संपादकीय

नागरिकता कानून के विरुद्ध माइकल जेरिया का दखल तर्कहीन

-विमल वधावन योगाचार्य,
एडवोकेट (सुप्रीम कोर्ट)

नागरिकता कानून को लेकर सारे देश में हाहाकार मचा हुआ है। भारत के मुसलमानों को कांग्रेस तथा अन्य विपक्षी दलों का भरपूर समर्थन मिल रहा है। वैसे भारत के मुसलमान दिग्भ्रमित हैं और उन्हें राजनीतिक दलों के द्वारा बहकाया जा रहा है। भारत के मुसलमान इस संशय में हैं कि नागरिकता कानून से उन्हें भारत छोड़ने के लिए विवश किया जा सकता है। जबकि वस्तुस्थिति ऐसी बिल्कुल भी नहीं है। नागरिकता कानून में केवल एक लाइन का संशोधन किया गया है जिसके अनुसार पाकिस्तान, अफगानिस्तान तथा बंगलादेश के उन हिन्दू, सिक्ख, बौद्ध, इसाई और पारसी अल्पसंख्यकों को भारत की नागरिकता मिलेगी जो 31 दिसम्बर, 2014 से पहले भारत में शरणार्थी के रूप में या वैध वीजे के साथ रह रहे हों। ऐसे लोगों की संख्या 5 या 10 हजार से अधिक नहीं है। इस प्रावधान का सीधा अर्थ यह है कि 31 दिसम्बर, 2014 के बाद भारत आने वाले इन विदेशी अल्पसंख्यकों को भी नागरिकता प्राप्त नहीं होगी। वर्ष 2014 में श्री नरेन्द्र मोदी की सरकार बनने से पहले की परिस्थितियों पर संक्षिप्त विचार यही है कि हमारे देश में उग्रवादियों का खुला तांडव देखने को मिलता था। कभी दिल्ली में तो कभी बम्बई में, कभी कलकत्ता तो कभी हैदराबाद, चेन्नई और बंगलौर, भारत में जगह-जगह उग्रवादी बम ब्लास्ट या सीधी गोली-बारी करके बेकसूर लोगों की जान लेने और भारत सरकार को आतंकित करते हुए दिखाई देते थे। जब भी कोई आतंकवादी हमला होता था तो दो या चार आतंकवादियों का गुट अनेकों स्थानीय हमदर्दों की सहायता से कई दिन पूर्व उस पूरे शहर की रेकी करते थे। रेकी का अर्थ होता है शहर के एक-एक हिस्से को नक्शे पर लेकर जनता की आवाजाही आदि का अध्ययन करना। यह सारा कार्य एक-दो दिन में नहीं अपितु कई महीनों में सम्पन्न किया जाता था। बम्बई के ताज होटल में पुलिस तथा अर्द्धसैनिक बलों के साथ दो दिन चली मुटभेड़ में शामिल पाकिस्तानी उग्रवादी कई महीनों से मुम्बई में ही रहकर हर प्रकार की तकनीकी जानकारियाँ इकट्ठी कर रहे थे। यह सारा कार्य निश्चित रूप से स्थानीय हमदर्दों के साथ मिलकर ही किया गया होगा। कोई विदेशी भारत के किसी शहर में आकर दो-चार महीने तभी रह सकता है जब उसे स्थानीय स्तर पर कुछ न कुछ साथी उपलब्ध हों। यह साथी पाकिस्तान के हमदर्द ही हो सकते हैं।
वर्ष 2014 में नरेन्द्र मोदी सरकार बनने के बाद उग्रवादी हमलों पर कड़ी लगाम कस दी गई। एक तरफ पुलिस तन्त्र को मजबूत किया गया तो दूसरी तरफ 500 और 1000 रुपये के पुराने नोटों का प्रचलन बन्द करके नई मुद्रा जारी की गई। आन्तरिक काले धन पर नियंत्रण के अतिरिक्त नोटबन्दी का मुख्य कारण पाकिस्तान में अनिश्चित संख्या में नकली भारतीय नोट छापने के उद्देश्यों को विफल करना भी था। कड़ा शिकंजा कसने के बाद पाकिस्तानी उग्रवादी केवल कश्मीर तक सीमित हो गये। परन्तु कश्मीर में भी उनको कुछ स्थानीय हमदर्दों का समर्थन प्राप्त होता रहा। इसे देखते हुए कश्मीर से अनुच्छेद-370 समाप्त करने का लक्ष्य भी मुख्य रूप से उग्रवाद की समाप्ति पर ही केन्द्रित था। अगस्त 2019 के बाद कश्मीर पहले की अपेक्षा शान्त दिखाई दे रहा है। नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी जान हथेली पर लेकर सैनिकों की भांति राजनीतिक निर्णय ले रहे हैं। पाकिस्तान को चारों तरफ से करंट लग रहे हैं।
भारत की विपक्षी राजनीति भी अपने भविष्य के प्रति उत्साहहीन होती जा रही है। इन सब हताशाओं के चलते नागरिकता कानून के विरुद्ध बिना किसी वैध तर्क के मुसलमानों को भड़काया जा रहा है। एक तरफ सड़कों पर विरोध तो दूसरी तरफ सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष 150 से भी अधिक याचिकाएँ प्रस्तुत की जा चुकी हैं। संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार आयुक्त माइकल जेरिया ने भी सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अपनी याचिका प्रस्तुत करते हुए कहा है कि भारत के इस कानून से हजारों शरणार्थियों को लाभ होगा, इसका उद्देश्य प्रशंसनीय है, परन्तु साथ ही इस आपत्ति का निस्तारण भी होना चाहिए कि मानवधिकार के अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों के अनुसार किसी शरणार्थी के साथ भेदभाव न किया जाये। इस याचिका का केन्द्रीय विचार यही है कि जब भारत अपने पड़ोसी देशों के हिन्दू, सिक्ख, बौद्ध, यहूदी और पारसी प्रताड़ित लोगों को शरण दे रहा है तो मुस्लिम लोगों को इस लाभ से बाहर रखना न्यायोचित नहीं है। इस याचिकाकर्ता को इस बात का ज्ञान नहीं है कि 2014 से पूर्व पाकिस्तान, बंगलादेश और अफगानिस्तान से जो मुसलमान गैर-कानूनी तरीके से भारत में प्रवेश करते थे, वे अपने देशों के प्रताड़ित नहीं होते थे बल्कि भारत में बमबारी करने वाले उग्रवादी एवं घुसपैठिये होते थे। वे भारत में शरण लेने नहीं अपितु भारत में उग्रवाद फैलाने और तस्करी के लिए आते थे। वैसे सम्भावना यही है कि नागरिकता संशोधन कानून बनने के बाद ऐसे घुसपैठिये और उग्रवादी भारत छोड़कर भाग चुके होंगे या भागने की तैयारी में होंगे। ऐसे उग्रवादी और घुसपैठियों को नागरिकता देना दुनिया के किस प्रशासन की किताब में लिखा है? कोई प्रताड़ित व्यक्ति किसी देश में शरण मांगता है तो उसे अपने देश से प्रताड़ना की परिस्थितियाँ सिद्ध करनी पड़ती है। हिन्दू, सिक्ख आदि सभी अल्पसंख्य लोग इन तीनों देशों में प्रताड़ित थे इसीलिए तो भारत आने पर मजबूर हुए। वर्ष 1947 में पाकिस्तान के गांव-गांव में मंदिर और गुरुद्वारे होते थे आज बहुतायत मंदिर और गुरुद्वारों नष्ट किया जा चुका है। इतना ही नहीं जबरन धर्मान्तरण के द्वारा इन अल्पसंख्यकों की जनसंख्या भी कम की जा चुकी है। इन मजबूरियों पर मानवतावादी उदारता दिखाते हुए वर्ष 2014 तक के शरणार्थियों को नागरिकता दी गई है। दूसरी तरफ किसी अन्य देश के नागरिकों को शरण और नागरिकता देना भारत की कोई अन्तर्राष्ट्रीय ड्यूटी नहीं थी। भारत ने स्वेच्छा से यह उदारता दिखाई है। इस उदारता के साथ भारत अपने नागरिकों की आन्तरिक सुरक्षा को दांव पर नहीं लगा सकता। इसके अतिरिक्त यह भी निश्चित है कि यह तीनों पड़ोसी देश अपने-अपने संविधान में घोषित इस्लामिक देश हैं। इन देशों ने बाहर के किसी अन्य गैर-मुस्लिम व्यक्तियों को अपने यहां शरण देना तो दूर अपने वैधानिक अधिकार प्राप्त नागरिकों की प्रताड़ना को भी नहीं रोका। माइकल जेरिया इन तीनों देशों के सर्वोच्च न्यायालयों में क्यों नहीं पहुँची जिससे इन तीनों देशों में अल्पसंख्यकों की प्रताड़ना को रोका जा सकता? यदि माइकल जेरिया ऐसा करती तो अब तक शहीदों की श्रेणी में होतीं। भारत के सर्वोच्च न्यायालय में रिट् याचिका प्रस्तुत करने का अधिकार केवल भारतीय नागरिकों को ही होता है। माइकल जेरिया का यह कहना है कि वह भारत के सर्वोच्च न्यायालय को इन याचिकाओं का निर्णय करने में सहायता देना चाहती हैं। यह अपने आपमें एक हास्यापद विचार है। किसी भी देश के विद्वान न्यायाधीश अपने देश के आन्तरिक विषयों पर निर्णय लेने में पूर्ण समर्थ होते हैं। हमें पूर्ण विश्वास है कि केन्द्र सरकार वर्ष 2014 से पहले भारत में पनपे उग्रवाद की जड़ों को भी खोदकर समूचे तथ्य सर्वोच्च न्यायालय के सामने अवश्य प्रस्तुत करेगी जिससे एकसूत्रीय बिन्दु निर्धारित हो सके कि 2014 से पहले भारत में पाकिस्तानी उग्रवादी खुले प्रवेश करते थे जबकि इन तीनों देशों के हिन्दू, सिक्ख आदि अल्पसंख्यक अपनी प्रताड़नाओं से बचते हुए, अपनी करोड़ों रुपये की सम्पत्तियों को दांव पर लगाकर भारत में शरण लेने के लिए आते थे। प्रताड़ित व्यक्ति को भारत की नागरिकता देना तो मानवतावाद है। उग्रवादियों को शरण या नागरिकाता देना कहाँ का मानवतावाद है।

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