संपादकीय

राजेन्द्र अवस्थी की कविताएँ

(पुस्तक समीक्षा)

-डॉ. शिवशंकर अवस्थी
महासचिव, ऑथर्स गिल्ड ऑफ इंडिया

मेरे पिताजी डॉ- राजेन्द्र अवस्थी ने अपनी साहित्यिक यात्र का प्रारम्भ एक कवि के रूप में किया था। ये जबलपुर तथा नागपुर के उनके युवा दिन थे। कवि सम्मेलनों में भाग लेना उनकी आदत में शुमार था। नागपुर में वे दैनिक नवभारत में साहित्य संपादक और नागपुर साहित्य सम्मेलन के मंत्री थे तथा कवि सम्मेलनों के संयोजन-संचालन में पारंगत थे। तब वे राजेन्द्र प्रसाद अवस्थी ‘तृषित’ के नाम से लिऽा करते थे। समय बीतता गया और वे राजेन्द्र प्रसाद अवस्थी तृषित से मात्र राजेन्द्र अवस्थी रह गए। यह परिवर्तन अथवा रूपांतरण उनकी गांव और शहर और फिर शहर से महानगर की यात्र का भी संकेतक है। हमारा परिवार नागपुर से बम्बई गया और फिर दिल्ली आकर हम यहां बस गए। पिताजी ने फिर मुड़कर नहीं देऽा। बहुत कम ही ऐसा अवसर आया कि वे नागपुर या जबलपुर गए। शहर से महानगर की उनकी यात्र-प्रक्रिया का प्रभाव उनकी रचनात्मक दृष्टि पर भी पड़ा, पद्य छूटता गया और गद्य उनकी प्राथमिकता हो गया। लेकिन गद्य में भी काव्य की कमनीयता बनी रही। उनका कवि हृदय कभी सुप्त नहीं हुआ, वह जीवंत रहा, वे लिऽते रहे।
प्रकृति चेतना में आस्था की अनुभूति कराती उनकी कविता “गगन वह छुप गया देखो बदरिया छाए हैं” है। इसी क्रम में लो आज मधु मास आया “सुखी शरद में विश्व जब” “पनघट पर” “कितना विकट घना अँधेरा” “जब रजनी की गीली पलकें भर देती झींगुर के स्वर” हार आदि कविताओं में प्रकृति और मानवीय भावों के पारस्परिक संबंधों को उद्घाटित करने का प्रयत्न है। अनेक कविताओं में यथार्थवादी अभिव्यक्ति भी है –
मेरे सोये भाग्य जगा दो, घर में चाहे आग लगा दो
कवि ने अपने किशोर प्रेम को भी अपने काव्य-यात्रा का
विषय बनाया है। कभी अनजान, कभी एक तरफा प्यार
की हिलोरें कवि को इतना विचलित करती हैं कि वह
कुछ ऐसे उद्बोधन को ही सब कुछ मान लेता है
यदि प्रिय तुम इसमें न अपना अपमान समझो
मेरी पूजा स्वीकार न हो, रहने दोए आसुओं से यदि मोह न हो, बहने दो,
सपनों का भव्य भवन ढहने दो,
पर कम से कम दो चार जनों के आगे
तुम मेरे हो-इतना कह दो।
प्रियतम से दूर रहना भी एक व्यथा है और उस व्यथा के
दर्द को उभारती उनकी कविता “स्मृति” है
आज प्रिय से दूर हूँ, न जग में आराम
विधुर सा पढ़ा हूँ, रहते प्रिय धाम।
आज गई और चली गई-
छोड़ मुझे कितनी दूर।
बन गया हाय। उजेला भी –
सघन तिमिर भरपूर॥
उनकी कविताओं का संग्रह आना चाहिए फ्यह आग्रह उनके अनेक आदरणीय मित्रें का रहा है। यही आग्रह मेरे लिए प्रेरणा बना और मैंने उनकी कविताओं की पांडुलिपियाँ ऽोजनी शुरू कीं और कुछ सीमा में उसमें सफल रहा। प्रस्तुत संग्रह उसी प्रयत्न का परिणाम है। राजेन्द्र अवस्थी की काव्य यात्र के कई पड़ाव उनकी रचनाओं में हमने देऽे किन्तु जब अंतिम पड़ाव 1980 के दशक के बाद आता है तो हम पाते हैं कि कवि अपने आसपास की प्रकृति के प्रति आत्मीय रुझान को कम नही कर पाता बल्कि वह तो प्रकृति में होने वाले परिवर्तन की दस्तक से स्वतः को अभिभूत पाता है। रचनाकार प्रकृति के तमाम उतार-चढ़ाव और प्राकृतिक क्रिया-प्रक्रिया में स्वतः को भुला बैठता है कि वह क्या था और क्या हो गया। जीवन के तमाम उतार-चढ़ाव या संघर्ष को वह विस्मृत कर बैठते हैं और मान लेते हैं कि अतीत की विघटनकारी पीड़ाओं से वे मुत्तफ़ हो गए हैं। प्रकृति उन्हें बहुत ही सुकून देती थी। साहित्य में ऐसे संवेदनशील कवि के वास्तविक स्थान को निर्धारित करने का कार्य-कर्तव्य अधिकार समीक्षकों का है।
यहाँ प्रयोजन राजेन्द्र अवस्थी की कविताओं की समीक्षा करने का नहीं है। यह कार्य में सुधी पाठकों व समीक्षकों पर छोड़ता हूँ। मेरे मित्र डॉ विजय शंकर मिश्र, डॉ- संदीप शर्मा और डॉ- उषा दुबे ने इस संकलन को मूर्त रूप देने में बहुत सहायता की है, में उनका धन्यवाद करता हूँ। मैं उत्तराखण्ड संस्कृत विश्विद्यालय की प्रथम महिला कुलपति डॉ- सुधा पाण्डेय और मेरे मित्र डॉ- ललित बिहारी गोस्वामी का भी कृतज्ञतापन करता हैं जिन्होंने इस पुस्तक की शेष पाडुलिपि को पढ़ अशुद्धियों को दूर किया। डायमण्ड बुक्स के नरेंद्र कुमार जी पारिवारिक मित्र है, उन्होने इसे बहुत खूबसूरती से छापा है, उनके उत्साह का मैं हमेशा कायल रहा हूँ, उनका भी बहुत-बहुत धन्यवाद।

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