संपादकीय

जनता सब जानती-पहचानती है…

व्यंग्य

-रवि श्रीवास्तव
इशारों ही इशारों में कुर्सियां हिल जाती हैं। बदल जाती हैं। समय इशारों का है। फ्लेट में लोगों को संदिग्ध हलचल दिखलाई दी। बात फैलती है तो जंगल के आग की तरह फैलती चली जाती है। यह ऐसी आग होती है, जो बुझाने से नहीं बुझती। कहते हैं वहां हाई प्रोफाईल किस्म का अनैतिक कार्य होने लगा। कर्मकाण्ड समझने में ही महीनों लग गए। पास-पड़ोस को बात समझ में आई तब तक मामला कानों-कान ठंडा हो गया। संभ्रान्त महिला सवालों के घेरे में रही। कानून के घेरे में नहीं आ सकी। अब वह मंत्रीजी के संग-संग परछाई बनकर डोल रही है। आप हमारे शहर आए! बड़ी कृपा। शहर की कुछ मांगें स्वीकृत हुईं और भी बड़ी कृपा। कुछ मांगों के लिए आश्वासन मिला जो आश्वासन ही बना रह जाता है। शहर की झोली में ऐसे अनेक आश्वासन हैं जिससे एक पूरी माला बनाई जा सकती है। फिर भी कुछ मांगों की तुरन्त स्वीकृति आपकी हैसियत का बोध कराती हैं। इस बार के दौरे में आपका कद कुछ ऊंचा लगा। ये शुभ लक्षण हैं। भविष्य के लिए कुछ अच्छे संकेत। इससे आपका भविष्य संवरेगा या देश का।
फिलहाल यह विचारणीय प्रश्न है। अब मुद्दे की बात हो जाए। आपको पता चला या नहीं चला। शहर में सबको चल गया। एक मक्कार, धूर्त, चालाक और दो नंबरी किस्म के व्यक्ति ने आपके स्वागत में कोई कसर बाकी नहीं रखी। इस पर मुकदमे भी चले रहे हैं। धोखाधड़ी, गुंडागर्दी और अतिक्रमण आदि का। ये जरूर है कि अभी तक कानून के जाल में फंसा नहीं है, घिरा जरूर है। पटाकों की लम्बी लड़ी जो देर तक आवाज करती रही। प्रदूषण फैलाती रही। इसी नेता के सौजन्य से। मुहल्ले में कानफोड़ू बमों का बर्दाश्त से बाहर देर तक धमाका होते रहा, उसके पीछे इसी के चंगू-पंगू लगे रहे। शहर के आमजन से लेकर भद्रजन तक आपको कम देखते रहे। दो नम्बरी के कारनामों को ज्यादा देखते रहे। नई बनी सड़क में गड्ढे खोदकर भव्य स्वागत द्वार बने। इसी की हराम की कमाई से। आपके साथ इसका भी चैखटा गेट पर लटक रहा था।
ताज्जुब है, यह सब आप नहीं देख पाए! हो सकता है आपके चेहरे पर शोभायमान काले चश्मे की वजह से आप बहुत कुछ न देख पाते थे। लोकतंत्र के साथ यही तो दिक्कत है। जो दिखना चाहिए, वह नहीं दिखता। आपके समर्थक खुली आंखों से सब देख रहे थे। संभवतः उनके मुंह बंद कर दिए गए थे। आंखें खुली की खुली की खुली रह गईं। आंखों ने कुछ कहा भी हो तो वह भीड़ में सुनाई नहीं दिया हो। आंखों की भाषा आसानी से समझ में कहां आती है। आपने संक्षिप्त दौरे में मंदिर जाने के लिए भी समय निकाल लिया। निकालना चाहिए इससे धर्मप्राण जनता को सुकून मिलता है। देश की एक बड़ी आबादी सुकून से ही संतुष्ट है। हालांकि ऐसा सुकून देश की सेहत के लिए खतरा है। आप जिस मंदिर में अभिषेक के लिए गए थे या कहें ले जाए गए थे। वह मंदिर आजकल विवादों से घिरा है। मंदिर के ठेकेदारों ने आसपास की कीमती जमीन पर अतिक्रमण कर लिया है। जमीन सार्वजनिक उपयोग की है। अतिक्रमण को तोड़ा जा चुका है। धर्म के ठेकेदार फिर-फिर कब्जा कर लेते हैं। इससे आवागमन बाधित होता है। जनता परेशान होती है। यह सब आपको नहीं दिखा होगा। आप तो मंदिर की डेहरी पर उतरे होंगे। उसके बाद प्रायोजित भक्तों के बीच कुछ दिखलाई देने का सवाल ही नहीं है।
जनता कुछ कहना भी चाहे तो, आवाज पटाकों के शोर में गुम हो जाती है। आप भीतर अभिषेक करते रहे। जनता बाहर रहकर आतिशबाजी का नजारा देखती रही। आपको मंदिर तक घेरकर ले जाने वाला भी वही धूर्त है। जिसकी चर्चा मैं कर चुका। बार-बार चर्चा करके उसे कोई भाव नहीं देना चाहता। आप तो वरिष्ठ हैं। तीन-तीन बार चुनाव जीत चुके हैं। हालांकि तीसरी बार हारते-हारते आखिरी दौर में मुश्किल से चार सौ पैंतालीस वोट से जीत पाए। फिर भी जीत तो जीत होती है। चाहे सिक्का उछलने पर ही जीत क्यों न मिले। चुनाव को फिलहाल दो साल बाकी है। फिर भी आप अपनी राजनीतिक सेहत का ध्यान रखें। समय जाते देर क्या लगती है। बहुमत का जादुई आंकड़ा, अजर-अमर, नहीं होता। उसे जन-अदालत का सामना करना होता है। उस मक्कार चेहरे को ध्यान में रखें। इगात को कौडियों के भाव तक पहुंचने में देर नहीं लगती। महिला व बाल विकास मंत्री दौरे पर आई थीं। दौरा बड़ा चर्चित रहा। इसलिए नहीं कि कोई तीर चलाकर चली गईं। विकास के नाम पर क्षेत्र को कोई बड़ी सौगात मिली हो। दौरा एक महिला की वजह से चर्चित रहा। वह अपने को किसी नेता से कमतर नहीं समझती। जगह बनाने में माहिर। वह मंत्री के गिर्द छाया बनकर मंडराती रही। बार-बार कैमरे में कैद होती रही। यह वही महिला है, जो कुछ दिन पहले चर्चा में आई। कई प्रकार के शक के घेरे में फंसी रही। फंसी तो आज भी है लेकिन कानून की पकड़ से बाहर है। उसका जुगाड़ तगड़ा है। शिखर पुरुष तक। अभी तक तो उसका बाल बांका भी नहीं हो पाया। लेकिन आगे की कौन जान सकता है। अर्श से फर्श तक आने में देर ही कितनी लगती है। भीड़ में उपस्थित महिलाएं चटकारे लेकर बतियाती रहीं। कभी आपको देखतीं, कभी सभ्रान्त महिला को देख-देखकर मुस्कुरातीं।
महिला एक पॉश कालोनी के शानदार और जानदार इमारत के फ्लैट में रहती है। रहने पर भला किसी को कोई आपत्ति कैसे हो सकती है। आपत्ति से तो मानवाधिकार का हनन हो जाएगा। आंय-बांय कुछ भी कहने व करने से काम नहीं चलता। मानवाधिकार का ध्यान रखना भी जरूरी है। लेकिन आसपास, पास-पड़ोस को उसकी गतिविधियां संदिग्ध लगने लगीं। संदिग्ध शब्द का कोई माई-बाप नहीं होता। लगता है तो लगता रहे। शक के घेरे में लोग आते-जाते रहते हैं। शक के घेरे में कैद हो जाना उतना आसान नहीं। फिर महिला का मामला ठहरा। फूंक-फंूक कर कदम उठाना जरूरी। वह भी संभ्रांत महिला। पॉश कालोनी, ऊंची पहुंच, सामाजिक प्रतिष्ठा, शक करना भी सहज नहीं। संदिग्ध को संदिग्ध कहना घोर मुश्किल। खतरे ही खतरे भांपते रहिए खतरे को। इंतजार करते रहो अच्छे दिनों का। आसानी से नहीं आते अच्छे दिन। इमारत में एक फ्लेट खाली हुआ। संभ्रांत महिला के इशारे पर किसी परिचित को किराए पर मिल गया। प्राइम लोकेशन था। कहते हैं लेने वाले अनेक थे। लेकिन इशारा तो इशारा होता है। इशारों ही इशारों में कुर्सियां हिल जाती हैं। बदल जाती हैं। समय इशारों का है। फ्लेट में लोगों को संदिग्ध हलचल दिखलाई दी। बात फैलती है तो जंगल के आग की तरह फैलती चली जाती है। यह ऐसी आग होती है, जो बुझाने से नहीं बुझती। कहते हैं वहां हाई प्रोफाईल किस्म का अनैतिक कार्य होने लगा। कर्मकाण्ड समझने में ही महीनों लग गए। पास-पड़ोस को बात समझ में आई तब तक मामला कानों-कान ठंडा हो गया। संभ्रान्त महिला सवालों के घेरे में रही। कानून के घेरे में नहीं आ सकी। अब वह मंत्रीजी के संग-संग परछाई बनकर डोल रही है। जिसे सब जानते हैं, उससे महिला, मंत्री अनजान है। यह अनजानापन किस काम का। महिला विकास पर ही प्रश्नचिन्ह लग जाता है। लोक उत्तरदायित्व का ज्ञान है, न लोकलाज का। आखिर क्या हो गया है जनप्रतिनिधियों को? चलते समय रास्ते का पत्थर भी नहीं देख पाते। जनता सब देख लेती है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *