संपादकीय

दण्ड संहिता से अधिक प्रभावशाली कर्मफल सिद्धान्त

-विमल वधावन योगाचार्य
एडवोकेट (सुप्रीम कोर्ट
)
धरती पर मनुष्यों ने मिलकर जब समाज का निर्माण किया तो उसमें भी अपनी-अपनी बुद्धि, योग्यताओं और सबकी अपेक्षाओं के अनुरूप एक कर्मफल व्यवस्था निर्धारित की गई जिसका वर्तमान नाम है भारतीय दण्ड संहिता। इससे पूर्व किसी भी व्यक्ति को उसके किसी बुरे कर्म का फल देने के लिए समाज पूरी तरह बड़े बुजुर्गों और गाँव के सरपंचों पर निर्भर था। उस समय निर्णय विशुद्ध रूप से नैतिक सिद्धान्तों के आधार पर लिये जाते थे। वैसे आधुनिक दण्ड संहिता में शामिल किये गये कानूनों का आधार भी नैतिक ही है।
कानूनों के प्रावधान बनाने तक तो कोई समस्या नहीं है। असली समस्या कानूनों को लागू करने के समय दिखाई देती है। कानूनों को लागू करने का प्रथम दायित्व पुलिस व्यवस्था पर है, दूसरा दायित्व न्यायालयों पर है। कानूनों का उल्लंघन करने वाले लोगों के लिए दण्ड भोगने की व्यवस्था जेल प्रशासन के अधीन है। इस प्रकार मानव निर्मित कर्मफल व्यवस्था पुलिस, अदालत और जेल के प्रबन्धन पर निर्भर करती है। इन तीनों व्यवस्थाओं पर करोड़ों, अरबों रुपया खर्च होने के बावजूद आज सामान्य जनता में यह त्राहिमाम मचा हुआ है कि किसी वक्त भी कहीं भी कोई भी व्यक्ति किसी को भी भिन्न-भिन्न प्रकार के अपराधों का शिकार बना सकता है। आधुनिक समाज का प्रत्येक सदस्य कदम-कदम पर डरा हुआ दिखाई देता है कि कहीं वह किसी अपराध का शिकार न हो जाये। जो लोग अपराध के शिकार हो जाते हैं वे उस अपराध की पीड़ा से कभी भी उभर नहीं पाते, क्योंकि अपराधी को दण्ड देने की प्रक्रिया बेशक उनके सामने चलती हुई दिखाई देती है परन्तु उस अपराध से भी अधिक पीड़ा उन्हें उस समय होती है जब अपराधी अदालतों से अपराधमुक्त घोषित हो जाता है। उस समय स्वाभाविक रूप से पीड़ित व्यक्ति को केवल यह कहते हुए संतोष करना पड़ता है कि इस मानवीय कर्मफल व्यवस्था से ऊपर भी एक दिव्य कर्मफल व्यवस्था है जिसका न्यायाधीश पूर्ण न्यायकारी और पक्षपात रहित है। उस न्यायाधीश को किसी प्रकार के प्रमाणों और गवाहों की आवश्यकता नहीं होती।
मानवीय कर्मफल व्यवस्था में अनेकों दोष ढूंढ़े जा सकते हैं, परन्तु ईश्वरीय कर्मफल व्यवस्था में देर अवश्य हो सकती है परन्तु दोष नहीं ढूंढ़े जा सकते। मानवीय कर्मफल व्यवस्थाएँ देश, काल और परिस्थितियों के अनुसार बदलती रहती हैं, जबकि ईश्वरीय कर्मफल व्यवस्था पर किसी देश, काल और परिस्थिति का लेशमात्र भी कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
मानवीय कर्मफल व्यवस्था में कर्मों का फल देने के लिए अन्य अनेकों जीवों की सहायता आवश्यक होती है। जबकि ईश्वरीय कर्मफल व्यवस्था में कर्मों का फल देने के लिए परमात्मा की सर्वोच्च शक्ति स्वयं में ही सक्षम होती है और किसी अन्य जीव का सहारा नहीं लेती। परमात्मा को न तो पुलिसकर्मियों की आवश्यकता है और न ही मानवीय न्यायाधीश की तरह प्रमाणों और गवाहों की। न्यायालयों के माध्यम से संचालित कर्मफल व्यवस्था गवाहों तथा प्रमाणों के आधार पर निर्णय लेती है। यदि गवाह या प्रमाण झूठे हों तो न्यायालय का निर्णय गलत हो जाता है। परन्तु ईश्वरीय कर्मफल व्यवस्था में किसी गवाह या प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती। ईश्वर प्रत्येक जीव के अन्दर विद्यमान होने के कारण उस जीव के बाहरी कर्मों को तो क्या उसके अन्दर उत्पन्न होने वाले विचारों और भावों को भी साक्षात् देखता है। इसलिए ईश्वर जैसे दृष्टा की विद्यमानता में किसी अन्य गवाह या प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती।
मानवीय कर्मफल व्यवस्था में न्यायाधीश पद पर कार्य करने वाला व्यक्ति पक्षपात या लोभ आदि के वशीभूत गलत निर्णय भी दे सकता है परन्तु ईश्वर कर्मफल व्यवस्था का न्यायाधीश परम ब्रह्म किसी भी जीव के साथ पक्षपात नहीं करता। उस सर्वोच्च शक्ति को किसी प्रकार का लोभ भी विचलित नहीं करता।
इस प्रकार हम देखते हैं कि ईश्वरीय कर्मफल व्यवस्था मानवीय कर्मफल व्यवस्था की अपेक्षाकृत पूरी तरह दोष रहित है। इसीलिए जब कभी मानवीय कर्मफल व्यवस्था भी गलत निर्णय देती है तो पीड़ित पक्ष यही सोचकर संतोष करता है कि इस मानवीय कर्मफल व्यवस्था से ऊँची अदालत परमपिता परमात्मा की अदालत है। वहाँ छल, कपट, झूठ और धोखे वाले गवाहों की कोई आवश्यकता नहीं होती। इसलिए परमात्मा की उस सर्वोच्च अदालत से डरो। परमात्मा की उस सर्वोच्च अदालत का नाम है कर्मफल सिद्धान्त है।
परमात्मा के प्रति प्रेम और कर्मफल सिद्धान्त के प्रति जनता को मार्गदर्शन देने के लिए समाज में अनेकों धार्मिक संगठन, धर्मगुरु तथा धर्मग्रन्थ विद्यमान हैं। ईश्वरीय कर्मफल व्यवस्था अपने आप में इतनी सर्वोच्च और सात्विक है कि हर व्यक्ति के मन में प्रत्येक कार्य को करते हुए किसी न किसी रूप में अच्छे या बुरे कर्म की चेतावनी अवश्य ही देती है। शुभ कर्मों को करते समय मन में उत्साह और प्रसन्नता जैसे लक्षणों का संचार होने लगता है। इसके विपरीत अशुभ कर्मों को करने से पूर्व सदैव लज्जा, शंका या भय के रूप में प्रत्येक व्यक्ति को चेतावनी मिलती है। इसके विपरीत मानवीय कर्मफल व्यवस्था आज के युग में ऐसा कोई भी प्रयास करती हुई दिखाई नहीं दे रही जिससे देश के नागरिकों को नैतिकता का पाठ पढ़ाया जा सके। भारतीय दण्ड संहिता में अपराधों और उनकी सजाओं के प्रावधान हैं, जबकि नैतिकता इन कानूनों का सकारात्मक रूप ही है।
बच्चों के मस्तिष्क को कोरा कागज कहा जाता है। उस पर जो भाषा लिख दी जाये वह सारी उम्र छपी रहती है। आज हमारे देश के बच्चे उस कोरे कागज पर फिल्मों से सैक्स और हिंसा जैसे दृश्यों को लिखते जा रहे हैं। इसके विपरीत हमारी सरकारों का यह दायित्व बनता है कि उन कोरे कागजों पर विद्यालयों के शिक्षा कार्यक्रमों के माध्यम से नैतिकता के सिद्धान्त अमिट छाप के साथ लिख दिये जायें। सरकारों के साथ-साथ धार्मिक और सामाजिक संगठनों तथा परिवार के सदस्यों को एक-दूसरे के साथ ईश्वरीय कर्मफल व्यवस्था पर गम्भीर चिन्तन-मनन करना चाहिए।

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