संपादकीय

आरुषि हत्याकाण्ड और पुलिस की अक्षमता

मई, 2008 में घटित आरुषि हत्याकाण्ड की चर्चा भारत में ही नहीं अपितु सारे संसार में फिर से आॅनर किलिंग को केन्द्र में ले आई। सब जगह एक ही धारणा व्याप्त हो रही थी कि आरुषि को अपने घर के नौकर हेमराज के साथ आपत्तिजनक हालत में देखने के बाद उसके माता-पिता ने उसकी हत्या कर दी। राजेश तलवान और नुपुर तलवार को अभियुक्त बनाकर गिरफ्तार भी कर लिया गया। छानबीन का सारा कार्य पहले उत्तर प्रदेश के नोएडा जिले की पुलिस के अधीन था। पुलिस की छानबीन की लच्चरता पर अनेकों सवाल मीडिया में उठने लगे तो तत्कालीन मायावती सरकार ने जाँच का कार्य सी.बी.आई. को सौंप दिया। सी.बी.आई. की जाँच ने न जाने किन नये प्रमाणों को खोज निकाला जिनके बल पर सी.बी.आई. ने दिसम्बर, 2010 में जिला अदालत में क्लोजर रिपोर्ट दाखिल कर दी। क्लोजर रिपोर्ट का अर्थ था कि मुकदमें में अभियुक्तों के विरुद्ध विशेष सबूत नहीं है अतः इसे बन्द कर दिया जाये। परन्तु जिला अदालत ने इस रिपोर्ट को अस्वीकार करने के बाद तलवार दम्पत्ति के विरुद्ध ट्रायल प्रारम्भ कर दिया। यह ट्रायल नवम्बर, 2013 में पूरा हुआ जिसमें तलवार दम्पत्ति को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। इस सजा के विरुद्ध इलाहाबाद उच्च न्यायालय में तलवार दम्पत्ति की तरफ से अपील प्रस्तुत की गई। अक्टूबर, 2017 में उच्च न्यायालय ने तलवार दम्पत्ति को आरोपमुक्त करने के पीछे पर्याप्त प्रमाणों का प्रस्तुत न किया जाना मुख्य आधार बनाया और संदेह का लाभ देते हुए आरोपियों को सजा मुक्त कर दिया। इस प्रकार लगभग 9 वर्ष की खींचतान के बाद पुलिस या न्याय व्यवस्था इस प्रश्न का जवाब नहीं दे पा रही कि अन्ततः एक फ्लैट में होने वाली दो हत्याओं का दोषी कौन है? दोनों हत्याएँ अर्द्धरात्रि मे हुई। परिवार में चार लोग थे। चार में दो की हत्या हुई। हत्या की सारी कहानी एक छोटे से परिवार के आस-पास ही बुनी गई प्रतीत होती है। परिवार के बाहर यदि पूरे मोहल्ले या कालोनी की भी छानबीन करनी हो तो दक्ष पुलिस अधिकारियों के लिए यह कोई बहुत बड़ा उलझा हुआ मुकदमा नहीं होता। परन्तु विडम्बना है कि पुलिस चार आदमियों के परिवार को लेकर भी छानबीन को पूरी दक्षता के साथ पूरा नहीं कर पाई। छानबीन कार्यों में पुलिस अधिकारियों को पूरे वैज्ञानिक तरीके से कार्य करना होता है। पुलिस का सबसे पहला कत्र्तव्य यह होना चाहिए कि अपराध स्थल पर किसी अजनबी व्यक्ति को प्रवेश नहीं करने देना चाहिए। अपराध स्थल पर पहुँचते ही अनेकों दृष्टिकोणों से सैकड़ों फोटो खींचे जाते हैं। इसके बाद अपराध स्थल पर पाई गई हर छोटी से छोटी चीज को वैज्ञानिक तरीके से ही सुरक्षित एकत्र किया जाता है। यहाँ तक कि घटना स्थल पर यदि कोई टूटे हुए बाल भी दिखाई दें तो उन्हें भी एकत्र किया जाता है जिससे बाद में वैज्ञानिक तरीके से यह सिद्ध किया जा सके कि यह बाल किसी आरोपी के तो नहीं है। अपराध स्थल पर पड़ी किसी भी वस्तु पर अंगुलियों के निशान प्राप्त करने के लिए ऐसी प्रत्येक वस्तु को भी सावधानी के साथ संरक्षित किया जाता है। अपराध स्थल पर विशेषज्ञ कुत्तों की सहायता से अनेकों गुप्त चहलकदमियों का भी पता लग सकता है। आरुषि की हत्या के बाद नौकर हेमराज की भी हत्या की गई और उसके शव को एक चादर में बाँधकर छत के ऊपर पहुँचाया गया। परन्तु पुलिस को लगभग दो दिन के बाद हेमराज की लाश का पता लगा। यदि तुरन्त कुत्तों की सहायता ली गई होती तो उसी वक्त अपराध स्थल से जुड़ी चहलकदमी छानबीन अधिकारियों को छत पर भी ले जाती। अपराध की सूचना पुलिस को मिलने के बाद पुलिस जब घटना स्थल पर आई तो उस फ्लैट में पड़ोसियों और मीडिया का आना-जाना ऐसे लगा रहा जैसे कोई अपराध की प्रदर्शनी लगी हो। ऐसी अवस्था पैदा करने के बाद कई प्रकार के प्रमाण नष्ट हो जाते हैं जो बहुत बड़े सहायक बन सकते हैं। अपराध स्थल पर अनेकों लोगों के आने के बाद तो कुत्तों की सूंघने की क्षमता भी काम नहीं कर पाती, क्योंकि अनेकों अजनबी लोगों और अपराधी की चहलकदमी का मिश्रण हो जाने से कुत्तों की क्षमता अपराधी की चहलकदमी का अनुसरण नहीं कर पाती।
छानबीन प्रक्रिया में यह सारी कमियों के दो ही कारण हो सकते हैं – अक्षमता या भ्रष्टाचार। उत्तर प्रदेश पुलिस के छानबीन अधिकारियों को पूर्ण वैज्ञानिक तरीके से छानबीन का प्रशिक्षण ही नहीं दिया गया। पुलिस की यह अक्षमता कभी भी ऐसे सुनियोजित अपराधों की छानबीन पूरी कर ही नहीं सकती। इसके अतिरिक्त छानबीन अधिकारियों को प्रस्तुत रिश्वतखोरी भी छानबीन पूरा न करने का कारण हो सकती है। उत्तर प्रदेश ही क्या हमारे देश की सारा पुलिस तंत्र इन दोनों कमियों का शिकार दिखाई देता है। पुलिस की इन कमियों के कारण ही हमारे देश की अपराधिक न्याय प्रणाली भी पूरी तरह फेल होती हुई दिखाई दे रही है।
इन्हीं कारणों से भारत की अदालतों में जितने भी अपराधिक मुकदमें चलते हैं उनमें 60 से 80 प्रतिशत मुकदमों के आरोपी अदालतों के द्वारा आरोपमुक्त घोषित कर दिये जाते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि भारत में केवल 20 से 40 प्रतिशत मुकदमों में ही आरोपियों को सजा मिल पाती है। भारतीय पुलिस को जापान जैसे देश की प्रेरणा और कार्यशैली के प्रशिक्षण की आवश्यकता है। जापान की पुलिस पूरी ईमानदारी और दक्षता के साथ हर अपराध की छानबीन करने के बाद मुकदमें अदालतों प्रस्तुत करती है। जापान पुलिस की इस ईमानदारी और दक्षता का परिणाम यह है कि वहाँ 99.8 प्रतिशत मुकदमों में अपराधियों को सजा मिलती है।
आरुषि हत्याकाण्ड मामले में पुलिस की कार्यशैली विचित्र सी दिखाई दी है। पुलिस की अक्षमता को दूसरे शब्दों में प्रमाणों का अभाव कहा गया है और पुलिस भ्रष्टाचार के कारण ही आरोपियों को संदेह का लाभ प्राप्त करने की योग्यता प्राप्त हुई। प्रमाणों का अभाव और संदेह का लाभ किसी प्रकार से भी आरोपियों को पूर्ण निर्दोष सिद्ध करने के प्रमाणपत्र नहीं है। यह दोनों उक्तियाँ केवल पुलिस की अक्षमता को ही उजागर करती है। पुलिस की सारी अक्षमताओं को दूर करने का एक ही उपाय है कि प्रत्येक पुलिस स्टेशन में एक या दो ऐसे तकनीकी विशेषज्ञों को नियुक्त किया जाये जो अपराधों की छानबीन से जुड़े हर प्रकार के विज्ञान और आधुनिकतम अनुसंधानों में पारंगत हों। ऐसे वैज्ञानिक विशेषज्ञ प्रत्येक अपराध में पुलिस छानबीन को यथासम्भव दिशा-निर्देश और सहायता उपलब्ध करवायें।

-विमल वधावन योगाचार्य, एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट

 

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