संपादकीय

पंचायतों को गतिमान करने का महा अभियान

-विमल वधावन योगाचार्य, (एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट)
भारतीय शासन व्यवस्था की मूल इकाई ग्राम पंचायत मानी गई है। प्राचीन भारतीय राजतन्त्र में भी ऐसी व्यवस्थाएँ देखने को मिलती थीं। महात्मा गाँधी ने भी स्वतंत्रता से पूर्व उसी पारम्परिक पंचायत तंत्र की कल्पना देश के समक्ष प्रस्तुत की थी। स्वतंत्रता के 45 वर्ष बाद 1992 में पंचायती राज व्यवस्था लागू की गई थी। इसके लिए भारत के संविधान में 73वें संशोधन के द्वारा अनुच्छेद-243 को जोड़कर पंचायती राज व्यवस्था लागू की गई थी। जबकि राजस्थान, आन्ध्र प्रदेश तथा महाराष्ट्र जैसे कुछ राज्यों में यह व्यवस्था संविधान संशोधन से पूर्व ही कार्य कर रही थी। इस नई व्यवस्था में प्रत्येक जिले के अन्दर पंचायत की कार्यप्रणाली को तीन स्तरों में विभाजित किया गया। प्रत्येक गाँव के स्तर पर एक सरपंच और कुछ सदस्यों को 5 वर्ष के लिए चुना जाता है जिसे ग्राम पंचायत कहा जाता है। इसके ऊपर ब्लाॅक स्तर पर गठित पंचायत को पंचायत समिति कहा जाता है। यह ब्लाॅक समिति तहसील स्तर पर कार्य करती है जिसे कुछ राज्यों में मण्डल या ताल्लुका शब्दों से सम्बोधित किया जाता है। इस पंचायत समिति में तहसील स्तर के सभी गांवों के सरपंच तथा स्थानीय सांसद और विधायक के साथ-साथ एस.डी.ओ. तथा विशेष रूप से मनोनीत कुछ अन्य सदस्य होते हैं। यह पंचायत समिति भी पांच वर्ष के लिए चुनी जाती है। जिले की सभी तहसीलों को मिलाकर एक जिला परिषद् बनती है जिसमें जिले के सभी पंचायत समिति अध्यक्ष तथा जिला कलेक्टर, सांसद और जिले के सभी विधायक तथा विशेष रूप से मनोनीत कुछ सदस्य होते हैं।
गांव स्तर पर कार्य करने वाली ग्राम पंचायत वास्तव में देश के राजनीतिक तन्त्र की मूल इकाई है। गांव के अन्दर विकास का प्रत्येक कार्य करने का दायित्व इसी ग्राम पंचायत का होता है। ग्राम पंचायत को कोष एकत्र करने के सीमित साधन प्राप्त होते हैं। वास्तव में राज्य सरकार द्वारा आबंटित कोष ही ग्राम पंचायत के लिए धन का स्रोत बनते हैं। ग्राम पंचायत यदि चाहे तो अपने बल पर भी कोष का निर्माण कर सकती है।
राज्य सरकार से प्राप्त धन जिला परिषद् को प्राप्त होते हैं और वहाँ से तहसील स्तरीय पंचायत समिति के माध्यम से ग्राम पंचायत तक पहुँचते हैं। इस प्रकार ग्राम पंचायतों को धन और साधनों की प्राप्ति के लिए पंचायत समितियों और जिला परिषदों से ही आशा करनी पड़ती है।
ग्राम पंचायतें यदि अपने दायित्व को पूरे व्यापक रूप में समझें तो ग्राम पंचायत का काम किसी राज्य सरकार या केन्द्र सरकार को चलाने की तरह ही होगा। बेशक ग्राम पंचायत के कार्यों का स्तर और स्वरूप बहुत छोटा दिखाई देता है। गांव में सड़कों, नालियों और छोटे पुलों के निर्माण से लेकर जल प्रबन्ध, शिक्षा, चिकित्सा की सुविधाएँ उपलब्ध कराना और भाई-चारे को बनाये रखना, गांव में उद्योगों की स्थापना से ग्रामवासियों के लिए रोजगार के अवसर पैदा करना, खेती तथा पशुपालन के क्षेत्रों में किसानों को हर प्रकार की सुविधा और सहायता का प्रबन्ध करना, केन्द्र और राज्य सरकारों की समाज कल्याण योजनाओं का लाभ ग्रामवासियों को उपलब्ध कराना, युवाओं को स्वरोजगार में सहायता करना तथा भिन्न-भिन्न प्रकार की कोआॅपरेटिव संस्थाओं का निर्माण करके गांव के प्रत्येक पक्ष को समृद्ध बनाना ग्राम पंचायतों का ही दायित्व है। पंचायतें यदि जागरूक हों तो गाँववासियों में नैतिकता और आध्यात्मिकता का रूझान पैदा करके आपसी भाईचारे की एक मजबूत नींव तैयार कर सकती हैं। गाँव के बच्चों के लिए अक्सर उच्च शिक्षा एक स्वप्न की तरह दिखाई देती है। पंचायतें यदि गतिमान हों तो निकट या दूर के शहरों में गाँव के हर बच्चे की उच्च शिक्षा की व्यवस्था सरलता पूर्वक कर सकती हैं। भारत की पंचायतों में महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत सीटें आरक्षित हैं जिसका उद्देश्य विकास के हर कार्य में महिलाओं को बराबर की भागीदारी प्रदान करना है। प्रत्येक गांव का सरपंच यदि इन सारे कार्यों को अपने दायित्व के रूप में समझ ले और स्वीकार कर ले तो इन कार्यों को करने का मार्ग तलाश करना उसके लिए असम्भव नहीं होगा, बेशक उसे इस कार्य में अच्छी मेहनत और समझदारी का परिचय देना होगा।
मेरी दृष्टि में सरपंच का दायित्व राज्य के मुख्यमंत्री या देश के प्रधानमंत्री के समान ही है, अन्तर केवल कार्य करने के स्तर का है। मुख्यमंत्री अपने राज्य स्तर पर विकास की हर सुविधा को जुटाने के लिए प्रयासरत रहता है और प्रधानमंत्री देश के स्तर पर इसी उद्देश्य से कार्य करता है। मुख्यमंत्री राज्य के अन्दर से प्राप्त होने वाली आय के स्रोतों को बढ़ाने के साथ-साथ बाहर से उद्योगपतियों को निवेश के लिए आमंत्रित करता है और केन्द्र सरकार से अधिकाधिक धन प्राप्त करने का प्रयास करता है। प्रधानमंत्री भी इसी प्रकार देश के अन्दर और बाहर से विकास के साधनों को जुटाने के लिए प्रयासरत रहता है। ठीक इसी प्रकार ग्राम पंचायतों को भी अपने दायित्वों को निभाने के लिए प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री की तरह सोच पैदा करनी चाहिए।
अनेकों गांवों का दौरा करने और सरपंचों से वार्ता के बाद मैंने यह महसूस किया है कि ग्राम स्तर के इन नेताओं ने अभी अपनी शक्ति को पूरी तरह नहीं पहचाना। सरपंचों तथा अन्य सदस्यों की क्या योग्यताएँ होनी चाहिए? ग्राम स्तर के इन निर्वाचित प्रतिनिधियों के दायित्व और अधिकार क्या हैं? उन्हें पंचायती राज व्यवस्था की मूल भावनाओं से अवगत रहकर जिला तथा राज्य स्तर के अधिकारियों के साथ किस प्रकार वार्तालाप स्थापित करने हैं? गाँवों के चहुँमुखी विकास के लिए बड़े-बड़े उद्योगपतियों, दानियों तथा भिन्न-भिन्न गैर-सरकारी संगठनों से सहयोग कैसे प्राप्त किया जाये?
वास्तविकता यह है कि इस सम्बन्ध में सरपंचों को कोई विशेष बौद्धिक सहायता और समर्थन भी प्राप्त नहीं होता। एक सरपंच अपने जिले के कलेक्टर या तहसील के एस.डी.ओ. से भी अधिकार पूर्वक वार्तालाप नहीं कर पाता, जबकि होना यह चाहिए कि प्रत्येक सरपंच अपने आपको अपने गांव का प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री समान समझकर एक शक्तिशाली नेतृत्व की तरह कार्य कर सके। देखने में यह शायद बहुत बड़ी कल्पना लगती है, परन्तु धीरे-धीरे यदि देश के सभी सरपंचों को ऐसे विचारों और प्रेरणाओं से प्रशिक्षित करने का अभियान छेड़ दिया जाये तो यह स्वप्न सच्चाई में बदला जा सकता है कि प्रत्येक सरपंच अपने गाँव के चहुँमुखी विकास के लिए पूरी योग्यता रखता है। देश के सरपंच यदि अपनी योग्यताओं का विकास करके गाँव के पूर्ण विकास को सुनिश्चित कराने में रुचि रखें तो वे अवश्य ही इन विचारों को एक बहुत बड़े अभियान के रूप में खड़ा करने में सहयोगी बन सकते हैं। इसलिए आज देश की पंचायतों को गतिमान करने के लिए एक महा अभियान की आवश्यकता है। इस सम्बन्ध में पाठकों और विशेष रूप से सरपंचों या पंचायत सदस्यों के विचारों का स्वागत है। जिन पर गम्भीर चिन्तन-मनन के बाद ऐसा महा अभियान प्रारम्भ किया जा सकता है।

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