स्वास्थ्य

आप की नजर शिशु की आंख पर हो

अभिभावकों को शिशु की आंख के रंग पर ही ध्यान नहीं देना चाहिए बल्कि आंख की छोटी से छोटी विषमता का पता लगने पर तुरंत नेत्र विशेषज्ञ के पास जाना चाहिए। किसी भी परिवार में नवजात शिशु का आगमन पूरे परिवार के लिए आनंदमय अवसर होता है। शिशु सबकी आंखों का तारा बन जाता है। इसलिए सबकी आंखें सदैव शिशु पर ही टिकी रहती हैं। लेकिन, अभिभावकों को शिशु की आंखों के रंग पर ही ध्यान नहीं देना चाहिए, बल्कि शिशु की आंख की हर बारीकी पर गौर करना चाहिए, ताकि उसकी आंख की छोटी से छोटी विषमता को भी पहचाना जा सके। आइए जानते हैं कि हम घर पर कैसे जांच कर सकते हैं? जन्म के समय में ही आंख में किसी प्रकार की गड़बड़ी का पता चलते ही नेत्र विशेषज्ञ के पास जाएं। आमतौर पर शिशु की आंखें व्यस्क की अपेक्षा छोटी होती हैं। शिशु की आंखों को व्यस्क की आंखों के बराबर विकसित होने में लगभग दो वर्ष का समय लगता है। नवजात शिशुओं की आंखों में संक्रमण कोई असाधरण बात नहीं है। पैदा होने से लेकर तीन सप्ताह तक शिशु नियोनैटल कंजक्टिवाइटिस का शिकार हो सकता है। इसके लक्षण स्वरूप शिशु की आंख लाल रहती है और निरंतर पानी निकलता रहता है। इस संक्रमण को नेत्र विशेषज्ञ द्वारा दी गई एंटीबायोटिक के इस्तेमाल से ठीक किया जा सकता है।
नई दिल्ली स्थित सेंटर फॉर साइट के निदेशक डॉ. महिपाल सिंह सचदेव का कहना है कि आंखों में से निरंतर पानी गिरना और तरल मात्रा में डिस्चार्ज की समस्या कई बच्चों में आमतौर पर पाई जाती है। शिशु के जन्म के बाद लगभग चार सप्ताह तक बच्चों की आंख में आंसू कम बनतेे हैं इसलिए आंख से किसी भी प्रकार का पानी आना आसाधरण और हानिकारक होता है। जन्म के समय आंख से पानी आने का मतलब संक्रमण होता है, लेकिन शिशु के तीन महीने या उससे अधिक के हो जाने पर ऐसे लक्षणों का उभरना आंसू-प्रणाली का रूक जाना माना जाता है। आंसू-प्रणाली या टियर डक्ट वह छोटी ट्यूब होती हैं, जो आंखों के भीतरी छोर को नाक से जोड़ती हैं। ये जन्म के तीन से चार सप्ताह के पश्चात् विकसित होती हैं। ऐसे में नाक के मध्य भाग पर मालिश और एंटीबायोटिक से राहत पहुंचती है। लेकिन अगर यह पानी निकलना 3-4 महीनों तक ठीक न हो तो एक प्रक्रिया के दौरान टियर डक्ट को खोला जाता है। लेकिन उपचार में देरी करने से आगे चलकर बड़ी शल्य प्रक्रिया करानी पड़ सकती है।
पलक में किसी भी प्रकार की विषमता को भी नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। कोलोबोमा वह अवस्था है जब पलक का कोई भाग अनुपस्थित हो। दरअसल, पलक कोर्निया का 1-2 मिमी भाग ढकते हैं। लेकिन किसी शिशु में अगर ये ज्यादा भाग को ढकते हों तो यह स्थिति पलक का लटकना कहलाती है। इसलिए शिशु की आंखों की हर गतिविधि को ध्यान से देखना चाहिए। अगर गतिविधि में कोई रूकावट हो तो यह अवस्था नर्व पाल्सी कहलाती है।
डॉ. महिपाल सिंह सचदेव का कहना है कि का कहना है कि समय से पहले जन्मे बच्चों में आर ओ पी या रेटिनोपैथी आफ प्रीमैज्युरिटी होने का खतरा अधिक होता है। यह ऐसा विकार है जो कि दोनों आंखों को कुप्रभावित कर अंधा बना सकता है। खासकर वे शिशु, जो समय से पहले पैदा हो जाते हैं या जिनका वजन कम होता है, इससे प्रभावित होते है. दरअसल, गर्भावस्था के आखिरी बारह सप्ताहों में आंखें तेजी से विकसित होती हैं। तो, पहले पैदा हुए शिशुओं की आंखें सही ढ़ंग से विकसित नहीं हो पातीं और आंखों में कुछ असाधरण रक्त कोशिकाएं जन्म लेने लगती हैं। इन कोशिकाओं से खून निकलता है, जो कि रेटिना को क्षति पहुंचाता है। कई शिशु तो इसके चलते अंधेपन का शिकार हो जाते हैं। इसलिए किसी योग्य नेत्र रोग विशेषज्ञ से इसकी जांच कराना आवश्यक है जिससे शिशु को अंधेपन से बचाया जा सके। शिशु की आंखों का जुड़ाव भी ठीक होना चाहिए। टेढ़ी आंखें भेंगापन का चिन्ह हो सकती हैं। इसलिए अभिभावकों को शिशु की आंख संबंधित हर क्रिया पर गौर करना चाहिए। शुरूआती अवस्था में ही किसी भी विषमता का निदान और उसका उपचार आवश्यक है। इससे आप अपने शिशु की दुनिया में नया उजाला ला सकते है।

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