सैर सपाटा

मूर्तिकला दीर्घा झालावाड़ संग्रहालय

-डॉ. प्रभात कुमार सिंघल, कोटा
झालावाड़ राजकीय संग्रहालय की मूर्तिकला की यात्रा जैन मूर्तिकला दीर्घा से होती है जो बौद्ध दीर्घा के ऊपर प्रथम तल पर संयोजित की गई हैं।
जैन मूर्ति दीर्घा – इस दीर्घा में हाड़ौती क्षेत्र के पचपहाड़, अकलेरा और काकूनी से प्राप्त जैन तीर्थकर प्रतिमाओं और देवालय की धरणी को प्रदर्शित किया गया है। दिगम्बर सम्प्रदाय से सम्बन्धित ये प्रतिमाएं मध्यकालीन जैन मूर्तिकला का प्रतिनिधित्व करती हैं तथा तत्कालीन जैन धर्म की कला एवं संस्कृति का परिचय कराती हैं। पार्श्वनाथ की 11वीं सदी की एक प्रतिमा बहुत ही आकर्षक है। इसके आगे की मूर्तिकला दीर्घा में हाड़ौती क्षेत्र के झालरापाटन, रंगपाटन, दलहनपुर, मऊबोरदा, भीमगढ़ एवं काकूनी आदि स्थानों पर प्राचीन देवालय अथवा मन्दिर अवशेष विद्यमान हैं। ये स्थल यहां की समृद्ध मूर्तिकला के महत्वपूर्ण केंद्र हैं। इन स्थानों से अवाप्त कतिपय प्रतिमाओं को इस दीर्घा के चार खण्डों में संयोजित किया गया है।

(अ) देवी प्रतिमा खण्ड –

इसमें क्षेत्र की देवी प्रतिमाओं का प्रदर्शन किया गया है। प्रारम्भिक 5वीं ई. शताब्दी का गंगधार शिलालेख क्षेत्र में शाक्त पूजा के प्राचीनतम साक्ष्य प्रस्तुत करता है। चन्द्रभाग नदी के तट पर स्थित मन्दिर समूह के एक कक्ष में संग्रहित 8-9वीं शती ई. की लगभग एक दर्जन देवी प्रतिमाएं तत्कालीन शक्ति पूजा का बोध कराती है। इसी खण्ड में रंगपाटन, चन्द्रभागा, आदि स्थानों से अवाप्त प्रतिमाएं प्रदर्शित की गई हैं, इनमें स्थानक कृशकाय चामुण्डा, शीतला एव महिषासुरमर्दिनी की विशाल प्रतिमाएं कला की दृष्टि से बेजोड़ हैं। ज्ञात होता है कि इस क्षेत्र में 8-9वीं शताब्दी में शाक्त पूजा का प्रचलन था।

(ब) दिक्पाल प्रतिमा खण्ड –

इस दीर्घा में अष्ट दिक्पाल इन्द्र, अग्नि, यम, नैऋत, वरूण, वायु, कुबेर और ईशान की मूर्तियों को क्रमशः संयोजित किया गया है। द्विहस्त वरूण एवं इन्द्र की प्रतिमाएं इस खण्ड का आकर्षण हैं। मन्दिर स्थापत्य में अष्ट दिक्पाल की स्थापना से पूर्व चतुर्दिक दिक्पाल की परम्परा रही थी। यहां प्रदर्शित 9वीं सदी की दिकपाल वरुण की प्रतिमा बहुत सुंदर है। उल्लेखनीय है कि मन्दिर स्थापत्य में दिक्पाल प्रतिमाओं की स्थापना का विशेष उद्देश्य और महत्व होता है। दिकपाल अपनी दिशाओं के रक्षक देवता होते हैं, जो मन्दिर में दुष्ट एवं अपवित्र आत्माओं के प्रवेश को रोकते हैं। शिखर के बाहय जंघा भाग में दिक्पाल प्रतिमाएं स्थानक रूप में स्थापित की जाती हैं।

(स) शैव प्रतिमा खंड –

इस दीर्घा में, उमा-महेश्वर, नृत्यरत शिव एवं लकुलीश आदि की अद्भुत प्रतिमाएं प्रदर्शित हैं। यहां प्रदर्शित 10वीं शताब्दी की स्थानक शिव-पार्वती विवाह फलक प्रतिमा विशेष रूप से दर्शनीय है। क्षेत्र के कतिपय देवालयों में लकुलीश का अंकन तथा इसकी स्वतंत्र मूर्तियों से यह भी ज्ञात होता है कि यहां पाशुपत सम्प्रदाय का बोलबाला था। शीतलेश्वर महादेव मन्दिर, झालरापाटन के ललाटबिम्ब पर लकुलीश का अंकन इनका श्रेष्ठ उदहारण है। इस क्षेत्र में प्राचीन शैव देवालयों की बहुलता शैववाद की प्रधानता को रेखांकित करती है। झालरापाटन, रंगपाटन, गोवरधनपुरा ( प्राचीन गड़गच), भीमगढ़ एवं काकूनी के शैव देवालयों के अवशेष प्रमुख रूप से उल्लेखनीय हैं। सैन्धव सभ्यता से ही मूर्ति के रूप में शैव पूजा के साक्ष्य मिलते हैं।

(द) वैष्णव एवं सौर प्रतिमा खण्ड –

इस खण्ड में वैष्णव एवं सौर प्रतिमाएं क्रमशः संयोजित की गई हैं। दीर्घा के दाएँ भाग में सौर प्रतिमाएँ प्रदर्शित की गई हैं। इनमें हरिहर-पितामह-मार्तण्ड, सूर्य-नारायण आदि की स्वतन्त्र प्रतिमाएँ इस दीर्घा की शोभा बढ़ा रही हैं। वैष्णव प्रतिमाओं में त्रिमुखी विष्णु, लक्ष्मीनारायण, नरवराह, चक्रपुरूष, हरिहर एवं शेषशायी विष्णु की प्रतिमाएं रूचिकर हैं। प्रतिमा दीर्घा में प्रदर्शित प्रतिमाएँ तत्कालीन धार्मिक एवं सामाजिक स्थिति का बोध कराती हैं। यह दीर्घा हिन्दू देवी-देवताओं के विभिन्न अवतारों और रूपों का दिग्दर्शन कराती है।
उल्लेखनीय है यहां शैव धर्म के बाद वैष्णव धर्म की भी लोकप्रियता थी। झालरापाटन का पद्मनाभ मन्दिर इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। भीमगढ़, काकूनी एवं रंगपाटन के ध्वंसावशेषों में वैष्णव मन्दिरों के संरचनात्मक अवशेष मिलते हैं। क्षेत्र में कृष्ण लीला विषयक प्रतिमाएं भी मिली हैं जो भागवत भक्ति की निरन्तरता की द्योतक हैं। तत्कालीन जनमानस शैव एवं वैष्णव पूजा के साथ-साथ सूर्यदेव की उपासना में भी विश्वास रखता था। क्षेत्र में मिले सूर्य देवभवनों के अवशेष और सौर प्रतिमाएं इसकी पुष्टि करते हैं। सूर्य देव को संयुक्त प्रतिमाओं में भी उत्कीर्ण किया जाता था। यह तत्कालीन जनसामान्य की बहुदेववाद की अवधारणा और आस्था को प्रकट करता है।

देवालय दीर्घा –

मंदिर निर्माण अपने आपमें एक विधा है, जिसके अपने नियम ओर विधान हैं। मंदिर के विविध अंग और उपांग बताए गए हैं। प्राचीन मन्दिर स्थापत्य के ग्रंथों में दिए गए मानदंडों के अनुसार योग्य व्यक्ति की देखरेख में निर्मित किए जाते थे। मंदिरों की संरचना को बताने के लिए राजस्थान के झालावाड़ स्थित संग्रहालय में एक देवालय दीर्घा का प्रथक से संयोजन किया गया है।
इस दीर्घा में दर्शकों को देवालय के प्रमुख अंगों का सामान्य ज्ञान कराने के उद्देश्य से दो मन्दिरों की योजना एवं रूपरेखा आकर्षक रूप से प्रस्तुत की गई है जो देखते ही बनती है। इन पर मन्दिर के वास्तुखण्डों और मूर्तिशिल्प को प्रदर्शित किया गया है। इसके अतिरिक्त इस दीर्घा के चारों कोणों में क्रमशः गणेश, ब्रह्मा, अर्द्धनारीश्वर, एवं मध्य में महिषासुरमर्दिनी की प्रतिमाओं को प्रदर्शित किया गया है। इन मंदिरों का संयोजन शिल्प और मूर्तिकला को समझने के लिए बहुत ही ध्यानपूर्वक इन्हें देखना जरूरी हैं। आपको जब कभी इस संग्रहालय को देखने का मौका मिले तो मेरी सलाह है की देवालय दीर्घा को पर्याप्त समय देकर देखें और समझे कि मंदिर का निर्माण कैसे किया जाता है। बच्चों और युवाओं के सामान्य ज्ञान की दृष्टि से यह महत्वपूर्ण दीर्घा है।
संग्रहालय की मूर्तिकला दीर्घा हाड़ोती क्षेत्र में पुरातत्व के महत्वपूर्ण घटक मूर्तिकला के सौंदर्य बोध का दर्शन कराती है और बताती है की हमारा क्षेत्र मूर्तिकला में कितना समृद्ध रहा है।

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