संपादकीय

विवाह जैसा धार्मिक कार्य भी ठगी का शिकार

-विमल वधावन योगाचार्य
एडवोकेट (सुप्रीम कोर्ट)

बचपन से ही साधु, सन्त बनने की प्रवृत्ति आदि के कारण अपवाद रूप ही कोई नर-नारी विवाह न करने का संकल्प ले तो अलग बात है अन्यथा विवाह मनुष्य के जीवन का एक अभिन्न अंग है। प्राचीनकाल में विवाहों को लेकर किसी प्रकार के कानून आदि नहीं बनाये जाते थे। विवाह शुद्धतः एक धार्मिक परम्परा मानी जाती थी। उच्चकोटि के धार्मिक जन विवाह क्रिया को सम्पन्न करवाते थे। एक सार्वजनिक समारोह की तरह विवाह सम्पन्न होते थे, इसलिए प्रबल नैतिकता के कारण कोई व्यक्ति विवाह को नकार नहीं सकता था। परन्तु मुगलों और इसाईयों के भारत पर शासन वाले लम्बे काल में भारतवासियों की मूल परम्पराएँ और यहाँ तक कि चरित्र भी दूषित हुआ है।
1872 ई. में सर्वप्रथम ब्रिटिश शासकों ने भारतीय इसाई विवाह कानून लागू किया था। इस कानून का केन्द्रीय बिन्दु यह था कि विवाह करने वाले पुरुष और स्त्री में से किसी एक का इसाई होना अनिवार्य था। इस कानून के द्वारा ब्रिटिश शासकों ने अपने इसाई युवकों और इसाई युवतियों के ऐसे विवाहों को वैध ठहराने का प्रयास किया जो गैर-इसाई युवतियों या युवकों के साथ किये गये थे। इस कानून में ब्रिटिश शासकों ने विवाह की प्रक्रिया भी विस्तार पूर्वक निर्धारित की थी और विवाह करवाने का अधिकार केवल इसाई मत के घोषित पादरियों को ही दिया गया था। इस कानून की आवश्यकता इसलिए पड़ी थी क्योंकि उस समय भारत का बहुमत समुदाय इसाई वर्ग में विवाह को अवैध मानता था। यह समुदाय वैसे तो मुस्लिम वर्ग में विवाह को भी अवैध मानता था, लेकिन ब्रिटिश शासकों ने ऐसे विवाहों को वैध ठहराने के लिए कानून नहीं बनाया।
अलग-अलग पंथों में तो क्या, हिन्दू वर्ग तो अपने ही बीच अलग-अलग जातियों में भी विवाहों को अवैध मानता था। 19वीं शताब्दी के महान राष्ट्रवादी सन्त स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने जब जातिवाद रहित समाज का आह्वान किया और आर्य समाज नामक संगठन का सूत्रपात किया तो अनेकों आर्य समाजियों ने रुढ़िवादी मान्यताओं के विरुद्ध विवाह प्रारम्भ कर दिये। आर्य समाजियों ने विवाह का मुख्य आधार वर और वधु के गुण, कर्म और स्वभाव की समानता को माना, जातियों या धर्मों को नहीं। समाज सुधार का असर इतना फैला कि विधवाओं को भी सती प्रथा और कुदृष्टियों से बचाने के लिए पुनर्विवाह की अनुमति के संघर्ष चलाये गये। आर्य समाज के इस सुधारवादी आन्दोलन के कारण अनेकों विवाह सम्पन्न होने लगे तो रुढ़िवादी लोगों की तरफ से ऐसे विवाहों का विरोध होने लगा, क्योंकि उनकी दृष्टि में ऐसे विवाह अवैध थे। कई अदालतों ने रुढ़िवादी पक्षों को मान्य करते हुए ऐसे विवाहों को अवैध घोषित कर दिया। विवाह को अवैध घोषित करते ही उस विवाह से उत्पन्न सन्तानों की वैधता भी प्रश्नगत हो गई। इन सब विपत्तियों से छुटकारा पाने के लिए आर्य समाज के नेताओं ने आर्य विवाह को मान्यता दिलवाने के लिए कानून बनाने की माँग की। आर्य समाज की सर्वोच्च संस्था सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा के एक पूर्व प्रधान थे श्री घनश्याम सिंह गुप्त जो 1930 के युग में राष्ट्रीय एसेंबली के सदस्य भी थे। उन्होंने संसद में इस आशय का एक बिल प्रस्तुत किया। इसी प्रकार का एक अन्य बिल एक अन्य सांसद चै. मुख्तार सिंह जी ने भी संसद में पेश कर दिया। ब्रिटिश सरकार ने संसद में एक सरकारी बिल भी पेश किया और 1937 में वह कानून पारित हो गया। इस कानून के पारित होते ही यह नियम सामने आ गया कि दो आर्य समाजियों में किया गया विवाह अवैध नहीं होगा, परन्तु न तो आर्य समाजी होने को परिभाषित किया गया और न ही विवाह की प्रक्रिया निर्धारित की गई। विवाह करवाने वाले पुरोहित पंडित की भी कोई योग्यता कानून के दायरे में नहीं आई।
स्वतन्त्रता के बाद वर्ष 1954 में विशेष विवाह कानून बनाया गया जिसमें किसी भी पंथ से सम्बन्धित वर-वधु के विवाहों को मान्यता दी गई। वर्ष 1955 में हिन्दू विवाह कानून भी भारतीय संसद के द्वारा पारित हुआ। स्वतन्त्रता के बाद बने इन कानूनों में विवाह के साथ-साथ तलाक जैसे विषयों को भी कई प्रावधानों सहित शामिल किया गया। परन्तु किसी भी विवाह कानून में विवाह की प्रक्रिया, विवाह स्थल या विवाह करवाने वाले लोगों को लेकर कोई नियम नहीं बनाये गये। यह सब क्रियाएं और अधिकार अलग-अलग मतों और पंथों पर छोड़ दिये गये। हिन्दू पंडित जैसी प्रक्रिया से चाहे विवाह करवाये, सिक्ख लोग अपनी प्रबन्धक कमेटियों के द्वारा बनाई गई प्रक्रियाओं आदि का अनुसरण करें, जैन और बौद्ध आदि भी अपने-अपने धर्माचार्यों की प्रक्रियाओं का अनुसरण करें। इसी प्रकार आर्य समाजियों के द्वारा भी अपने संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के द्वारा निर्धारित विवाह संस्कार पद्धति का अक्षरशः पालन किया जाने लगा। परन्तु पिछले लगभग दो दशकों से यह देखा जा रहा है कि दिल्ली की तीस हजारी अदालत में कुछ चेम्बरों के बाहर ‘आर्य समाज विवाह केन्द्र’ के बोर्ड लगे हुए हैं। क्या किसी वकील का चेम्बर आर्य समाज माना जा सकता है या कोई भी अन्य कमरा आर्य समाज का रूप ले सकता है? क्या केवल कह देने मात्र से किसी को भी आर्य समाजी माना जा सकता है? इन सब कानूनी प्रश्नों को ठेंगा दिखाते हुए दिल्ली के कुछ वकील आर्य समाज की विचारधारा को ही हाईजैक करके ले जा रहे हैं। एक कमरे में रखे हवनकुण्ड में कागज के कुछ टुकड़े डालकर एक-दो मिनट के लिए आग जलाई जाती है और सजे-धजे लड़के-लड़की को सामने खड़े करके एक फोटो क्लिक करने के साथ ही विवाह की प्रक्रिया सम्पन्न हो जाती है। जबकि दूसरी तरफ आर्य समाजी तरीके से विवाह करने का मतलब होता है पूर्व और उत्तर पक्ष मिलाकर कम से कम 2-3 घण्टे का समय। इस प्रक्रिया में अनेकों वेद मंत्रों और उपदेशों के द्वारा वर-वधु के मन में वैवाहिक सम्बन्ध के प्रति गहरी निष्ठा संकल्पों के रूप में प्रतिष्ठित की जाती है। मुस्लिम समुदाय के तीन बार तलाक के उच्चारण रूपी कुप्रथा के मुकाबले आर्य समाज विवाह प्रक्रिया में ध्रुव और अरुंधति दर्शन के नाम पर तीन बार वैवाहिक स्थिरता के संकल्प दिलवाये जाते हैं अर्थात् वर-वधु से यह कहलवाया जाता है कि हमारा विवाह स्थिर रहेगा, स्थिर रहेगा, स्थिर रहेगा। आर्य समाज एक बहुत बड़ा संगठन है और मैं स्वयं वर्ष 2005 तक उस एकीकृत विश्व संगठन सार्वदेशिक सभा का पदाधिकारी रह चुका हूँ। परन्तु वामपंथी विचारों ने इस संगठन में भी सफलतापूर्वक ऐसी तोड़-फोड़ कर डाली है कि आज कोई आर्य पुरुष स्वामी दयानन्द की पवित्र और महान वैदिक मान्यताओं को हाईजैक करने से रोक भी नहीं पा रहा है। ‘आर्य महासंघ’ नामक एक और प्रबल संगठन पूरी ताकत के साथ महर्षि दयानन्द के सिद्धान्तों को अक्षरशः पालन करने की दिशा में अग्रसर तो है, परन्तु विवाह के मामलों में कुछ भ्रष्ट वकीलों के द्वारा किये जा रहे अनैतिक कार्य शायद इनकी दृष्टि में भी नहीं आये। ऐसे अनैतिक आचरण को रोकने के लिए एक बलशाली संगठन की आवश्यकता होती है। वैसे कई बार अदालतों ने भी इन चेम्बर वाले आर्य समाज विवाह केन्द्रों के विवाह प्रमाण पत्रों को रद्द भी किया है। इन परिस्थितियों में पुलिस को भी कार्यवाही करने का पूरा अधिकार है, क्योंकि बिना अधिकार के किसी संस्था के नाम पर विवाह करवाने का छल-कपट करना कानूनी रूप से उचित नहीं माना जा सकता। अब देखना है कि अदालतें या पुलिस विवाह जैसे पवित्र कार्य के साथ अनैतिक खिलवाड़ को रोक पाते हैं या इसके लिए संगठन को अपना बल दिखाना पड़ेगा?

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