संपादकीय

प्रदूषण की खिलाफत बने देश की संस्कृति

-विमल वधावन योगाचार्य
(एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट)

आधुनिक युग का मानव कई प्रकार के प्रदूषणों की मार झेल रहा है। परन्तु हैरानगी का विषय यह है कि व्यक्ति ने खुद ही अपनी बेकाबू गति से बढ़ती आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ईश्वर द्वारा बनाई हरी-भरी वसुन्धरा को एक भयंकर रोग पैदा करने वाले गैस चेम्बर के रूप में परिवर्तित कर दिया है। लोग भिन्न-भिन्न प्रकार से पर्यावरण को प्रदूषित करते रहें और सरकारें लगातार पर्यावरण की रक्षा में करोड़ों रुपया खर्च करती रहें फिर भी प्रदूषणों से बचने के उपाय नहीं ढूंढ़े जा सकते। भूमि, वायु और जल के रूप में तीन महत्त्वपूर्ण तत्त्व व्यक्ति के अस्तित्त्व के साथ जुड़े हैं, परन्तु व्यक्ति अपनी सुख-सुविधाओं की दौड़ में इतना अन्धा हो चुका है कि इन तीनों तत्त्वों को लगातार प्रदूषित करता चला जा रहा है। विडम्बना यह है कि दोष सरकारों के सिर पर लगा दिया जाता है। प्रकृति के साथ यदि सुखद जीवन जीना है तो पहला दायित्व जीवन जीने की इच्छा रखने वाले व्यक्ति का ही होगा। इसमें कोई सन्देह नहीं कि सरकारों का दायित्व भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। जो व्यक्ति या उद्योग पर्यावरण को प्रदूषित करते दिखाई दें उन्हें दण्डित करना और रोकना सरकारों का ही काम है। केन्द्र सरकार ने इसीलिए राष्ट्रीय हरित अधिकरण का गठन किया जिसकी जिम्मेदारी है कि पर्यावरण प्रदूषण की घटनाओं पर नजर रखे और दोषी व्यक्तियों को दण्डित करने के निर्णय दे।
राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एन.जी.टी.) ने अनेकों छोटी-बड़ी घटनाओं का परीक्षण किया और निर्णय दिये, परन्तु प्रदूषणों की समस्या पर कोई विशेष नियंत्रण स्थापित नहीं हो पाया। एन.जी.टी. ने घर-घर पानी की शुद्धता के लिए आर.ओ. तकनीक के प्रयोग पर सुनवाई के बाद यह पाया कि इस तकनीक में जल के अनेकों महत्त्वपूर्ण तत्त्व समाप्त हो जाते हैं। उससे भी बड़ा दोष यह था कि 100 लीटर जल को शुद्ध करने के बाद 20 लीटर जल शुद्ध प्राप्त होता है जबकि 80 प्रतिशत जल बेकार चला जाता है। एन.जी.टी. ने कहा कि जिन शहरों में नगर निगम जैसी संस्थाओं के द्वारा पाईप के माध्यम से घर-घर जल की आपूर्ति पहुँचाई जाती है वहाँ आर.ओ. के प्रयोग की आवश्यकता नहीं है। सरकारों को यह निर्देश दिये गये कि आर.ओ. के प्रति जनता को सजग करें और दूसरी तरफ आर.ओ. के प्रयोग से बेकार जाने वाले जल को पुनः प्रयोग की तकनीके लागू की जाये।
शहरों में दूध की डेरियाँ स्थापित करने के विरुद्ध सरकारों को निर्देश दिये गये। सभी राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों को कहा गया कि गन्दगी को घर-घर से इकट्ठा करने की योजनाएँ लागू की जायें। प्रत्येक राज्य को एक-एक आदर्श शहर, आदर्श नगर तथा आदर्श गांव विकसित करने के निर्देश दिये गये हैं जहाँ सड़कें तथा गलियाँ पूरी तरह गन्दगी से मुक्त हों। छोटी-बड़ी नदियों से अवैध रेत निकालने के कारण जल प्रदूषण के अतिरिक्त पुलों का कमजोर होना, नदियों के जल में नमक की मात्रा का बढ़ना और जल में रहने वाले जीव तत्त्वों को खतरा पैदा होने जैसी अनेक समस्याओं का सामना उन्हीं मनुष्यों को करना पड़ता है जिनके लिए अवैध रेत निकाली जाती है। सरकारों को अवैध रेत खनन के विरुद्ध कई बार निर्देश जारी किये गये परन्तु भ्रष्टाचार के कारण कभी कोई ठोस कार्यवाही नहीं की जा सकी। पश्चिम बंगाल से लेकर महाराष्ट्र तक और जम्मू कश्मीर, पंजाब, हरियाणा से लेकर कर्नाटक और आन्ध्र प्रदेश तक देश के अनेकों राज्यों में अवैध खनन का कार्य बिना बाधा के चलता जा रहा है।
गंगा नदी हमारी राष्ट्रीय नदी है जिसका सीधा सम्बन्ध हमारे देश की संस्कृति से जुड़ा है। एन.जी.टी. ने गंगा को प्रदूषित करने के विरुद्ध सरकारों को शून्य सहनशीलता के निर्देश दिये। गंगा नदी में रासायनिक पदार्थों को डालने वाली औद्योगिक इकाईयों पर 10 लाख रुपये प्रतिमाह के जुर्माने के निर्देश के बावजूद गंगा का प्रदूषण रूक नहीं पा रहा। यही हालत दमन गंगा से लेकर वापी नदी तक देश की लगभग सभी नदियों में देखने को मिल सकती है।
वर्षा के पानी को एकत्र करने के बारे में सरकारों को यह निर्देश दिये गये हैं कि प्रत्येक सरकारी बिल्डिंग, ग्रुप हाऊसिंग सोसाईटियों, स्कूलों और काॅलेजों में ऐसी व्यवस्थाएँ बनाई जायें। भूमिगत जल को लेकर भी एन.जी.टी. ने सरकारों को निर्देश दिये हैं कि इसका दुरुपयोग हर हालत में रोकना चाहिए। सारे विश्व में जितने भूमिगत जल का उपयोग होता है उसका 25 प्रतिशत उपयोग अकेला भारत करता है। भूमिगत जल के अधिक उपयोग से भविष्य में पीने वाले जल की भारी समस्या पैदा हो सकती है।
वायु के प्रदूषण को लेकर भी एन.जी.टी. ने पिछले 6 वर्षों से केन्द्र सरकार तथा उत्तर भारत की राज्य सरकारों को विशेष रूप से खेती के अवशेष पदार्थ जलाने की प्रक्रिया को रोकने के निर्देश दिये हैं, परन्तु इस सम्बन्ध में भी कोई विशेष सरकारी प्रयास दिखाई नहीं दिये।
समुद्री तटों पर भी जल प्रदूषित होता जा रहा है क्योंकि लोगों के द्वारा कूड़ा फेंकना और उद्योगों के द्वारा रासायनिक अवशेष तथा खेती से उत्पन्न गन्दगी समुद्र देवता की भेंट चढ़ती ही जा रही हैं। इसके लिए भी 10 लाख रुपये प्रति माह जुर्माने के निर्देश एन.जी.टी. द्वारा जारी किये जा चुके हैं। समुद्र तटों से भी भयंकर दशा है रेल मार्गों के आस-पास विशेष रूप से प्रत्येक रेलवे स्टेशन के आगे-पीछे वाले क्षेत्रों की। रेलवे विभाग को भी इस सम्बन्ध में दिये गये अनेकों निर्देश विफल सिद्ध हुए। प्लास्टिक के प्रयोग को रोकने का सरकारी अभियान जोर-शोर से शुरू तो हुआ परन्तु धीरे-धीरे वह भी शान्त होता दिखाई दे रहा है। समुद्रों और नदियों के अतिरिक्त देश के अनेकों शहरों में स्थित छोटे-बड़े लेक तथा प्रत्येक गाँव में दिखाई देने वाले जौहड़ रूपी तालाब गन्दगी से भरे दिखाई देते हैं। यहीं से महामारियाँ फैलनी शुरू होती हैं परन्तु स्थानीय सरकारों से लेकर पंचायतों तक किसी को इन सबसे कोई मतलब दिखाई नहीं देता।
एन.जी.टी. ने होटल, रेस्टोरेंट तथा बैंकट हाॅलों से लेकर ढाबों तक के नियंत्रण के लिए निर्देश जारी किये जिनमें वर्षा के जल को एकत्र करने, ध्वनि प्रदूषण को कम रखने, अवैध पार्किंग तथा अवैध निर्माण तक के विषय शामिल थे परन्तु भ्रष्टाचार की मजबूत जड़ें इन सब निर्देशों के पालन पर स्थगन आदेश लगा देती हैं। हमारे देश में हर प्रकार का प्रदूषण विद्यमान है। इन सबकी जिम्मेदारी जागृत और सुषुप्त सभी नागरिकों पर है। जब तक सोये हुए नागरिक जागेंगे नहीं और जागे हुए नागरिक कमर कसकर इन प्रदूषणों के विरुद्ध अभियान नहीं छेंड़ेंगे तब तक एन.जी.टी. जैसी संस्थाओं के निर्देश लागू नहीं हो पायेंगे। प्रकृति से प्रेम और प्रदूषण की खिलाफत को देश की संस्कृति के रूप में विकसित किया जाना चाहिए। यह शुरूआत भी स्कूलों और काॅलेजों के बच्चांे और युवाओं से ही की जा सकती है।

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