संपादकीय

सम्पूर्ण लाॅकडाउन की कानूनी प्रक्रिया

-विमल वधावन योगाचार्य
एडवोकेट (सुप्रीम कोर्ट)

इसमें कोई सन्देह नहीं है कि भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और इसका व्यापक प्रभाव देश के एक-एक नागरिक को मिली स्वतंत्रता में झलकता है। सोशल मीडिया के बढ़ते प्रचलन से लोकतंत्र की यह स्वतंत्रता हर क्षण नजर आती है। जब भी कोई अखबार उठाओ, यूट्यूब पर चलने वाले प्राइवेट चैनल देखो, वाट्सएप, फेसबुक और ट्वीटर जैसे माध्यमों पर लोगों के विचार पढ़ना शुरू करो तो पता चलता है कि लोगों को विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता कितनी असरदार है। सामान्य नागरिक से लेकर देश के बड़े से बड़े नेता इस स्वतंत्रता का बेझिझक प्रयोग करते हैं। कई बार तो इस स्वतंत्रता का प्रयोग अमर्यादित, अशोभनीय और बेशर्मी को भी पीछे छोड़ देता हैं। एक राजनेता प्रधानमंत्री के बारे में यह विचार व्यक्त करता है कि देश का युवा इस प्रधानमंत्री को पीटता हुआ दिखाई देगा। कोरोना महामारी के बाद भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने सारे विश्व के सामने एक अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया जब उन्होंने 22 मार्च के दिन जनता कफ्र्यू का आह्वान किया। इसके दो दिन बाद उन्होंने सारे राष्ट्र में 21 दिन के लिए सम्पूर्ण लाॅकडाउन की घोषणा करते हुए सायं 8 बजे यह आदेश जारी किया कि चार घण्टे बाद अर्थात् रात्रि 12 बजे से जो जहाँ पर है वह वहीं पर रहे। प्रधानमंत्री के इस आदेश के बाद सोशल मीडिया में एक वाक्य पढ़ने को मिला – ‘ऐसा लगता है जैसे मोदी ने पौआ चढ़ा लिया हो और चार घण्टे बाद सम्पूर्ण देश को लाॅकडाउन करने जैसा हुक्मनामा जारी कर दिया, यह सोचे बिना कि देश में कितने लोगों को किस-किस प्रकार की तकलीफें होंगी।’
सोशल मीडिया पर इस विशेष टिप्पणी ने मुझे भी मजबूर कर दिया कि प्रधानमंत्री के इस आदेश के पीछे कानूनी या संवैधानिक प्रश्न का उत्तर तो मिलना ही चाहिए। वैसे कुछ कानून के जानकार भी 21 दिन के सम्पूर्ण लाॅकडाउन की घोषणा पर चर्चा करते हुए दिखाई दिये कि संसद के किस कानून में भारत के प्रधानमंत्री को सारे देश में इस प्रकार के आदेश लागू करने के अधिकार दिये हुए हैं? वास्तव में भारत के इतिहास में इतना लम्बा और सम्पूर्ण लाॅकडाउन पहली बार देखने और सुनने को मिला।
भारत का संविधान भारतीय नागरिकों को जीवन जीने की कई स्वतंत्रताएँ मूल अधिकारों के रूप में घोषित करता है जिनमें सबसे प्रमुख अधिकार है भारत में कहीं भी घूमने और बसने की स्वतंत्रता। इसी से मिलता-जुलता अधिकार है कि किसी भी व्यापार आदि को करने की स्वतंत्रता। प्रधानमंत्री की सम्पूर्ण लाॅकडाउन घोषणा पर इन्हीं दो अधिकारों के दृष्टिगत प्रश्न खड़े किये जा रहे हैं। प्रश्न खड़ा करने वाले लोग यह भूल जाते हैं कि कोई भी मूल अधिकार पूरी तरह से अक्षरशः लागू नहीं किये जा सकते। केन्द्र सरकार को यह अधिकार है कि सार्वजनिक हित में किसी भी अधिकार पर न्यायोचित प्रतिबन्ध लगाये जा सकते हैं। परन्तु इस पर भी सर्वोच्च न्यायालय के कई निर्णयों में कहा गया है कि यह प्रतिबन्ध भी कानूनी प्रक्रिया का पालन करके ही लगाये जा सकते हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने बार-बार यह भी कहा है कि प्रतिबन्धों का मूल आधार सार्वजनिक हित ही होना चाहिए।
जिस गति के साथ चीन से उत्पन्न कोरोना वायरस अमेरिका, इटली और इरान जैसे सक्षम देशों में जंगल की आग की तरह फैलता दिखाई दे रहा था और विशेष रूप से जबकि ऐसी महामारी की कोई दवाई सारे संसार के पास उपलब्ध नहीं है प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने जनवरी और फरवरी माह में इस महामारी की गति पर व्यापक अनुसंधान करवाने के बाद भारतीय परिस्थितियों में एक ही उपाय उचित समझा जिसका नाम था सम्पूर्ण लाॅकडाउन। सारे देश के नागरिकों के स्वास्थ्य को सुरक्षित रखने के लिए ही यह कदम उठाया गया था। सारी दुनिया जानती है कि भारत में यदि यह महामारी अमेरिका की गति से फैलती तो अब तक यहाँ भी हजारों नागरिक मौत का शिकार हो चुके होते। इसलिए प्रधानमंत्री का यह कदम जनहित में तो सिद्ध होता ही है।
सम्पूर्ण लाॅकडाउन की घोषणा के साथ दूसरा प्रश्न उस कानूनी प्रक्रिया के साथ जुड़ा है जो प्रधानमंत्री को इस प्रकार की घोषणा का अधिकार देता हुआ सिद्ध हो। आपत्तिकर्ताओं का कहना है कि स्वास्थ्य का विषय राज्य सरकारों का विषय है, परन्तु वे यह भूल जाते हैं कि संविधान कीे सातवीं अनुसूची में जहाँ केन्द्र सरकार के और राज्य सरकार के अलग-अलग विषयों पर चर्चा है वहीं एक समवर्ती सूची भी उसका हिस्सा है जिसमें आर्थिक और सामाजिक योजनाओं पर कानून बनाने या व्यवस्थाएँ जारी करने के अधिकार केन्द्र सरकार को प्राप्त है। केन्द्र सरकार के विषयों वाली सूची में तो स्पष्ट रूप से अन्तर्राज्यीय प्रवास तथा अन्तर्राज्यीय क्वारंटाईन जैसे विषय भी शामिल हैं। इसके अतिरिक्त 1897 के एक महामारी रोग कानून की धारा-2ए भी केन्द्र सरकार को महामारियाँ रोकने के लिए विशेष अधिकार देती है। वर्ष 2005 का आपदा प्रबन्धन कानून भी केन्द्र सरकार को सामाजिक दूरी बनाये रखने के सम्बन्ध में उपाय करने का अधिकार देता है। सामाजिक सुरक्षा वैसे भी सातवीं अनुसूची की समवर्ती सूची में शामिल है। आपदा प्रबन्धन के मामलों में राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन अथारटी का गठन किया गया है जिसका अध्यक्ष प्रधानमंत्री ही होता है। इस कानून की धारा-6 में भी प्रधानमंत्री को किसी आपदा के रोकने के लिए विशेष उपाय करने की अनुमति दी गई है। कोरोना वायरस केवल भारत के लिए ही नहीं अपितु सारे संसार के लिए बहुत बड़ी आपदा बनकर उभरा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने बिना देरी किये कोरोना वायरस से उत्पन्न परिस्थितियों पर एक महामारी घोषित कर ही दिया था। होना तो यह चाहिए था कि विश्व स्वास्थ्य संगठन सारे संसार के देशों को यह परामर्श जारी करता कि इस महामारी से बचने का सीधा उपाय सम्पूर्ण लाॅकडाउन का लागू करना ही हो सकता है। परन्तु भारत के दूरदर्शी प्रधानमंत्री ने इन परिस्थितियों में पहले जनता कफ्र्यू और फिर सम्पूर्ण लाॅकडाउन की घोषणा करके सारे विश्व में अपनी धाक बना ली है। उनका यह कदम भारतीय संविधान, महामारी रोग कानून तथा आपदा प्रबन्धन कानून में प्रदत्त अधिकारों की पृष्ठभूमि से ही उठा है। इसलिए इस प्रश्न का भी सीधा और सकारात्मक उत्तर मिलता है कि प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने संवैधानिक और कानूनी अधिकारों के साथ ऐसी घोषणा की है। इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण उनका यह प्रयास रहा कि किसी भी व्यवस्था को राष्ट्रीय स्तर पर लागू करने से पूर्व उन्होंने सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ वीडियो कान्फ्रेंस का तारतम्य बनाया। दूसरी तरफ देश के सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने भी दलगत राजनीति को भुलाकर केन्द्र की इन घोषणाओं को पूरी ताकत के साथ लागू करने में ही भारतीय जनता का हित समझा है। इसीलिए आज कोरोना जैसी महामारी भारत जैसे विशाल देश में पूरे पैर नहीं पसार सकी।

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