संपादकीय

मस्ती, शरारत भरे बचपन के दिन …

यादों के झरोखों से (संस्मरण)

बचपन हर ग़म से बेगाना होता है उक्ति वास्तव में बहुत सटीक है। हर व्यक्ति को अपना बचपना और बचपन की बातें हमेशा स्पंदित करती हैं। ऐसे ही जब मै अपने बचपन के बारे में कभी सोचता हूं तो स्मरण हो आता है बसन्त का आना और पीले बसंती कपड़े पहन कर गुल्ली-डंडा, सतौलिया, छूपन छूपाई खेलना। फूलों पर बैठी तितली को पकड़ना। मंडराते भंवरों की गुंजन सुनना…। बरसात क्या आती कागज की बनी नाव को तैराने की प्रतियोगिता शुरू हो जाती थी…। ये वो पल होते थे जो बचपन को भरपूर जीने के लिए प्रेरित करते रहते थे…। त्योहारों पर तो इन पलों में पंख लग जाते थे…।

  • होली के आने की सुन कर ही मन में रंग बिरंगी लहरे उठने लगती थी। एक माह पहले ही गोबर के बढ़कूले, पान, चांद, सूरज, तारे और न जाने कैसे-कैसे खिलौने बना कर इनकी लम्बी से लम्बी मालाएं बनाने की होड़ लग जाती थी। इनकी माला इतनी लम्बी हो जाती थी कि पूरी एक बोरी भर जाए। कई बोरियां भर जाती थी। एक जुनून सवार रहता था। इसके अलावा कोई काम नहीं सूझता था। घर-घर टूटा-फूटा फर्नीचर, लकड़ियां और चंदा इकट्ठा करने टोलियों में जाना। होलिका को बड़ी से बड़ी बनाना। सुबह से बांस की पिचकारियों से रंगों की बोछार और गुलाल का धमाल दोपहर बाद तक मस्ती ही मस्ती।
  • जब दशहरा आता तो रामलीला देखने के लिए सबसे पहले पहुंच कर अपनी बोरी बिछा कर जगह रोकने की होड़ का मजा ही अलग था। रामलीला देखते-देखते रेवड़ी, गजक और मूंगफली खाना शान थी हमारी। दशहरे पर गोबर का पायता डालना, रंगोली से सजना-पूजन करना, चावल की खीर के चटकारे। बस मजे ही मजे…।
  • जब होई का त्योहार आता तो घर की दीवार पर खड़िया और गेरू से मामी-चाची के साथ मिल कर सुंदर होई माता का चित्रांकन करना। ऐसे ही रक्षा बन्धन पर एक दिन पहली रात को दरवाजे की चौखट के दोनों और गोबर से पोत कर सूखने के लिए छोड़ देना। तड़के सुबह उठ कर खड़िया से पोतना और सूखने पर गेरू से सरवन बनाना और पूजा करने का आंनद लेना। ऐसे ही जन्माष्टमी पर पूरे दिन लग कर कृष्ण जी की झांकी सजाना और कृष्ण जन्म होने तक मस्ती से भजन-कीर्तन करना। दीपावली आने पर मिल कर पटाखों की दुकान सजा लेना। घरों को सैंकड़ों दीपकों की रोशनी से जगमगाना और उनको निहारना। मोहल्ले के चोंक पर देर रात तक सामूहिक आतिशबाजी की मस्ती…। ये वो पल थे जो बचपन को संवारते थे।
  • बचपन की यह सब स्मृतियां हैं उत्तरप्रदेश के जिला मुजफ़्फरनगर के छोटे से दो गांवों चरथावल और थानाभवन की, जहां मेरे बाल्यकाल का चपल, चंचल और सुनहरा समय व्यतीत हुआ। इन्हीं दिनों में सुबह-सुबह प्रभात फेरी निकालना, खेतों और नहरों पर दूर तक प्रातः घूमने जाना, कुएं पर बाल्टी से पानी खींच कर नहाना, मन किया तो धर्मशाला में चलने वाले स्कूल के हैंडपंप और खेत पर बने ट्युवेल पर घंटो नहाने की मस्ती करना। पर्वाे पर घर की स्वादिष्ट मिठाइयों को कोठरी से चुपचाप निकाल कर खाने का मज़ा। बागों से माली की आंख बचा कर अमरूद और कैरी तोड़ना, देखने पर जब माली डंडा लेकर आता तो भाग जाना। हम आगे-आगे और वह पीछे। कभी-कभी एकाध पड भी जाती थी। इस सहजता में चपलता भी थी तो सरलता के साथ शरारत भी…।
  • इन सबके रहते स्कूल जाने का अलग अंदाज़ रहता था। स्कूल का होम वर्क करके नहीं ले जाने की तो सामान्य बात रहती। स्कूल का समय समाप्त होने से पहले स्कूल से चले जाने का भी मसाला भी होता था यानि बीच में ही भाग जाना…! समय से पहले स्कूल से चले जाने पर पर गुरु जी की डांट, डंडे खाना और मुर्गा बनने में जो बात रहती वह अभी भी रोमांचित करती है। मुझे याद है गुरु जी हथेली की उलटी तरफ खड़े स्केल की देते थे। बैंत की भी खानी पड़ती थी। एक बार मै और तीन-चार मित्र स्कूल समय से पहले चले गए। अगले दिन प्रार्थना के बाद सब के सामने हमें बैंत की मार खानी पड़ी। जब मेरा नंबर आया तो पता नहीं कैसे बैंत हाथ से पकड़ने में आ गई। अब क्या था ! बैंत पकड़ते हो, कह कर बाहों पर कमर पर इधर-उधर चार-पांच बैत की मार पड़ी। मेरे बाद हेडमास्टर जी के बच्चे का नंबर आया, मेरा सारा गुस्सा उस पर निकला और अच्छी खासी धुनाई हो गई। इसके बाद हम कभी स्कूल से नहीं भागे। यह वाकया तो विशेष रूप से याद रहता है और याद दिलाता रहता है बचपन में मिली सीख की…पाठ की…।
  • इन सबके बीच नानी के घर में बीता समय बचपन की तमाम सहजताओं का घर हो जाता था। मेरे पिता राजस्थान में नोकरी पर थे और मेरा बचपन चरथावल में दादा-दादी और थानाभवन में नाना-नानी के साथ संयुक्त परिवार में गुजरा। पीढ़ियों के पुरखों की बड़ी-बड़ी हवेलियां थी। दोनों ही जगह तीन-तीन और चार-चार परिवार रहते थे। उस समय बिजली कुछ ही घरों में थी, वह भी चौबीस घंटे में तीन – चार घंटे आती थी। पानी हैंडपंप या कुएं से भरना होता था। चूल्हा जलाने के लिए आने वाली लकड़ियों को सीढ़ी पर चढ़ कर बुखारी में भरने और कच्ची मिटी की छतों पर बरसात से पहले मिट्टी की मुंडेर चढ़ाने में खूब मजा आता था। चने की फसल आने पर रात को पुआल पर सेक कर होले बना कर उकडू बैठ कर दोस्तों के साथ गरम-गरम खाने और सुबह नाश्ते में पड़ोस से दही का मठ्ठा ला कर रात की रोटियां भिगो कर नमक मिर्च डाल कर खाने का स्वाद और चटखारे तो भुलाए नहीं भूलते। मामा के यहां पशुओं को चारा खिलाने के लिए कुट्टी काटने की हाथ की मशीन से चारे की कुट्टी काटना तो खेल जैसा आंनद देता था।
  • संयुक्त परिवार में खूब सारे भाई-बहन हो जाते थे मस्ती ही मस्ती रहती थी। शाम को लालटेन की रोशनी के चारों ओर बैठ कर सामूहिक पढ़ाई करना, गर्मियों में खुली छत पर दरी बिछा कर सोना, आसमान में चांद-तारों को निहारना और तारों की बातें करना, हवा चल जाए तो कहना क्या, रात को सोने से पहले ताश, चौपड़, शतरंज, लूडो और फिल्मी गानों की अंताक्षरी का धमाल, गप्पों और चुटकलों की बहार और दादी-नानी से कहानी सुनना हमारी मस्ती का यही आलम रहता था।
  • बचपन का बचपना, शैतानी, मस्ती के साथ परिवार में सबके साथ रहने का सुख आज भी मै भूल नहीं पाता जो दिल और दिमाग पर अमिट स्याही की तरह अंकित है। यही अंकन ज़िन्दगी में ताज़गी बनाये रखता है…।

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