संपादकीय

’बॉरिस जॉनसन की जीत के दक्षिणपंथी निहितार्थ’

-डॉ अजय खेमरिया’
नागरिकता संशोधन कानून के शोर-शराबे के बीच एक दूसरी खबर भी भारत में चर्चा का विषय है। ब्रिटिश संसद के चुनाव में बोरिस जॉनसन का प्रधानमंत्री चुना जाना। जॉनसन ब्रिटेन की कंजरवेटिव पार्टी के उम्मीदवार थे उन्होंने निचले सदन की 650 सीटों में से 363 सीट जीतकर लेबर पार्टी के जेरेमी कार्बिन को तगड़ी शिकस्त दी है। भारत के लिये बोरिस जॉनसन का राजनयिक महत्व अपनी जगह मोदी के साथ उनके घोषित रिश्तों को लेकर तो है ही लेकिन इससे बड़ा सवाल भारत के उन बुद्धिजीवियों के लिये बहुत कचोटने वाला है जो वैश्विक दक्षिणपंथी उभार को लेकर प्रयोजित प्रोपेगैंडा चला रहे है। यह नतीजे इस चिन्हित वर्ग के लिए किसी सदमे से कम नही है क्योंकि एशियाई मूल के लगभग सभी मोदी विरोधियों ने ब्रिटिश चुनाव में बोरिस जॉनसन को मोदी और हिंदुत्व के प्रति उनकी उदारता को आधार बनाकर सभी प्रचार माध्यमों में अपनी प्रभावी उपस्थिति दर्ज करा रखी थी। ब्रिटिश समाज मे पाकिस्तानी मूल के नागरिकों का साथ भी मोदी विरोधियों को यहां भरपूर मिला हुआ था। लेबर पार्टी के भारत विरोधी रुख का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है 15 अगस्त को हजारों पाकिस्तानी मूल के लोगों ने भारतीय हाईकमिश्नर के सामने कश्मीर में 370 हटाये जाने के विरोध में जबरदस्त प्रदर्शन किया था।इस प्रदर्शन को लेबर पार्टी ने अपना समर्थन दिया था। सितंबर में आयोजित लेबर पार्टी की एक बैठक में बकायदा प्रस्ताव पारित कर कश्मीर में अंतर्राष्ट्रीय हस्तक्षेप की मांग भी मुस्लिम कट्टरपंथी वर्ग और लंदन के मेयर सादिक खान के दबाब में की गई। दूसरी तरफ राष्ट्रीय स्वयंसेवकसंघ की ब्रिटिश इकाई के कार्यकर्ताओं और समर्थकों ने भी बॉरिस जॉनसन के समर्थन मोर्चा संभाल रखा था। ब्रिटिश संसद के चुनाव में करीब16 लाख भारतीय मूल के मतदाताओं ने खुलकर बोरिस जॉनसन का साथ दिया। घर घर मोदी की तर्ज पर करीब 183 संसदीय क्षेत्रों में फैले 2.5 फीसदी एनआरआई के बीच जॉनसन के लिए अभियान चलाया गया। ब्रिटेन की 15 सीटों पर 40 फीसदी, 46 सीट पर 20 फीसदी और 122 सीटों पर 10 फीसदी से ज्यादा भारतीय मूल के मतदाताओं की मौजूदगी है। कंजरवेटिव पार्टी ने 25 एनआरआई को टिकट भी दी थी जिनमें से 7 जीतकर भी आये है।चुनाव अभियान के दौरान बोरिस जॉनसन दो बार वहाँ के हिन्दू मंदिरों में पूजा करने भी गए और उन्होंने खुलकर मोदी को अपना मित्र बताया। नतीजों से साफ है कि ब्रिटेन में भी मोदी का प्रभाव राजनीतिक रूप से मजबूत हुआ है। 363 सीटों के साथ कंजरवेटिव पार्टी की जीत से वामपंथी और मोदी विरोधी तबके को बड़ा झटका लगा है। चुनावी नतीजों के बाद मीडिया का एक वर्ग इसे दुनिया में दक्षिणपंथी उभार के खतरे के रूप में निरूपित करने की कोशिश करने में जुटा है। सवाल भारतीय परिप्रेक्ष्य में इसलिये महत्वपूर्ण है क्योंकि मोदी और हिंदुत्व के विरुद्ध अभियान की बीज भूमि कहीं और नही भारत ही है। मोदी भारतीय राजनीति के ऐसे अकेले शख्स है जिनके विरुद्ध प्रतिक्रियावादी मानसिकता से एक सुनियोजित घृणित अभियान पिछले 15 सालों से अपने चरम पर है। इसमें वामपंथी बुद्धिजीवियों पत्रकारों, राजनीतिक विचारकों की भूमिका प्रमुख है। लोकतांत्रिक मूल्यों और बहुलता की बात करने वाले लोग यह मानने के लिए अभी भी तैयार नही है कि मोदी भारत की विहित संसदीय प्रक्रिया से दो बार चुनकर आये है लेकिन एक बड़ा बौद्धिक वर्ग जो भारत में सत्ता पोषित रहा है इस तथ्य को स्वीकार करने तैयार नही है। वेटिकन और पेट्रो डॉलर से भी प्रायोजित इस तबके ने 70 साल तक हिन्दू जीवन शैली और मानबिन्दुओं को अपमानित और निम्नतम साबित करने में कोई कमी नही छोड़ी है। वैश्विक स्तर पर इस संगठित गिरोह के लिए नए भारत का उदय और मिजाज असल में अकल्पनीय ही है क्योंकि बौद्धिक, कला, साहित्य, विश्वविद्यालय, पत्रकारिता, शिक्षा, संस्कृति सभी क्षेत्रों में इस वामी वर्ग का एकाधिकार रहा है। 2014 के बाद से बदली राजनीतिक सामाजिक परिस्थितियों ने जिस नए भारत का अभ्युदय किया है वहां अब हिंदुत्व के प्रति गौरव भाव स्थापित हुआ है सनातन मानबिन्दुओं को लेकर कोई रक्षात्मक मनोविज्ञान नही है लोग अपनी हजारों साल की अस्मिता पर मुखर हो रहे है इसलिए ये चिन्हित वर्ग अपनी स्थापित दुकानों से बेदखल हो रहा है। जेएनयू जैसे टापू ही इसे अब ऊर्जा दे रहे है चूंकि पत्रकारिता, इतिहास लेखन, कला, संस्कृति के क्षेत्रों में इनकी जड़ें 70 साल पुरानी है इसलिए इनके विमर्श को अभी सिरे से खारिज करना संभव नही है।
नागरिकता संशोधन बिल,अयोध्या निर्णय, 370,नई शिक्षा नीति,एनआरसी,जैसे मामलों में भारतीय जनमानस की स्पष्ट सोच ने साबित कर दिया है कि भारत में अब अल्पसंख्यकवाद या तुष्टिकरण की नीतियां थोप कर स्वीकार नही होंगी।
ब्रिटिश संसदीय चुनाव के आलोक में इस नए भारत के अभ्युदय को भी विश्लेषित किए जाने की जरूरत है। क्योंकि जिस अतिशय प्रलाप के साथ बोरिस जॉनसन की खिलाफत मोदी के नाम पर की गई है उसके बाबजूद लेबर पार्टी की करारी हार के निहितार्थ बहुत गहरे है। लोकतंत्र, बहुलतावाद, साझा संस्कृति के नाम पर भारत की उस पहचान को कमतर स्वीकार करने के लिए हिन्दू तन मन अब तैयार नही है।
सवाल यह है कि क्या बोरिस जॉनसन के जरिये एक बार फिर मोदी ब्रांड भारत की जनस्वीकार्यता पर मोहर लग रही है? क्या नए भारत का विचार वैश्विक स्तर पर भी अपनी ताकत को स्वयंसिद्ध कर रहा है? जबाब इसलिये हां में है क्योंकि भारतीयता का विचार जिस मौलिक रूप में सर्वग्राही और बहुलतामूलक है उसे इन 70 वर्षों में बहुत ही विकृत रूप में हमारे सामने परोसा गया। भारतीय लोकजीवन ने भी इसे लंबे अरसे तक अपनी राजनीतिक सामाजिक संस्थाओं के जरिये स्वीकार किया लेकिन इस थोपी गई विकृत सेक्यूलर परिभाषा को आज का नया भारत स्वीकार करने के लिये तैयार नही है। बोरिस जॉनसन को प्रतीकात्मक रूप से इसी निहितार्थ में समझने की जरूरत है। ये दक्षिणपंथ की जीत नही है बल्कि यह नकली सेक्युलरिज्म की करारी शिकस्त है भारत के बाहर।

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