सैर सपाटा

चित्तौड़गढ़ किला – राजस्थान

-डॉ.प्रभात कुमार सिंघल
लेखक एवम् पत्रकार, कोटा

वीरता की गूंजती गाथाएं, शूरवीरों, रणबांकुरों एवं वीरांगनाओं के शौर्य की धमक, त्याग और बलिदान की अमिट कहानियां, अभेध दुर्ग, महलों, मंदिरों, स्तंभों, छतरियों में होते भारतीय शिल्प के दर्शन, शक्ति के साथ भक्ति के अनूठे संगम की धरती की विशिष्ठताएं विश्व के सैलानियों को चित्तौड़गढ़ किले की और खींच लाती है। इसके महत्व को देखते हुए यूनेस्को ने इसे विश्व विरासत की अपनी सूची में शामिल किया है। विजय स्तंभ अपनी अद्भुत शिल्प रचना की वजह से राजस्थान राज्य का प्रतिनिधी स्मारक है। मीरा मंदिर, भक्त मीरा बाई का कृष्ण के प्रति प्रगाढ़ भक्ति भाव से जग प्रसिद्ध है। रानी पद्मिनी का जौहर इतिहास की अमर घटना है। राजस्थान आने वाले घरेलू और विदेशी सैलानी इस किले को देखना अपनी सूची में जरूर शामिल करते हैं। आइए ! आप भी कीजिए हमारे साथ – साथ राजस्थान के इस महान दुर्ग की यात्रा।

बताया जाता है चित्तौड़गढ़ की स्थापना मौर्य राजा चित्रांगद ने की थी। उन्होंने अपने नाम के अनुरूप इसका नाम ’चित्र-कोट’ रखा था जो अपभ्रंश होते होते चित्तौड़गढ़ हो गया। कर्नल जेम्स टाड के मुताबिक 728 ई. में बापा रावल ने इस दुर्ग को मौर्य वंश के अन्तिम राजा मान मौर्य रावल से छीन कर गुहिल वंश की स्थापना की। सन् 1303 में चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण करने वाला अलाउद्दीन खिलजी रानी पद्मनी की सुंदरता के कारण उसे पाने के लिए लालायित हो गया। अतं में पद्मिनी ने अपनी लाज बचाने के लिए हजारों वीरांगनों के साथ ’जौहर’ कर लिया। चित्तौड़गढ़ में तीन बार ऐसी स्थिति बनी जब जौहर किये गये। सन् 1533 में गुजरात के शासक बहादुर शाह द्वारा दूसरा आक्रमण किया गया एवं बूंदी की राजकुमारी रानी कर्णावती के नेतृत्व में जौहर किया गया। उसके नन्हें पुत्र उदयसिंह को बचा कर बूंदी भेज दिया गया। जब 1567 में मुगल सम्राट ने चित्तौड़गढ़ पर चढ़ाई की तो उदयसिंह ने उदयपुर को अपनी राज्यधानी बनाया। चित्तौड़गढ़ को 16 वर्ष के दो वीरों जयमल एवं केवल के हाथों सोंप दिया। दोनों ने बहादुरी के साथ युद्ध किया एवं जौहर हो जाने के बाद इनकी मृत्यु हो गई। अकबर ने किले को मिट्टी में मिला दिया। इस के बाद चित्तौड़गढ़ का कोई शासक नहीं बना एवं राजपूत सैनिक ही इसकी रक्षा करते रहें।

चारों ओर सुदृढ़ दीवारों से घिरा हुआ है और सुरक्षा के लिए मुख्य मार्ग तथा सात द्वारा बने हुए हैं। किले के ऊपर जाने वाली सड़क, ऊंची दीवारों और द्वारों की मरम्मत महाराणा कुम्भा ने पन्द्रहवीं शताब्दी में करवायी थी। किले के पूर्व की ओर सूरजपोल का बड़ा दरवाजा और दूसरी ओर लाखोटा बारी है जो किले में प्रवेश को रोकती है। इन दोनों द्वारों पर अकबर ने ई. 1567 के हमले के समय चट्टानों में सुरंग लगाकर प्रचीरों तो तोड़ा था और किले के सुरक्षा प्रबन्ध को समाप्त किया था। जब स्टेशन से किले की ओर जाते हैं तो लगभग दो किलोमीटर पर एक पुल आता है जिससे गम्भीरी नदी पार की जाती है। यह पुल अलाउद्दीन खिलजी के पुत्र खिज्रखाँ ने चित्तौड़ दुर्ग व मंदिरों के भग्नावशेषों से बनवाया था। इसमें अनेक मूर्तियों और मंदिरों के पाषाण खण्ड और प्रशस्तियों के टुकड़े लगे हुए हैं। गम्भीरी नदी के पुल के दसवें महराब में समरसिंह के समय का लेख है जिसके अनुसार रावल समरसिंह ने अपनी माता जयतल्लदेवी के श्रेय के निर्मित पोषधशाला के लिए कुछ भूमि दी। अपनी माता के बनवाये हुए मंदिरों की व्यवस्था के लिए कुछ हाट और बाग दिये।

  • चित्तौड़ के कस्बे से गुजरकर चित्तौड़ दुर्ग के प्रथम द्वार पर आते हैं जिसे पाडलपोल (पटवनपोल) कहते हैं। इस द्वार के बाहर एक चबूतरा है जिस पर प्रतापगढ़ के रावत बाघसिंह का स्मारक बना हुआ है। जब गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह ने 1434 ई. में चित्तौड़ पर आक्रमण किया तब बाघसिंह ने दुर्ग की रक्षा में अपने प्राण यहाँ गँवाये थे। थोड़ी दूर चलने पर उतार में भैरवपोल आती है जहाँ जयमल के कुटुम्बी कल्ला और राठौड़ वीर जयमल की छत्रियाँ हैं। ये दोनों वीर 1567 ई. के मुगल आक्रमण के समय वीरगति को प्राप्त हुए।
  • इन छत्रियों से आगे बढ़ने पर गणेशपोल, लक्ष्मणपोल और जोडनपोल आते हैं। इन सभी पोलों को सुदृढ़ दीवारों से इस प्रकार जोड़ दिया है कि बिना फाटकों को तोडे़ शत्रु किले पर अधिकार नहीं कर सकता। जोडनपोल के संकड़े मोर्चे पर शत्रु सेना आसानी से रोकी जा सकती है। यहाँ से कुछ दूर चलने पर एक विशाल द्वार रामपोल आता है। यह पश्चिमाभिमुख प्रवेश द्वार है जहाँ से दुर्ग की समतल स्थिति आती है। रामपोल के भीतर घुसते ही एक तरफ सीसोदिया पत्ता का स्मारक आता है जहाँ अकबर की सेना से लड़ता हुआ पत्ता काम आया था। जयमल की मृत्यु के बाद राजपूतों ने इस वीर को अपना नेता चुना था। इस स्मारक के दाहिनी ओर जाने वाली सड़क पर तुलजा माता का मंदिर आता है।
  • आगे चलकर वनवीर द्वारा बनवायी गयी ऊँची दीवार आती है जिसके पास एक सुरक्षित स्थान को नवलख भण्डार कहा जाता हैं। वनवीर ने शत्रु से बचने के लिए दुर्ग के अन्दर दूसरे दुर्ग की व्यवस्था की थी। इसी अहाते के आसपास तोपखाने का दालान, महारानी और पुरोहितो की हवेलियाँ, भामाशाह की हवेली तथा अन्य महल हैं। नवलखा भण्डार के निकट श्रृंगार चंवरी का मंदिर आता है जिसका जीर्णोद्धार महाराणा कुम्भा के भण्डारी वेलाक ने 1448 ई .में कराया था। इस मंदिर के बाहरी भाग में उत्कीर्ण कला देखने योग्य है। इसको भ्रम से श्रृंगार चंवरी कहते हैं, वास्तव में यह शान्तिनाथ का जैन मंदिर है जिसकी प्रतिष्ठा खरतर गच्छ के आचार्य जिनसेन सूरि की थी।
  • यहाँ से आगे बढ़ने पर त्रिपोलियाँ नामक द्वार आता है जहाँ पुराने राजमहल का चौंक, निजी सेवा का बाण माता का मंदिर, कुम्भा का जनाना और मर्दाना महल, राजकुमारों के प्रासाद , कोठार, शिलेखाना आदि स्थित हैं। इस सम्पूर्ण भाग को कुम्भा के महल कहते हैं। एक सुरंग को पझिनी के जौहर का स्थान बताया जाता है। वास्तव में नीचे के महलों का भाग कुम्भा के समय से भी पहले बना था जिसके कई कमरे और बरामदे अब खुदाई व सफाई से निकल आये हैं। सम्भव है महाराणा कुम्भा ने इन्हीं पुराने महलों पर नये महल बना दिये हों। जौहर होने का स्थान समिद्धिश्वर के आसपास की खुली भूमि है। अकबर के समय में भी यहीं जौहर की धधकती हुई ज्वाला की ओर भगवानदास ने संकेत किया था। इसी स्थान पर छोटे-बड़े शिवालय स्मारक व चबूतरे मिलते हैं जो जौहर होने के स्थान के प्रमाण है। यहाँ की खुदाई, जो समिद्धिश्वर के पास हुई है, इसको और स्पष्ट करती है। ऊपर वर्णित राज प्रसाद का ढाँचा 15 वीं सदी के उच्चवर्गीय समाज के जीवन के अध्ययन के लिए बड़ा उपयोगी है। एक पट्टशाला को जोड़ने वाले दो कमरे, गवाक्ष और खम्भों पर दालान की छत को रोकने की विधि, राजाप्रसादों को जोड़ने वाले संकरे मार्ग, छोटे दालान आदि उस समय के स्थापत्य की विशेषताएँ थीं।
  • राजभवन के आगे कुम्भश्याम मंदिर आता है जिसका जीर्णोद्धार महाराणा कुम्भा ने करवाया और जहाँ मीरां हरिकीर्तन के लिए आया करती थीं। इसके आगे सात बीस देवरी के जैन मंदिर हैं जो गुजराती तक्षण कला की छाप रखते हैं। इसके आगे गौमुख कुण्ड आता है और उसी के समीप त्रिभुवन नारायण का मंदिर है जिसे भोज ने बनाया था और जिसका जीणोंद्धार मोकल ने 1428 ई. में कराया था। मूर्तिकला और जनजीवन की 13 वीं सदी झाँकी के लिए यह मंदिर अपने ढंग का अद्वितीय है। इसके निर्माण काल के प्रारम्भ में उसे भाक्षी नामक स्थान में रखा था। यह स्तम्भ अनेक देवी-देवताओं और सामाजिक जीवन की परिचायक मूर्तियों का कोष है। इसमें प्रत्येक मूर्ति का नामांकन इस प्रकार किया गया है कि मूर्ति के आयुध से तथा अन्य चिह्यें से उसे समझने में दर्शकों को सुविधा हो। ऊपर की मंजिल में 4 शिलालेखों की ताके हैं जिनमे से दो शिलाएँ प्राप्त हैं। मूर्तिकार ने देवी-देवताओं की प्रतिमाओं के साथ कुलटा,तरूणी, रति रत, शस्त्र, व्यापार तथा व्यवसाय करने वालों की मूर्तियाँ बनाकर इस स्तम्भ को सजीव बना दिया है। इसका निर्माण कार्य सूत्रधार जेता के द्वारा हुआ था।
  • इसके आगे चलकर जयमल की हवेली है जो सामन्तों के आवास तथा रहने की सुविधा के अध्ययन की अच्छी झांकी उपस्थित करती है। इसके बाद रानी पद्मिनी के महल आते हैं, जिसने अपनी सूझबूझ से 700 डोलों में सैनिकों को भेजकर अपने पति रत्नसिंह को अलाउद्दीन से छुड़ावाया था और फिर हजारों रमणियों के साथ जौहर कर लिया था। ये महल अब नये बना दिये गये हैं परन्तु कहीं-कहीं खण्डहरों के अवशेष उस समय के स्थापत्य के साक्षी हैं। इसके आगे कालिका का मंदिर है जो पहले सूर्य मंदिर था। इस मंदिर की तक्षण-कला 8 वीं शताब्दी की है। यहाँ से चित्रंगमोरी ताल को पार कर हम किले के एक छोर पर पंहुचते हैं जहाँ से नीचे मोरमगरी दिखायी देती है। बहादुरशाह के आक्रमण के समय इसी ऊँची पहाड़ी पर तोपखाना रखा गया था।
  • आगे चलकर एक जैन विजय स्तम्भ मिलता है जो 11 वीं सदी में जीजा ने बनवाया था। इसी भाग में अद्भुतजी का मंदिर, लक्ष्मीजी का मंदिर,नीलकण्ठ और अपमूर्णा के मंदिर, रत्नसिंह के महल तथा कुकड़ेश्वर का कुण्ड दर्शनीय हैं।
  • कुम्भा महल के प्रमुख प्रवेश द्वार ’बड़ी पोल’ से बाहर निकलते ही फतह प्रकाश महल स्थित है। इस भवन में राज्य सरकार द्वारा एक संग्रहालय की स्थापना की गई है, जिसमें इस क्षेत्र से प्राप्त पाषाण कालीन सामग्री, अस़्त्र-शस्त्र एवं वस्त्र, मूर्तिकला के नमूने, प्राचीन चित्रों का संग्रह तथा विभिन्न ऐतिहसिक एवं लोक संस्कृति की सामग्री का प्रदर्शन किया गया है।
  • फतह प्रकाश महल के दशिण-पश्चिम में सड़क पर ही ग्यारहवीं शताब्दी में बना एक भव्य जैन मंदिर है, जिसमें 27 देवरियां होने के कारण यह ’सतबीस देवरी’ कहलाता है। मंदिर के अन्दर की गुम्बजनुमा छत व खम्भों पर की गई खुदाई देलवाड़ा जैन मंदिर माउण्ट आबू से मिलती-जुलती है।
  • चित्तौड़गढ़ के समिद्वेश्वर प्रासाद का निर्माण 1011 ई. से 1055 ई.के बीच मालवा के परमार राजा भोज ने करवाया था। परमारों को परास्त कर चैलुक्यों ने जब इस क्षेत्र पर अधिकार किया तो चैलुक्य राजा कुमारपाल ने ई. 1150 में समिद्वेश्वर मंदिर की यात्रा की । उस समय का कुमार पाल का एक शिलालेख इस मंदिर में मिला है। एक दूसरा शिलालेख 1428 ई. का है जिसमें महाराणा मोकल द्वारा इस मंदिर का जीर्णोद्धार पश्चिमाभिमुखी है तथा भारतीय प्रासाद की नागर शैली में बना हुआ है। चित्तौड़ दुर्ग की पश्चिमी प्राचीर के पास निर्मित इस मंदिर के तीनों प्रवेश द्वारों पर मण्डप बने हुए हैं जिनके आगे दो-दो कलात्मक स्तंभ निर्मित हैं। दीवार से सटे स्तम्भों पर द्वारपालों तथा घट पल्लवों का सूक्ष्म अंकन किया गया है। उत्तरी मण्डप की विग्रह पट्टिका का विन्यास देखते ही बनता है गंगा-यमुना, आयुना, आयुधधारी दिक्पाल, बन्दीजन एवम् गंधर्व नर-नारी मूक कम और मुखरित अधिक जान पड़ते हैं।

मंदिर का सभा मण्डप कलात्मक स्तंभों पर टिका है। यह भीतर से सादगी पूर्ण है किन्तु बाहर शिखरों पर उत्तम कोटि की कला प्रदर्शित की गई है। कलात्मक कंगूरों तथा देवी-देवताओं की प्रतिमाओं का अंकन हर दृष्टि से भव्य जान पड़ता है। सभा मण्डप की छत के मध्य में आमलक पर कलश स्थापित किया गया है। इस मण्डप के पूर्व में स्थित गर्भगृह के मध्य में प्रस्तर निर्मित जलधारी पर शिवलिंग विराजित है। शिवलिंग की पूर्वी दीवार पर त्रिमूर्ति स्थापित है जिसमें बह्मा, विष्णु तथा महेश को एक ही साथ उत्कीर्ण किया गया है। मंदिर की बाह्म दीवारों का मूर्तिशिल्प और कलाकृतियां भी अत्यन्त आकर्षण वाली हैं। ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश के विविध स्वरूपों को दशनि वाली मूर्तियों के साथ नर-नारियों की स्नेहाकर्षण से युक्त मूर्तियां विद्यमान हैं। मध्यकालीन कला सौष्ठव वाली नारी प्रतिमायें मदनिका, अलस कन्य तथा देव बालाओं की हैं। लोकजीवन से सम्बन्धित अनेक झांकियां भी दर्शायी गई हैं। शिवालय के शिखर भाग में प्रयुक्त प्रस्तरों का सूक्ष्म तक्षण किया गया है। राजस्थान के समस्त किलों में इस किले का विशेष महत्व है और यह सबसे बड़ा किला है।

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