संपादकीय

प्रलय है युद्ध ! (काव्यांजलि)

-सुनील कुमार महला
फ्रीलांस राइटर, कालमिस्ट व युवा साहित्यकार

चहुंओर बारूद की गंध,
स्याह धुएं से जलती अनगिनत आंखें
सिसक उठी है मानवता
मानवहीनता की पराकाष्ठा
ये कैसा नरसंहार ?
धरती हो रही बंजर
मानवहीनता ने चलाया है ये कैसा खंजर ?
लहू ही लहू बहता
कहानी ये कुछ है कहता
कांप रही है धरती
कांप रहा नभमंडल सारा
युद्ध ने मचाया है हर तरफ तांडव
बेबस है बच्चे सारे
आसमां से टूटते हैं अब अंगारे ही अंगारे
आंखों में दिख रहा है खौफ
हैवानियत हर तरफ
कंकाल ही कंकाल देखो
भावनाओं पर क्यों जम गई है आज बरफ ?
सुलह की यहां नहीं है कोई बात
काली घनी क्यों हो गई है ये रात ?
हर तरफ धमाके
सिहरन-सी है मन में आज उठी
दो देशों में ये कैसी है ठनी ?
वो देखो अनगिनत नारियां
सिंदूर माथे पर अब नहीं भर रहीं
चिताएं ही चिताएं आज जल रही
युद्ध का गिद्ध मासूम जिंदगियों को नोंच गया
न जाने कब, कहां और किस किस को ये रौंद गया ?
मन में है टीस
जम गया है अब खून
खंडहर बनी इमारतें, बारूद करा रहा हृदयविदारक रूदन
मुझसे मत पूछो युद्ध के बारे में
क्यों कि
युद्ध में प्रलय के सिवाय कुछ नहीं होता …!

(रूस यूक्रेन युद्ध पर आधारित यह कविता)

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