संपादकीय

सौंदर्यबोध कराती शमा फिरोज की शायरी —

समीक्षा

जितेंद्र ‘ निर्मोही ‘, कोटा
एक दम किसी भी कृति पर समीक्षा करना बड़ा मुश्किल सा काम है परन्तु जब आपके कोई बहुत निकट का व्यक्ति हो तो यह काम बड़ा सरल सा हो जाता है।कल जिस संस्था ने मुझे बुलाया था। उसके संरक्षक जमील कुरेशी सा झालावाड़ के रिश्ते से मेरे बड़े नजदीक है, लेकिन मैं जिनका ममनून हूं जिनका मैं रिश्ते से भी और अदबी हैसियत से बेइंतहा मोहब्बत करता हूं वो है फिरोज सा कितनी ही बार झालावाड़ के इतिहास और साहित्य को लेकर उनसे खूब चर्चा की ,कल भाभी जी ( श्रीमती फिरोज) नशिस्त का शानदार संचालन कर रही थी उन्होंने मुझे पत्रिका ” गूफ्तगू” भेंट की इसमें उनकी ग़ज़लें हैं। समीक्षा के लिए बहुत सारी कृतियां आई पड़ी है उनमें राजस्थानी ज्यादा है। गूफ्तगू को एक ओर डाल दूं तो न जाने कब नंबर आये फिरोज भाई से बहुत ज्यादा लगाव होने से कुछ लिख रहा हूं।
शायरी बिना तखय्युल के नहीं लिखी जा सकती है। इसमें ज्यों ज्यों डूबा जाता है रंग ए हिना पर निखार आता जाता है।शमा फिरोज की शायरी सौंदर्यबोध की शायरी जिसकी नींव मीरो- गालिब ने लिखी । जहां गुलजार कहते हैं- सिर्फ अहसास है तुम रुह से महसूस करो, प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो। शायरी में रुमानियत,रुहानियत,अना सब ही शामिल हैं।शयरी जब उरुज पर होती है तो दर्शन में बदल जाती है। शायरी महबूब से महबूब ए इलाही तक यात्रा है इसलिए शायर कहता है-

एक सनम जिसने तुझे चांद सी सूरत दी है
उसी मालिक ने मुझे भी तो मोहब्बत दी है ।

शमा फिरोज की शायरी में पाकीज़गी है और गहराई भी-

जब मेरे दिल पै तेरी तमलीक सी होने लगी
जिंदगी अब वादी ए तश्फीक सी होने लगी
तार किसने मेरे दिल के खनखनाए दोस्तों
आज़ मेरे दिल में क्यूं तहरीक सी होने लगी

यहां कहन का अंदाजा नया शायरा ने पुराने प्रतीक छोड़कर नया कहने की कोशिश की है ।इस मोहब्बत के सिलसिले में शायरा की अपनी अना है अपना वकार है वो कहती हैं-

बख्शी खुदा ने हमको जमाने की दौलतें
हम जिंदगी को इश्क़ का सामां न कर सके ।
और यहां अना–
जबरन किसी को खुद पे मेहरबां न कर सके
अपना जमीर हम यूं पशेमां न कर सके ।
मोहब्बत का सिलसिला रेसीप्रोकल है ये जरुरी भी है-
तुम करो नजरें करम मुझपे इनायत होगी
आपको भी तो सनम मुझसे मोहब्बत होगी

यहां इल्तिज़ा नहीं है अधिकार है । क्यूं की यह जरूरी भी है—

वफ़ा तुझसे की है हमेशा करुंगी
मुझे बदले में मुझे बस वफ़ा चाहिए ।

इसी साल मैंने” गीत गागर” के महिला विशेषांक की समीक्षा की थी। उसमें उर्दू अदब से जुड़ी महिलाओं की संख्या कम थी।अगर मैं उस अंक से तुलनात्मक अध्ययन करुंगा तो मैं उस अंक की बेहतरीन दो तीन गजलगो में शमा फिरोज को रखना चाहूंगा।वो जो कुछ अलग हटकर कहना चाहती है वो यह है-

इस हंसी चेहरे पे आखिर नातवानी किसलिए
मुस्कराते लब हैं फिर आंखों में पानी किसलिए
इस दौर में वो कुछ नया करना चाहती हैं-
अब यहां दस्तूर कुछ ऐसा चलाया जाएगा
इल्म से महरूम हैं उनको पढ़ाया जाएगा ।

उनका देशप्रेम किस कदर है देखें–

शहीदों को नमन करके उन्हीं के गीत गाएंगे
सभी हम जश्न ए आजादी कयामत तक मनाएंगे

लाजवाब देशभक्ति है उनकी यह देश ऐसे ही लोगों से अमर है , अमिट है।
उनके एक शेर से मैं इस आलेख को विराम देता हूं–

अब नया होगा सवेरा देखना
दीप खुशियों का जलेगा देखना

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