संपादकीय

न्यायाधीश से पहले वकील करें संयुक्त निर्णय

-विमल वधावन योगाचार्य
(एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट)

भारत की न्याय व्यवस्था के कन्धों पर मुकदमों की संख्या का बोझ लगातार बढ़ता जा रहा है। इस बढ़ते बोझ के दो मुख्य कारण हैं। प्रथम पर्याप्त संख्या में न्यायाधीशों का न होना। अन्तर्राष्ट्रीय मानदण्डों के हिसाब से प्रति 10 लाख की जनसंख्या के लिए 50 न्यायाधीश होने चाहिए जबकि भारत में यह संख्या 17 है। एक तरफ भारतीय कानून समाज के कमजोर वर्ग के लोगों को निःशुल्क और योग्य कानूनी सहायता की गारण्टी देते हैं, जबकि वास्तविकता यह है कि सम्पन्न वर्ग भी अपने विवादों में विधिवत निर्णय प्राप्त करने के लिए कई वर्षों का तनाव झेलने के लिए मजबूर हो जाते हैं।
मुकदमों के बढ़ते बोझ का दूसरा मुख्य कारण है निरर्थक, निराधार और झूठी मुकदमेंबाजी। ऐसे मुकदमों में विवेकशील न्यायाधीश यदि प्रथम अवस्था में ही गम्भीरता से देखने, सुनने और समझने का प्रयास करें तो एक या दो तिथियों में ही ऐसे अनेकों मुकदमें को रद्द करके याचिकाकर्ताओं को बाहर का रास्ता दिखाया जा सकता है। राज्यों के उच्च न्यायालयों तथा भारत के सर्वोच्च न्यायालय में मुकदमा प्रस्तुत होते ही गम्भीरता पूर्वक सुनवाई करने के बाद विपक्ष को नोटिस जारी किया जाता है। इस प्रकार कमजोर मुकदमें प्रथम अवस्था में ही रद्द हो जाते हैं, केवल तथ्यात्मक या कानूनी व्याख्या के मतभेदों पर ही नोटिस जारी करके विपक्ष को आमंत्रित किया जाता है और जवाब आदि की प्रक्रिया के बाद विस्तृत सुनवाई और निर्णय की अवस्था आती है।
जिला स्तर के न्यायालयों में अक्सर यह देखा गया है कि प्रथम अवस्था में मुकदमों की गम्भीर सुनवाई नहीं होती। जिसका परिणाम यह होता है कि मुकदमा अदालत में दाखिल होते ही विपक्षी पार्टियों को नोटिस जारी कर दिया जाता है। नोटिस मिलने पर उन्हें वकील नियुक्त करना पड़ता है। वकील विपक्षी पार्टी की तरफ से जवाब तैयार करके मुकदमें को झुठलाने का प्रयास करता है। याचिकाकर्ता से जवाब का जवाब मांगा जाता है। दोनों पक्षों से अपने-अपने दस्तावेज दाखिल करने के लिए कहा जाता है। उन दस्तावेजों पर सामने वाले पक्ष से स्वीकृति या अस्वीकृति कराई जाती है। इस लम्बी प्रक्रिया के बाद न्यायाधीश विवादित मुद्दों का निर्धारण करता है तथा साथ ही यह भी लिखा जाता है कि किस मुद्दे को सिद्ध करने की जिम्मेदारी किस पक्ष की है। इस सारी औपचारिक प्रक्रिया में न्यूनतम एक से दो वर्ष का समय लगता है और इसके बाद मुकदमें की विधिवत कानूनी प्रक्रिया प्रारम्भ होती है जिसमें पहले याचिकाकर्ता और फिर प्रतिपक्ष को अपने-अपने गवाह प्रस्तुत करने का अवसर दिया जाता है। गवाहियाँ प्रस्तुत करने की प्रक्रिया दो से तीन वर्ष व्यतीत कर देती है। अन्त में मुकदमें की विस्तृत सुनवाई में सभी तथ्यों, गवाहियों तथा सम्बन्धित कानूनों पर बहस होती है और न्यायाधीश के निर्णय का अवसर आता है। कुछ विवेकशील और गम्भीर न्यायाधीश इन सारे कार्यों को दो से तीन वर्ष तक भी निपटा देते हैं, परन्तु अक्सर इसमें 4-5 वर्ष या उससे भी अधिक समय व्यतीत हो जाता है। अन्त में यदि न्यायाधीश इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि याचिकाकर्ता का मुकदमा पूरी तरह से निराधार और झूठा था तो न्यायाधीश के पास यह अधिकार होता है कि वह उस पर झूठे मुकदमें की कार्यवाही प्रारम्भ करने का विचार व्यक्त करे, परन्तु भारतीय न्याय व्यवस्था में अभी तक ऐसे अधिकारों का प्रयोग करते हुए कम ही न्यायाधीश दिखाई देते हैं। वैसे बिल्कुल निरर्थक और झूठे मुकदमों का निर्णय प्रथम अवस्था में भी हो सकता है, परन्तु अक्सर ऐसा नहीं होता। ऐसे निराधार मुकदमों के कारण अदालतों का समय व्यर्थ होता है, विपक्षी पार्टी को बिना किसी दोष के वकीलों की फीस के रूप में हजारों-लाखों रुपये खर्च करने पड़ते हैं, मुकदमें की हर तिथि पर उपस्थित रहने के लिए न्यूनतम एक व्यक्ति की दिनचर्या को समायोजित करना पड़ता है और मुकदमें की पूरी अवधि तक विपक्षी पार्टी के एक सदस्य को ही नहीं अपितु कभी-कभी पूरे परिवार को मानसिक तनाव झेलना पड़ता है।
ऐसी निरर्थक और झूठी मुकदमेंबाजी में भी यदि निचली अदालतों के द्वारा गलत निर्णय हो जाये तो निर्दोष प्रतिपक्ष को उच्च न्यायालयों तक मुकदमेंबाजी का खर्च और तनाव झेलना पड़ता है। निरर्थक और झूठी मुकदमेंबाजी को प्रथम अवस्था में ही समाप्त करके न्याय व्यवस्था पर मुकदमें के बोझ को काफी कम किया जा सकता है। नीदरलैंड में मुकदमें की शुरुआत अदालत से नहीं होती अपितु याचिकाकर्ता और विपक्षी पार्टी के निर्धारित वकील परस्पर मिलकर ईमानदारी से एक संयुक्त विवरण रूपी निर्णय तैयार करते हैं। उन वकीलों का निर्णय जिस पक्ष को स्वीकार्य न हो, वह पक्ष अदालत का द्वार खटखटाता है। इस प्रकार अदालत के पास मुकदमें की शुरुआत के समय दो वकीलों का संयुक्त विचार उपलब्ध होता है। न्यायाधीश को ऐसे संयुक्त विचार के आधार पर अदालत की प्रक्रिया चलाने में बहुत कम समय लगता है। ऐसी न्यायिक प्रक्रिया में वकीलों की न्यायिक ईमानदारी ही मुकदमें का आधार बनती है और एक या दो महीने में प्रथम अदालत का निर्णय भी प्राप्त हो जाता है। इसी प्रक्रिया को यदि भारत में भी वकील समुदाय के माध्यम से लागू कर दिया जाये और भारत के वकील स्वयं को एक न्यायिक और विवेकशील न्यायाधीश की तरह समझकर कार्य करें तो न्यायिक प्रक्रिया से मुकदमों का बोझ बहुत कम हो सकता है। मुकदमों की अवधि भी कम हो सकती है। इसके लिए सरकार को केवल एक वाक्य का प्रावधान घोषित करने की आवश्यकता है कि अदालत में मुकदमा प्रस्तुत होने के समय सभी पक्षों के वकीलों का एक संयुक्त विचार पत्र अदालत के सामने प्रस्तुत किया जाये। केवल इस प्रावधान के सहारे सभी याचिकाकर्ता और प्रतिपक्ष मजबूर हो जायेंगे कि वे अपने-अपने वकीलों को न्यायाधीश मानकर उनसे एक निर्णय प्राप्त करें। वह निर्णय सर्वसम्मत हो या अलग-अलग विचारों के रूप में हो, सभी पक्षों के वकीलों का संयुक्त विचार पत्र ही मुकदमेंबाजी का आधार बने। इस प्रकार अदालत के सामने संक्षिप्त प्रक्रिया से मुकदमें के तथ्यों और कानूनों को ध्यान में रखकर निर्णय करने में आसानी हो सकती है।

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