो ऐसे संकटग्रस्त नागरिकों की सहायता करना सरकारों का प्राथमिक कत्र्तव्य होना चाहिए।

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