संपादकीय

कब बनेगा भिखारी मुक्त भारत

-रमेश सर्राफ धमोरा
स्वतंत्र पत्रकार (झुंझुनू,राजस्थान)

देश में बेरोजगारी की हालत ऐसी है कि बहुत पढ़े लिखे लोग भी भीख मांग रहे हैं। राजस्थान सरकार ने हाल ही में भिखारी उन्मूलन एवं पुनर्वास कानून बनाया है। जिसके तहत जयपुर में भिखारियों का सर्वे शुरू किया गया है। इस सर्वे में पता चला है कि जयपुर शहर में कुछ भिखारी एमए और एमकॉम तक पढ़े हुए हैं तो कुछ बीए और बीकॉम किए हुए हैं। इन भिखारियों का कहना है कि अगर उन्हें कोई काम मिलता है तो वह भीख मांगना छोड़ कर काम करने के लिए तैयार हैं।
राजस्थान के ही गोविंदगढ़ के रहने वाले 34 साल का पवन एमकॉम तक पढ़ने के बाद अजमेर रोड पर भीख मांग रहा हैं। यह एक फैक्ट्री में मजदूरी करता था। लेकिन काम बंद होने की वजह से खाने के लिए चैराहे पर बैठना शुरू कर दिया। शादीशुदा नहीं होने की वजह से कहीं कोई काम के लिए ले जाता है तो चले जाते हैं वरना भीख मांग कर खा लेते हैं।
झुंझुनू जिले के डूंडलोद का रहने वाला 38 साल का अविवाहित मुकेश ने एमए तक पढ़ाई की है। जयपुर शहर में भीख मांग कर जिंदगी गुजर बसर करता है और फुटपाथ पर सोता है। एमकॉम तक पढ़ाई करने वाले जगदीश गुप्ता, ग्रेजुएशन करने वाले रमेश और शैलेश भी जयपुर में भीख मांगकर गुजारा करते हैं। राजस्थान सरकार ने हाल ही में विधानसभा में भिखारी उन्मूलन एवं पुनर्वास बिल पास कर दिया है। राज्य सरकार द्धारा सामाजिक संगठनों के जरिए भिखारियों के लिए पुनर्वास केंद्र बनाए जा रहे हैं।
हमारे घरों में, सार्वजनिक स्थलों, रेल, बसों व धार्मिक स्थलों पर ईश्वर, अल्लाह के नाम पर भीख मांगते बच्चे, बूढ़े, युवा आसानी से देखे जा सकते है जो सरकारों की कल्याणकारी योजनाओं पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं। भीख मांगना आज एक प्रकार का धंधा धंधा बन गया हैं। भिक्षावृत्ति किसी भी सभ्य देश के लिए कलंक है। यह एक सामाजिक बुराई हैं। अब यह लाईलाज गंभीर रोग बनता जा रहा हैं। जहां असहाय,दीन-हीन लोग तो मजबूरी वश भीख मांगने के कार्य में लगे हुये हैं। वहीं शारीरिक दृष्टि से सक्षम कई लोग भी भीख मांग कर अपना गुजारा करते हैं, क्योंकि उन्होने शारीरिक श्रम करने के बजाय भीख मांग कर आसानी से गुजारा करने का रास्ता चुन लिया है।
भिखारी शब्द के स्मरण से ही मन में घृणा का भाव उत्पन्न होने लगता है। भिखारी किसी भी देश व उसके नागरिकों के माथे पर कलंक की तरह होते हैं। आज 21 वीं सदी में जा रहा हमारा देश एक तरफ कम्प्यूटर, इंटरनेट की दिशा में प्रगतिशील है व विकास के बड़े-बड़े दावे कर रहा है वहीं दूसरी तरफ देश में ही एक तबका भीख मांग कर पेट भरता हो यह हम सभी के लिये एक गंभीर चिंतन का विषय है।
भारत में कुछ जनजातीय समुदाय भी अपनी आजीविका के लिये परम्परा के तौर पर भिक्षावृत्ति को अपनाते हैं। लेकिन भीख मांगने वाले सभी लोग इसे ऐच्छिक रूप से नहीं अपनाते। दरअसल गरीबी, भुखमरी तथा आय की असमानताओं के चलते देश में एक वर्ग ऐसा भी है, जिसे भोजन, कपड़ा और आवास जैसी आधारभूत सुविधाएँ भी प्राप्त नहीं हो पातीं। यह वर्ग कई बार मजबूर होकर भीख मांगने का विकल्प अपना लेता है।
भिक्षावृत्ति भारत के माथे पर ऐसा कलंक है जो हमारे आर्थिक तरक्की के दावों को खोखला बनाता है। भीख मांगना कोई सम्मानजनक पेशा नहीं वरन अनैतिक कार्य और सामाजिक अपराध है। सरकार ने इसे कानूनन अपराध घोषित कर रखा हैं। फिर भी यह लाइलाज रोग दिन पर दिन बढ़ता जा रहा हैं। हमारे देश में भिखारियों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं। भारत में कोई भूखा न रहे और भूख के कारण अपराधा न करे, इसीलिए खाद्य सुरक्षा अधिनियम का प्रस्ताव लाया गया था। भीख मांगना सभ्य समाज का लक्षण नहीं है मगर आत्मसम्मान तथा स्वाभिमान जागृत किए बिना इससे किसी को विमुख नहीं किया जा सकता। सरकार को शिक्षा के प्रसार पर बल देना चाहिए। शिक्षा ही व्यक्ति को संस्कारित कर उसे स्वाभिमानी बना सकती है।
भारत के संविधान में भीख मांगने को अपराध कहा गया है। फिर भी देश की सडकों पर लाखों बच्चे आखिर कैसे भीख मांगते हैं ? बच्चों का भीख मांगना केवल अपराध ही नहीं है, बल्कि देश की सामाजिक सुरक्षा के लिए खतरा भी है। हर साल कितने ही बच्चों को भीख मांगने के धंधे में जबरन धकेला जाता है। ऐसे बच्चों के आपराधिक गतिविधियों में लिप्त होने की भी आशंका होती है। पुलिस रिकार्ड के अनुसार देश में हर साल 48 हजार बच्चे गायब होते हैं। उनमें से आधे कभी नहीं मिलते हैं। उन बच्चों में से काफी बच्चे भीख मंगवाने वाले गिरोहों के हाथों में पड़ जाते हैं। हर साल हजारों गायब बच्चे भीख के धंधे में झोंक दिये जाते हैं।
भारत में ज्यादातर बाल भिखारी अपनी मर्जी से भीख नहीं मांगते। वे संगठित माफिया के हाथों की कठपुतली बन जाते हैं। इन बच्चों के हाथों में स्कूल की किताबों की जगह भीख का कटोरा आ जाता है। भारत में भीख माफिया बहुत बड़ा उद्योग है। इससे जुड़े लोगों पर कभी आंच नहीं आती। हमारे देश की सबसे बड़ी प्राथमिकता बाल भिखारियों पर रोक लगाना होनी चाहिए। इसके लिए सामाजिक भागीदारी की जरूरत है। सामाजिक भागीदारी की बदौलत ही केंद्र और राज्यों की सरकारों पर बाल भिखारियों को रोकने के लिए दबाव डाला जा सकेगा। इस दबाव के कारण सरकारें अपने-अपने स्तर पर कार्रवाई करें, तो इस समस्या पर काफी हद तक काबू पाया जा सकता है।
आज देश में भिखारियों को काम में लगाये जाने की आवश्यकता है। और कुछ नहीं तो रोजाना दो वक्त का मुफ्त खाना देकर इन सारे भिखारियों को विभिन्न प्रकार का प्रशिक्षण देकर सरकार के रोजगार परक अभियानों से जोड़ा जाना चाहिए। सरकार द्वारा चलाये जा रहे कौशल विकास कार्यक्रम से भिखारियों को स्वरोजगार परक प्रशिक्षण दिलवाकर इनको रोजगार से जोड़े तो इससे भीख मांगने की प्रवृति पर रोक लग सकती है।
भिखारियों के पुनर्वास के लिए सरकार को प्रयत्नशील रहना चाहिए। सामाजिक चेतना को बढ़ावा देना चाहिए। समाज को जागरूक बनाना चाहिये तभी हम साफ-सुथरा भारत बना सकेगें व भिक्षावृति जैसे अमानवीय कार्य से देश व समाज को छुटकारा दिला पायेंगे। समाज को सरकारी और गैर सरकारी एजेंसियों के साथ मिलकर काम करना होगा। तभी देश में भिखारियों का पुनर्वास कर उन्हे समाज की मुख्य धारा से जोड़ा जा सकेगा।
2018 में सामाजिक कल्याण मंत्री थावरचंद गहलोत ने लोकसभा में एक सवाल के जवाब में बताया था कि देश में कुल 4 लाख 13 हजार 760 भिखारी हैं। जिनमें 2 लाख 21 हजार 673 भिखारी पुरुष और बाकी महिलाएं हैं। भिखारियों की इस सूची पश्चिम बंगाल पहले नंबर पर है। बंगाल में भिखारियों की संख्या सबसे अधिक है और उसके बाद दूसरे स्थान पर है उत्तर प्रदेश और तीसरे पर बिहार है। मगर वास्तविकता में देष में भिखारियों की संख्या इनसे कई गुणा अधिक है।
हाल ही में दिल्ली हाई कोर्ट ने भिक्षावृत्ति को अपराध घोषित करने वाले कानून बॉम्बे प्रिवेंशन ऑफ बेगिंग एक्ट, 1959 की 25 धाराओं को समाप्त कर दिया है। साथ ही भिक्षावृत्ति के अपराधीकरण को असंवैधानिक करार दिया है। बॉम्बे प्रिवेंशन ऑफ बेगिंग एक्ट, 1959 की कुछ धाराओं में फेरबदल कर दिल्ली हाई कोर्ट ने ऐसे गरीब लोगों के जीवन जीने के अधिकार की रक्षा का एक सार्थक प्रयास किया है।

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