संपादकीय

आइए ब्रह्मांड के कण-कण से कुछ सीखें

-सुनील कुमार महला
फ्रीलांस राइटर, कालमिस्ट व युवा साहित्यकार (उत्तराखंड)

आदमी को यह चाहिए कि वह इस ब्रह्मांड के कण-कण से शिक्षा ग्रहण करे।इस संपूर्ण ब्रह्मांड में शिक्षा लेने के लिए बहुत कुछ विद्यमान है। आदमी यदि चाहें तो वह इस जगत के कण-कण से शिक्षा ग्रहण कर सकता है और अपने जीवन को बेहतरीन बना सकता है। प्रकृति की हर छोटी-बड़ी चीज हमें कुछ न कुछ अवश्य सिखाती है और हमारा मार्गदर्शन करती है लेकिन जरूरत इस बात की है कि हम प्रकृति की हर छोटी-बड़ी चीज को ध्यान से देखें और उससे कुछ सीखें। जैसे कि हम पहाड़ों को देखते हैं, चट्टानों को देखते हैं तो हम इनसे सीखे ले सकते हैं कि हमारे इरादे चट्टानों की तरह मजबूत और दृढ़ हों। हम फूलों से यह सीख ले सकते हैं कि हमें जीवन में हर कहीं अपने कर्मों से महक , खुशबू और कोमलता बिखेरनी है। हमें दूसरों के जीवन को आनंदित करना है, खुशियों को फूलों की खुशबू की तरह हर कहीं बिखेरना है। प्रकृति हमें सिखाती है कि हमें सर्वथा त्याग कर,सबका हित करते हुए जीवन में आगे बढ़ना है। किसी को दुख देकर, किसी को कष्ट पहुंचाकर हम कभी भी जीवन में आगे नहीं बढ़ सकते हैं। हमें सकारात्मक ऊर्जा के साथ दूसरों की भलाई, अच्छाई के लिए काम करना है। दूसरों के आनंद में हमें भी खुशियां खोजनी हैं। याद रखिए कि नदी अपने शीतल व स्वच्छ जल से,वृक्ष अपने फलों व शीतल छाया से, बादल रिमझिम बारिश की फुहारों से सदैव परोपकार का कार्य करते हैं और परोपकार ही तो असली जीवन है। जीवन का असली आनंद परोपकार में ही तो है। अपने लिए तो सभी जीते हैं लेकिन जो दूसरों के लिए जीते हैं वह सच्चे मानव हैं। ईश्वर या परमात्मा इस ब्रह्मांड के कण-कण में मौजूद है, व्याप्त है, जरूरत है तो बस उसे सच्चे मन व आत्मा से महसूस करने की। सबके भीतर मौजूद आत्मा भी तो परमात्मा का ही एक अंश है। आदमी को यह चाहिए कि वह अपने घर परिवार, समाज व राष्ट्र के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करता रहे और ईश्वर का ध्यान भी करता रहे। वह जिम्मेदारियों में इतना आसक्त नहीं हो जाए कि परम पिता परमेश्वर या ईश्वर को ही भूल जाए। निष्काम भाव से मानव मात्र की सेवा से ही हमारे जीवन में निखार आता है। सेवा ही सबसे बड़ा धर्म है और सेवा से बढ़कर देखा जाए तो कुछ है ही नहीं। सेवाभाव तभी संभव है जब हम जीवन में विनम्रता को अपनायेंगे। जो विनम्र हैं, जो जीवन में झुकना जानता है,वहीं जीवन में सफल है। प्रकृति के कण-कण से यदि हमें शिक्षा ग्रहण करनी है तो हमें विनम्र होना पड़ेगा, क्यों कि जो विनम्र है, वही ग्रहण करने की क्षमता रखता है। विनम्र वहीं हो सकता है जो अहंकारी नहीं है। अहंकार तो मनुष्य का दुश्मन है जो सबकुछ बर्बाद कर देता है। विनम्र बनने के लिए हमें अहंकार से सर्वथा दूर रहना होगा। याद रखिए कि आंधियों से बचना है तो हमें छोटा पौधा बनना ही होगा। बड़े पेड़ हमेशा आंधियों में उखड़ कर गिर जाते हैं क्यों कि विनम्रता का अभाव होता है, अहंकार होता है कि वे बड़े हैं और आंधी बारिश तूफान उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते जबकि छोटे पौधे विनम्रता धारण किए होते हैं, इसीलिए आंधियों, तूफानों से बच पाते हैं। आदमी को जीवन में विनम्रता की मिठास की जरूरत है और यही मिठास उसके जीवन में खुशियां बिखेरती है, आनंद बिखेरती है। आदमी की यह प्रवृत्ति है कि वह जीवन में हमेशा मिठास का इंतजार करता है लेकिन मिठास अपने आप नहीं आती, उसे अपने कर्मों से, मन और वचन से प्राप्त करना होता है। वास्तव में ‘प्रकृति हमारी श्रेष्ठतम शिक्षक है। प्रकृति के प्रत्येक घटक और कृत्य, नित्य हमें कुछ न कुछ सिखाते रहते हैं।’ पवित्र बाईबिल कहती है – ‘पशुओं से पूछो वे तुम्हें सिखाएंगे, आकाश के पक्षी भी तुम्हें बताएंगे, धरती में उगी झाड़ियाँ तुम्हें सिखाएंगी, समुद्र की मछलियां तुम्हें सब कुछ वर्णन करेंगी।’

(आर्टिकल का उद्देश्य किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं है।)

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