संपादकीय

अपराधों की सजा अवधि निर्धारण के सिद्धान्त

-विमल वधावन योगाचार्य
(एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट)

भारतीय दण्ड संहिता में अनेकों प्रकार के अपराधों को परिभाषित करने के साथ-साथ अधिकतम सजा का प्रावधान घोषित किये गये हैं। चोरी के मामले में तीन वर्ष की अधिकतम सजा निर्धारित है। इसका अर्थ यह हुआ कि चोरी के अपराध में दोषी पाये गये किसी व्यक्ति को न्यायाधीश के द्वारा तीन वर्ष या उससे कम किसी भी अवधि की सजा दी जा सकती है। अब यह न्यायाधीश के विवेक और न्यायिक बुद्धि पर निर्भर करता है कि वह उसे एक दिन की सजा दे या तीन वर्ष की। कुछ अपराधों में न्यूनतम सजा भी निर्धारित है। जैसे बलात्कार के मामले में अधिकतम सजा आजीवन कारावास है, परन्तु दोषी पाये जाने पर किसी भी व्यक्ति को 7 वर्ष से कम सजा नहीं हो सकती। ऐसे मामलों में भी न्यायाधीश का विवेक और न्यायिक बुद्धि ही निर्णय करेगी कि 7 वर्ष से अधिक कितनी सजा अपराधी को दी जाये। कानून में सजा निर्धारित करने से सम्बन्धित किसी प्रकार के मार्ग दर्शक नियम निर्धारित ही नहीं किये गये। इस कमी के कारण जिला स्तर तक की अदालतों में कार्यरत न्यायाधीशों का अधिकार क्षेत्र बहुत विस्तृत और अनियंत्रित दिखाई देता है। जो न्यायाधीश दयावान स्वभाव के होते हैं वे कम से कम अवधि की सजाएं निर्धारित करते हैं। इसके विपरीत जो न्यायाधीश कठोर स्वभाव के होते हैं वे अधिकतम सजा के निकट ही अवधि निर्धारित करते हैं। सर्वोच्च न्यायालय में अनेकों मुकदमें केवल इस प्रार्थना के आधार पर प्रस्तुत होते हैं कि सजा की अवधि बहुत अधिक निर्धारित की गई है। इसके विपरीत कई बार सरकार बहुत कम सजा निर्धारित करने के विरुद्ध भी अपील करने के लिए मजबूर हो जाती है।
केन्द्र सरकार के गृह मंत्रालय द्वारा वर्ष 2003 में गठित एक आपराधिक न्याय व्यवस्था सुधार समिति (मलिमठ समिति) ने अपनी रिपोर्ट में इस बात पर विशेष जोर दिया था कि अपराधों की सजा अवधि निर्धारित करने के लिए कुछ निश्चित दिशा निर्देश बनाये जाने चाहिए। वर्ष 2008 में केन्द्र सरकार की ही ‘माधव मेनन समिति’ ने भी दुबार इसी प्रकार का सुझाव दिया। वर्ष 2010 में भी केन्द्र सरकार ने कहा कि अमेरिका और इंग्लैण्ड जैसी व्यवस्थाओं का अनुकरण करते हुए सजा अवधियों को निर्धारित करने के लिए कुछ दिशा निर्देश तैयार किये जायेंगे।
वर्ष 2008 में सर्वोच्च न्यायालय ने भी पंजाब सरकार बनाम प्रेम सिंह नामक निर्णय में सजा अवधि निर्धारित करने के एक समान दिशा निर्देशों के अभाव पर चिन्ता व्यक्त की थी। वर्ष 2013 के सोमन बनाम केरल सरकार नामक निर्णय में भी सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अपराधी को समुचित सजा देना न्याय व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य होना चाहिए, परन्तु हमारे देश में यह सबसे कमजोर व्यवस्था सिद्ध हो रही है। इस मुकदमें में सर्वोच्च न्यायालय ने किसी भी अपराध की सजा निर्धारित करने के लिए अनेकों सिद्धान्तों का उल्लेख भी किया था। सर्वोच्च न्यायालय के इन सुझावों की एक लम्बी यात्रा फिलहाल 22 अक्टूबर, 2019 को जारी मध्य प्रदेश सरकार बनाम उधम नामक निर्णय तक पहुँच चुकी है जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने सजा निर्धारित करने के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त घोषित किये हैं। इस मुकदमें में अपराधी पक्ष ने पीड़ित पक्ष पर इसलिए हमला किया था कि उसने अपनी गायों को बांधकर क्यों नहीं रखा। इस हमले में लाठियों और कुलाहड़ियों का प्रयोग किया गया जिससे पीड़ित पक्ष को कुछ चोटें आई थीं। अपराधी पक्ष पर दण्ड संहिता की धारा-326 के अन्तर्गत मुकदमों चलाया गया जिसमें आजीवन कारावास या 10 वर्ष की अधिकतम सजा का प्रावधान था। ट्रायल न्यायाधीश ने इस साधारण से मामले में अपराधियों को तीन वर्ष की कड़े कारावास तथा 250 रुपये जुर्माने की सजा सुनाई। अपराधी पक्ष के द्वारा अपील करने पर उच्च न्यायालय ने उनकी सजा केवल गिरफ्तारी के दौरान काटी गई जेल तक ही सीमित कर दी जो केवल 4 दिन थी। उच्च न्यायालय ने जुर्माने की राशि 250 से बढ़ाकर 1500 रुपये कर दी। मध्य प्रदेश सरकार ने इतनी छोटी सजा के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष विशेष अनुमति याचिका प्रस्तुत की। इस मुकदमें पर सर्वोच्च न्यायालय ने सजा निर्धारित करने से सम्बन्धित निचली अदालतों के न्यायाधीशों के विशेषाधिकारों पर गहन चिन्तन किया।
बहुत कम या बहुत अधिक सजा अवधि निर्धारित करने के विरुद्ध अनेकों याचिकाएं सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचती हैं। इसलिए सजा निर्धारित करने के सम्बन्ध में कुछ दिशा निर्देशों को घोषित करना अत्यन्त आवश्यक है। सर्वोच्च न्यायालय के तीन न्यायाधीशों श्री एन.वी. रमन्ना, श्री मोहन एम. शान्तनागौदार तथा श्री अजय रस्तोगी की पीठ ने अपने सर्वसम्मत निर्णय में तीन सिद्धान्तों पर प्रत्येक मुकदमें के परीक्षण की बात कही है। सर्वप्रथम अपराध के तथ्यों का परीक्षण अर्थात् अपराध के लिए कितनी गम्भीर योजना बनाई गई, किस प्रकार के हथियार प्रयोग किये गये, किस तरीके से अपराध किया गया, किस प्रकार से उस अपराध को छुपाने का प्रयास किया गया, अपराधी का समाज में चरित्र तथा पीड़ित की दशा पर ध्यान दिया जाना चाहिए। दूसरे स्तर पर अपराधी के व्यक्तिगत तथ्यों का परीक्षण किया जाना चाहिए जैसे – अपराधी की आयु, लिंग, आर्थिक अवस्था, सामाजिक पृष्ठभूमि, अपराध के लिए पैदा होने वाली उत्तेजना का कारण, उसके बचाव के तरीके, उसकी व्यक्तिगत मनोदशा और विशेष रूप से पीड़ित पक्ष के द्वारा उसे सजा के लिए उकसाने का स्तर। इसके अतिरिक्त अपराधी के सुधार की सम्भावना, उसका पूर्व अपराधिक चरित्र आदि भी आवश्यक रूप से विचारणीय होने चाहिए। तीसरे स्तर पर प्रत्येक अपराध से जुड़ी गम्भीरता का आंकलन भी आवश्यक है। अपराध की गम्भीरता का अनुमान पीड़ित की शारीरिक अवस्था, उसको हुई हानि, उसके मन को लगा धक्का और उसके व्यक्तिगत जीवन की अन्तरंगता को झटके जैसे तथ्यों से लगाया जा सकता है।
उक्त अपराध में तीन दोषी 30 वर्ष की आयु के लगभग थे और एक व्यक्ति 70 वर्ष की आयु का था। मुख्य आरोप तीन युवाओं पर ही थे। इस हमले में इन दोषियों को भी गम्भीर चोटें लगी थी। इस अपराध का कारण यह था कि पीड़ित पक्ष की गायें बार-बार अपराधी पक्ष के घरों में प्रवेश करती थीं। बार-बार शिकायत के बावजूद भी पीड़ित पक्ष अपनी गायों को बांधकर नहीं रखता था। दोषी पाये गये व्यक्तियों का यह पहला अपराध था। इन सब तथ्यों के बावजूद दोषी व्यक्तियों को केवल चार दिन की सजा के बाद मुक्त कर देना न्यायोचित प्रतीत नहीं हुआ तो सर्वोच्च न्यायालय ने तीन युवा दोषियों को तीन महीने तथा 75 हजार रुपये प्रति व्यक्ति जुर्माने की सजा सुनाई। चैथे वृद्ध व्यक्ति को दो महीने के कारावास तथा 50 हजार रुपये के जुर्माने की सजा सुनाई गई।
महाभारत तथा मनुस्मृति जैसे हिन्दू धर्मग्रन्थों में भी किसी अपराध की सजा के दो प्रकार बताये गये हैं। प्रथम, दण्ड के माध्यम से दी गई सजा जो न्यायिक व्यवस्था के द्वारा घोषित की जाती है और द्वितीय, प्रायश्चित के द्वारा जो अपराधी स्वयं अपने लिए घोषित करता है। ट्रायल अदालतों को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा घोषित उपरोक्त तथ्यों की समीक्षा के साथ-साथ इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि सजा का निर्धारण ऐसा हो जिससे अपराधी व्यक्ति दुबारा अपराध करने का प्रयास न कर पाये।

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