संपादकीय

त्याग का दूसरा नाम : ईद-उल-फितर

-डा. नाज परवीन
रमजान के तीस रोजों के बाद ईद का नायाब तोहफा अल्लाह अपने बन्दों को देता है। पाबन्दी से रोजे रखना, नमाज पढना, तिलावत करना अल्लाह की बारगाह में बंदो की इबादत मानी जाती है। महीने भर के रोजों के बाद माहे शव्वाल का चांद ईद की खुशियां लेकर आता है, जो बडे-बुर्जगों से ज्यादा बच्चों के चेहरों की मुस्कान में दिखतीं हैं। ईद की फिजा में जश्न की खुश्बू, रंग-बिरंगे कपडों से सजे-धजे बच्चों का चेहरा किसी खूबसूरत गुलाब से कम नहीं लगता, जब वो अपने बडों से दुआओं के साथ ईदी पाते हैं, खुशी से खिल उठते हैं। उनकी सफेद कुर्ते, रंगीन शेरवानी, लहंगा-सूट, नन्हें-नन्हें हाथों पर खनकती चूडियां गली मोहल्लों की फिजा रोशन करते नजर आती हैं। लेकिन इस बार ऐसा नहीं होगा, क्योंकि दुनिया गमगीन हैं, सहमी हुई है, कोरोना के साये में। कोरोना का कहर इस कद्र बरपा है, कि गली मोहल्लों में वीरानियत है, जैसा की आम रमजान में देखनों को मिलती थी इस बार ऐसा नहीं है। इसबार की ईद कुछ हट के होगी, रमजान में घरों से कसरत से इबादत और अमन व दुनिया की सलामती की दुआऐं की जा रही है, ताकि रब इस महामारी से दुनिया को बाहर आने में कामयाबी दे। यकीनन ईद दुआओं और त्याग की ही तो दूसरा नाम है।
तमाम कायनात खौफ के साये में है। बच्चे, बडे-बूढें घरों में बंद हैं, यही इस लाइलाज महामारी का निश्चित रूप से तोड़ भी है। लेकिन ईद की खुशियां तो बांटने से बढती हैं, बचपन से लेकर अब तक अपने बडों को रमजान में अपने से पहले, दूसरों की जरूरतों का ध्यान रखते हुए देखते आये हैं। यही हमारी संस्कृति की सच्ची-पक्की सीख है। ईद मिलने-मिलाने का त्यौहार है, गिले-शिकवे मिटाकर गले मिलने का त्यौहार है। पिछली एक सदी ने इतने बडे संकट का सामना नहीं किया, शायद इसलिए आज हमें कुछ परेशानियों का सामना भी करना पड सकता है, लेकिन ईद अल्लाह की राह पर त्याग का नाम है। खुदा ने चुनौतियां तो दी हैं, लेकिन उन्हें अवसर में बदलने के लिए प्रेरणा भी दी है। हजरत मोहम्मद साहब अकसर ईद की खुशियां उन गरीब, यतीम बच्चों के साथ साझा करते थे, जिनके वालिदैन इन्तेकाल कर गये होते थे, वो हर उस शख्स की मदद को हर वक्त तत्पर रहते थे, जिनके पास कुछ तकलीफ या परेशानी रहती थी। निश्चित तौर पर इस बार की ईद कुछ खास है, ज्यादा इबादत और ज्यादा नेकियां इकटठी करने वाली।
बेशक इस बार की ईद में वो रंग न दिखे, लेकिन लोगों की पहले से भी ज्यादा मदद करक,े उनके चेहरों की मुस्कान बनकर रंगीन होगी इस साल की ईद, जो नेकी का जरिया भी बनेगा और आखरत का अच्छा बन्दोबस भी करेगा। मुश्किल के इस दौर में महान उपन्यासकार मुंशी प्रेमचन्द की कहानी ईदगाह वर्तमान परिपेक्श में रोशनी डालती नजर आती है। जिसमें हामिद और उसकी दादी अमीना ईद की खुशियां तंगदस्ती में मनाने की कोशिश करती हैं। मुश्किल के वक्त बाजार की चकाचैंध से इतर तीन आने की ईदी की शानदार खरीदारी जो उस वक्त का हामिद की समझदारी से किया गया बेहतरीन चुनाव भी था, और उसकी दादी अमीना के हाथों को सुरक्शित रखने का जरिया भी था।
आज की इस महामारी की समस्या में बाजार और खरीदार के अनसुलझे प्रश्नों को हल करने वाला है। देश मे पहली बार इतना बडा संकट आया है, सडकों में खस्ता हाल मजदूर जिनके पांवों के जख्म सडकों पर सदियों तक अपने निशान छोड जाएगे, हादसे में बिखरी लाशों को जगाते मासूम बच्चों की तस्वीर पूरी कायनात को गमजदा करने वाली हैं, कोरोना अपने साथ भूख का संकट लेकर आया है, मई की तपिस में मीलों भूखे-प्यासे सफर तय करना मौत को दावत देने वाला साबित हो रहा है। ऐसे में ईद एक जिम्मेदारी लेकर आयी है, लोगों की मदद का, उनकी तकलीफों को कम करने का। जो मुंशी प्रेमचन्द ने बरसों पहले अपनी कहानी ‘ईदगाह‘ में दर्ज करायी थी। ईद की जिम्मेदारी बाजार की समझदार खरीद पर निर्भर है। जिम्मेदारी ज्यादा है, तो नेकियां भी ज्यादा होगी चलो इसबार कुछ और बेहतर करते हैं, अपनी जरूरत का एक बडा हिस्सा इन जरूरत मंदों तक पहुंचाते हैं, क्योंकि ईद की खुशियां तो बांटने से बढती हैं। यकीनन ईद अल्लाह का ईनाम है, जो त्याग का ही दूसरा नाम है।
(लेखिका युवा एडवोकेट हैं।)

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