धर्मसैर सपाटा

सैलानियों को चमत्कृत करता है ज्योतिषी गणना का कमाल और ज्योतिष विद्या की थाती जयपुर का जंतर-मंतर

डॉ. प्रभात कुमार सिंघल, कोटा
लेखक एवं पत्रकार

गुलाबी नगर जयपुर के जंतरमंतर जिसे वेधशाला भी कहा जाता है को जब देखने जाते हैं और अगर हमारी घड़ी में सही समय है तो गाइड पत्थरों से बनी सूर्य घड़ी से समझाते हुए गणना कर उसमें स्थानीय समय जोड़ कर वही समय निकाल देता है जो हमारी धड़ी में है तो हम आश्चर्य में पड़ जाते हैं। करीब तीन सौ वर्ष पूर्व बनी जयपुर की इस वेधशाला – जंतर-मंतर का महत्व और प्रामाणिकता इस बात से भी सिद्ध होती है कि अंतरिक्ष में स्थापित दूर संवेदी उपग्रहों से प्राप्त मौसत सम्बन्धी सूचनाओं के बावजूद आज भी जयपुर के ज्योतिष विद्वान वर्षा ऋतु से पूर्व आषाढ़ी पूर्णिमा को सूर्यास्तकाल में यहां एकत्र होते हैं और पताका पहरा कर चातुर्मास में वर्षा का पूर्वानुमान लगाते हैं।

यह है ज्योतिषयंत्रों की गणना का कमाल और हमारी ज्योतिष विद्या की थाती। इन यंत्रों से मिलने वाली ज्योतिष गणना की प्रामाणिक जानकारी मिलने पर न केवल हम इस उपलब्धि से चमत्कृत होते हैं बल्कि खगोल विद्या की तत्कालीन उन्नत स्थितियों और विधियों से भी गौरवान्वित महसूस करते हैं। आधुनिक सूक्ष्म यंत्रों और टेलिस्कोपिक युग में चूने-पत्थर से बनी वेधशालाएं भले ही आज अनुपयुक्त लगती हों किन्तु सदियां बीत जाने पर भी काल को अंगूठा दिखाये समय के सीने पर गर्व से सीना ताने खड़ी हैं। यही कारण है कि राजस्थान के इन खगोल यंत्रों के इस समूह जंतरमंतर को यूनेस्को की विश्व धरोहर समिति ने 2010 ई.में इसे विश्व धरोहर का दर्जा प्रदान किया। इस उपलब्धि से ज्योतिष के इस महान स्थापत्य एवं शिल्प को न केवल अन्तर्राष्ट्रीय पहचान मिली बल्कि देश-विदेश के सैलानियों के आकर्षण का महत्वपूर्ण केंद्र बन गया हैं।
भारतीय इतिहास के मध्यकाल में जब ज्योतिषयंत्र विद्या लुप्त प्रायः हो रही थी तथा यूरोपीय देश ज्योतिष विज्ञान के सिद्धातों को मूर्तरूप देने में जुटे हुए थे तब ज्योतिष, गणित तथा खगोल विद्या में रूचि रखने वाले जयपुर के संस्थापक महाराजा सवाई जयसिंह द्वितीय ने अपने अथक प्रयासों से न केवल ज्योतिष शास्त्र के अध्ययन को संजीवनी प्रदान की, पंचांगों का परिष्कृत किया, नक्षत्रों की संशोधित सूची बनवाई, सूर्य-चन्द्रमा तथा ग्रहों की एक नवीन तालिका प्रस्तुत की। यही नहीं जयपुर समेत भारत में पांच वेधशालाएं बनवा कर खगोल विद्या को एक नई संजीवनी भी प्रदान की। ये वेधशालाएं सोवियत संघ के उज्बेकिस्तान के समरकंद में उलुकबेग द्वारा सन् 1420 में निर्मित वेधशाला का परिवर्दि्धत एवं परिष्कृत रूप होने के साथ-साथ खगोल विद्या के पाषाण युग के अंतिम स्मारक भी हैं।
आमेर की जगह वास्तु सम्मत जयपुर नगर बसा कर उसे रियासत की राजधनी बनाने वाले महाराजा सवाई जयसिंह ने यूनानी ज्योतिषी टोलेमी की तालिकाओं को अपने अनुसंधान का आधार बनाया तथा पंडित जगन्नाथ सम्राट एवं पंडित केवलराम के सहयोग से उलूकबेग की तालिकाओं का संस्कृत में अनुवाद करवाया। उन्होंने अलूकबेग तथा पूर्ववर्ती अरब एवं मुस्लिम ज्योतिषियों को प्रिय ’एस्ट्रोलेब’ जैसे यंत्रों का उपयोग तो किया किन्तु शीघ्र ही यह भी समझ गये कि यांत्रिक अपूर्णता और अशुद्धता के कारण इनसे सही परिणाम नहीं निकल सकते हैं। अतः उन्होंने पक्के वृहदाकार पाषाण यंत्र बनवा कर देश के प्रमुख नगरों में वेधशालाएं स्थापित करने का निर्णय लिया।

अपने सपने को साकार करने की दिशा में उन्होंने 1724 ई. में दिल्ली में पहली वेधशाला बनवाई तथा 1728 ई. में जयपुर वेधशाला का निर्माण प्रारंभ किया। इसका निर्माण 1734 ई. में पूर्ण हुआ और यह दूसरी वेधशाला जंतर-मंतर के नाम से विश्वभर में विख्यात है। जंतर अर्थात् यंत्र और मंतर अर्थात मंत्र या सूत्र, दूसरे शब्दों में वह स्थान जहां यंत्रों और निर्धारित सूत्रों के माध्यम से ज्योतिषीय गणना की जाती है। आगे चलकर उन्होंने उज्जैन, बनारस तथा मथुरा में भी वेधशालाओं का निर्माण करवाया परन्तु इन सब में जयपुर की वेधशाला आज तक सबसे विशाल, सम्पूर्ण और सुरक्षित अवस्था में है।
इन प्राचीन पद्धतियों से अधिक शुद्ध निष्कर्ष निकालने वाले तीन यंत्र-सम्राट, जयप्रकाश तथा रामयंत्र बने हैं जो स्वयं महाराजा जयसिंह द्वारा आविष्कृत हैं। इनकी गणना शुद्धता आधुनिक वैज्ञानिकों को भी विस्मित कर देती है। इनके अलावा भी इस वेधशाला में नाड़ी वलय यंत्र, क्रांति वृत यंत्र, यंत्रराज, उन्नतांश यंत्र, दक्षिणोदक भित्ति यंत्र, षष्ठांश यंत्र, राशिवलय यंत्र, कपाली यंत्र, चक्र यंत्र तथा दिगंश आदि कुल 16 यंत्र हैं जो सभी चूने-पत्थर से बने हुए हैं।
महाराजा सवाई जयसिंह द्वारा आविष्कृत तीन यंत्रों में पहला ’सम्राट यंत्र’ है जो इस वेधशाला का सबसे बृहद और सबसे ऊंचा यंत्र है और विश्व की सबसे बड़ी धूप घड़ी मानी जी हॉइ। करीब नब्बे फीट ऊंचे इस यंत्र की चोटी आकाशीय धु्व को सूचित करती है। ऊपर चढ़ने की सीढ़ियों के दोनों ओर की दीवारों के बाहरी किनारे पृथ्वी की धुरी के समान्तर हैं। इसके समय सूचक चाप पर अंकित चिन्हों से दो सेकण्ड तक का सूक्ष्मतम स्थानीय समय देखा जा सकता है।

महाराजा सवाई जयसिंह द्वारा आविष्कृत दूसरा यंत्र ’प्रकाश यंत्र’ है जिसे सर्व यंत्र शिरोमणि भी कहा जाता है, दो भागों में विभक्त है। एक भाग दूसरे भाग का पूरक है। इस यंत्र से स्थानीय समय, नवांश, उन्नतांश आदि के अतिरिक्त मेष राशि से मीन राशि तक बारह मासों की सूर्य स्थिति का ज्ञान होता है। श्रृंखला का तीसरा यंत्र ’रामयंत्र’ भी दो भागों में विभक्त है और दोनों यंत्र एक-एक घंटे के अन्तर से कार्य करते हैं। लगभग 23 फीट व्यास वाले इस यंत्र से उन्नतांश और दिगंश पढ़े जाते हैं तथा नक्षत्रों की जानकारी प्राप्त की जाती है। जयसिंह ने इसी यंत्र से अपनी प्रसिद्ध तालिका ’मुहम्मदशाही’ बनाई थी जो उलूकबेग की तालिका का परिष्कृत रूप थी।
जंतर-मंतर का छोटा सम्राट यंत्र बड़े सम्राट यंत्र का लघुरूप है तथा इसके समय सूचक चाप पर अंकित चिन्हों से बीस सेकण्ड तक का स्थानीय समय देखा जा सकता है। लगभग दस फीट व्यास का नाड़ी वलय यंत्र भी दो भागों में विभक्त है। इससे स्थानीय समय, राशियों में समस्त ग्रह एवं खगोलीय पिण्डों की स्थिति का ज्ञान प्राप्त होता है। इसी प्रकार क्रांति वृत यंत्र से राशियों में सूर्य की राशि एवं अंश तथा अन्य आकाशीय गृह-नक्षत्रों की स्थिति, ’यंत्र राज’ से जयपुर की आकाशीय स्थिति, सप्तऋषि मंडल तथा ध्रुवतारे और 27 नक्षत्रों की स्थिति का वेध किया जाता है वहीं उन्नतांश यंत्र से ग्रहादि के नतांश और उन्नतांशों का पता चलता है। दक्षिणोदक भित्ति यंत्र से ग्रह-नक्षत्रों की तथा षष्ठांश यंत्र से सूर्य-चन्द्रमा की क्रांति का बोध होता है। राशि वयल यंत्र से बारह राशियों की स्थिति और कपाली यंत्र से उदय क्षितिज गत राशि (लग्न) जानी जाती है। चक यंत्र से सूर्यादि ग्रहों की क्रांति आदि का ज्ञान प्राप्त होता है। दिगंश यंत्र से ग्रहों के दिगंश तथा धु्ववेध पट्रिटका से रात के समय धु्व तारे का बोध होता है। इसके अलावा पलभा यंत्र, भित्तिय यंत्र आदि अन्य यंत्र भी हैं जो ज्योतिष गणना के महत्वपूर्ण उपकरण हैं तथा आज भी पूर्णतय कार्य करने की स्थिति में हैं।
इन्हीं प्राचीन यंत्रों से ज्योतिष विषय के छात्रों की प्रायोगिक परीक्षाएं कराई जाती हैं। जयुपर की यह वेधशाला तो उस समय ज्योतिष विज्ञान का अन्तरराष्ट्रीय मंच बन गया था। कभी पुर्तगाली गणितज्ञ तो कभी कोई जर्मन विद्वान अथवा पाश्चात्य खगोल शास्त्री महाराज सवाई जयसिंह तथा उनकी विद्वान मण्डली से ज्योतिषीय गणना पर विचार-विमर्श के लिए यहां आते रहते थे।

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