न्यायाधीशों की कमी क्यों?
-विमल वधावन योगाचार्य
(एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट)
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश श्री खानविलकर के अनुसार समाज में लगभग 90 प्रतिशत विवाद तो अदालतों तक पहुँचते ही नहीं अर्थात् केवल 10-15 प्रतिशत लोग ही न्याय की आशा में न्याय व्यवस्था का द्वार खटखटाते हैं। विवाद का सामना करने वाली जनसंख्या का इतना बड़ा हिस्सा न्याय व्यवस्था के सामने अपने विवाद पर अपना अधिकार मांगने की बजाय अपने अधिकार को छोड़ने के लिए तैयार रहता है। वैसे तो इसके कई अन्य कारण भी हो सकते हैं जैसे – गरीबी, अज्ञानता और अन्य सामाजिक अयोग्यताएँ, जिसके कारण ऐसा वंचित वर्ग अदालतों तक अपनी पहुँच ही नहीं बना पाता। वैसे इस प्रकार के वंचित समुदाय की सहायता के लिए सारे भारत में कानूनी सहायता अधिकरण कानून 1987 में लागू किया गया था जिसमें गरीब, अनपढ़, दिव्यांग तथा महिलाओं और अन्य वंचित वर्ग को निःशुल्क कानूनी सहायता उपलब्ध कराने के प्रावधान शामिल थे। इस कानून के कारण आज सारे भारत में सर्वोच्च न्यायालय से लेकर जिला अदालतों तक निःशुल्क कानूनी सहायता उपलब्ध कराने के लिए समितियाँ कार्य कर रही हैं। इस निःशुल्क कानूनी सहायता का मुख्य उद्देश्य तो केवल वंचित वर्ग को कानून के खर्च से मुक्ति दिलाना मात्र है क्योंकि इस कार्यक्रम के अन्तर्गत ऐसे लाभार्थियों को वकीलों की सुविधाएँ निःशुल्क उपलब्ध कराई जाती हैं। परन्तु इसके बावजूद यदि 90 प्रतिशत लोग अपने अधिकारों की माँग को लेकर अदालतो में नहीं पहुँच पाते तो उसका मुख्य कारण अदालतों में लगने वाला लम्बा समय जिम्मेदार है। गरीब और मध्यम वर्ग का व्यक्ति अधिकतर रोज कमाओ रोज खाओ के चक्कर में ही फंसा रहता है। इसलिए छोटे-मोटे विवादों को लेकर वह अदालतों में समय व्यर्थ नहीं करना चाहता, क्योंकि इससे उसकी दिनचर्या प्रभावित होती है। भारत की न्याय व्यवस्था में कोई व्यक्ति यह आशा नहीं कर सकता कि उसके विवाद का निपटारा 6 माह या एक वर्ष के भीतर सम्भव होगा। भारतीय न्याय व्यवस्था की प्रत्येक अदालत अपनी क्षमता से अधिक मुकदमों के बोझ से दबी पड़ी है।
सरकारों को यह समझना चाहिए कि मुकदमों के निपटारे में जितना अधिक विलम्ब होता है उतना ही अधिक न्याय व्यवस्था के प्रति लोगों का अविश्वास बढ़ता जाता है। न्याय व्यवस्था के प्रति अविश्वास से हो सकता है सीधा सरकारों या न्यायाधीशों पर कोई प्रभाव न पड़ता हो, परन्तु इस अविश्वास के कारण लोगों में कानूनों के पालन के प्रति भी अरुचि पैदा होनी शुरू हो जाती है। एक सामान्य नागरिक के लिए यह सोचना सरल हो जाता है कि न्याय व्यवस्था से कोई आशा नहीं करनी चाहिए जो करना हो खुद ही प्रबन्ध कर लो। इस प्रकार सामान्य अपराध भी बढ़ते हैं और प्रत्येक नागरिक के लिए भ्रष्टाचारी तरीकों का सहारा लेना आवश्यक हो जाता है।
न्याय व्यवस्था के समक्ष बढ़ते हुए मुकदमों की संख्या के लिए न्यायाधीशों को दोष नहीं दिया जा सकता। विचाराधीन मुकदमों की संख्या कम करने के लिए एक ही मुख्य उपाय सम्भव है – न्यायाधीशों की संख्या में पर्याप्त वृद्धि। भारत के विधि आयोग ने अपनी 245वीं रिपोर्ट में यह स्पष्ट सिफारिश की है कि भारत में न्यायाधीशों की संख्या में 3 से 4 गुना वृद्धि आवश्यक है। ऐसा होने पर ही हम भविष्य में यह सुनिश्चित कर पायेंगे कि नये मुकदमों का निपटारा तीन वर्ष के भीतर सम्भव हो सके।
संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा जारी मानदण्ड के अनुसार प्रत्येक 10 लाख की आबादी पर 50 न्यायाधीश होने चाहिए। वर्ष 1987 में भारत में प्रत्येक 10 लाख की आबादी पर लगभग 10 न्यायाधीश ही थे। इस सम्बन्ध में यदि एक दृष्टि विश्व के कुछ अन्य विकासशील देशों पर डाली जाये तो पता लगता है कि अमेरिका में प्रत्येक 10 लाख की आबादी पर 107 न्यायाधीश हैं, कनाडा में 75, इंग्लैण्ड में 51 और आस्ट्रेलिया में 41 न्यायाधीश हैं। भारत में वर्तमान अनुपात 17 से अधिक का पहुँच चुका है। वास्तविकता तो यह है कि भारत में न्यायाधीशों के पूरे पद इस अनुपात को 20 से अधिक सिद्ध नहीं करते, जबकि वास्तविक न्यायाधीश निर्धारित पदों की संख्या से कम ही हैं।
सभी राज्यों के लिए उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के कुल 1079 पद हैं, जबकि इनमें से लगभग 400 पद आज भी रिक्त हैं। सारे देश की जिला अदालतों तक के निर्धारित पद 20 हजार से कुछ अधिक हैं जबकि वास्तविक न्यायाधीश संख्या 17 हजार के लगभग है। इन आंकड़ों को देखकर यह स्पष्ट है कि विचाराधीन मुकदमों की संख्या कम करने के लिए सरकारों को सबसे पहले तो रिक्त पदों पर योग्य न्यायाधीशों की नियुक्ति करके न्याय व्यवस्था को सम्पन्न करना चाहिए। इसके बाद ही सरकारें यह विचार कर पायेंगी कि न्यायाधीशों के नये पदों की घोषणा की जाये। नये पद घोषित करने के साथ ही सरकारों के सामने एक न्यायाधीश से जुड़ी अन्य व्यवस्था सम्बन्धी प्रबन्धों की समस्या भी सामने आ जाती है। एक आंकलन के अनुसार न्यायाधीश के एक नये पद के लिए अदालत के कक्ष तथा अन्य प्रबन्ध कार्यों पर 3 से 4 करोड़ रुपया खर्च हो सकता है। इस प्रकार यदि 10 हजार नये पदों की रचना भी होती है तो अनुमानतः 30 से 40 हजार करोड़ रुपया तो प्रारम्भिक व्यवस्था का खर्च होगा। न्यायाधीशों के वेतन आदि का खर्च तो लगातार चलने वाला अलग खर्च है। विधि आयोग के अनुसार भारत की जिला अदालतों में वर्तमान 20 हजार के स्थान पर 70 हजार पद घोषित होने चाहिए। इसका सीधा अर्थ होगा कि सर्वप्रथम व्यवस्था प्रबन्धन के लिए 1 लाख 50 हजार करोड़ रुपये जुटाना और उसके बाद न्यायाधीशों के लिए मासिक वेतन की राशि जुटाना। अभी भारत में संयुक्त राष्ट्रसंघ के मानदण्ड तक पहुँचना बहुत दूर का खेल दिखाई दे रहा है।
दूसरी तरफ जर्मनी और सिंगापुर जैसे कुछ देश ऐसे भी हैं जहाँ जनसंख्या के अनुपात में न्यायाधीशों की संख्या बहुत कम होने के बावजूद भी वहाँ विचाराधीन मुकदमों की संख्या अधिक नहीं है। वर्तमान न्यायाधीश पदों के रिक्त स्थानों की पूर्ति करने के साथ-साथ मुकदमों के शीघ्र निपटारे के लिए कुछ कानूनी प्रक्रियाओं में भी आमूल-चूल परिवर्तन करने की आवश्यकता है। जैसे – न्यायाधीशों का समय केवल न्यायिक कार्यों में ही लगे इसके लिए मुकदमा प्रस्तुत करने से लेकर उत्तर-प्रतिउत्तर तक की कार्यवाही गैर-न्यायिक अधिकारियों या सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की नियुक्ति करके उन पर छोड़ी जा सकती है, गलत और झूठे मुकदमें करने वालों के विरुद्ध कड़ी कार्यवाही से भी बेलगाम मुकदमेंबाजी समाप्त हो सकती है।