संपादकीय

सरकारी लापरवाहियों से पनपते हैं उग्रवादी

-विमल वधावन योगाचार्य,
एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट
कनाडा का एक नागरिक मोहम्मद अब्दुल मोईद मूलतः भारत में पैदा हुआ था और बाद में कनाडा जाकर बस गया। वर्ष 2001 में उसे कनाडा की नागरिकता मिल गई। भारत में उसे ‘विदेशी भारतीय नागरिक’ का दर्जा दिया गया था। मोईद की एक भारतीय पत्नी थी और कनाडा में जाकर उसने एक कनेडियन महिला से भी विवाह रचाया। दोनों विवाहों से कुल मिलाकर उसके सात बच्चे हुए। मोईद की माँ हैदराबाद के एक सरकारी विद्यालय में अध्यापिका थी। मोईद ने इंजीनियरिंग की शिक्षा भारत में ही प्राप्त कर ली थी। वर्ष 2015 में जब मोईद कनाडा से लन्दन होते हुए भारत के हैदराबाद हवाई अड्डे पर उतरा तो उसे अधिकारियों से पता लगा कि भारत में उसके प्रवेश पर प्रतिबन्ध लग चुका है इसलिए उसे कनाडा वापिस जाना पड़ेगा। इस प्रकार उसे शहर में प्रवेश किये बिना कनाडा वापिस जाना पड़ा। इस घटना के विरुद्ध उसने भारत सरकार को पत्र लिखे और उसके भाई ने सूचना के अधिकार के अन्तर्गत केन्द्र सरकार से उन पत्रों की प्रतिक्रिया प्राप्त करने की कोशिश की। मोईद ने इस सारे घटनाचक्र को लेकर दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष अपनी रिट् याचिका प्रस्तुत की।
केन्द्र सरकार ने अदालत को बताया कि हरियाणा के मेवात जिले के पुलिस अधीक्षक की रिपोर्ट के आधार पर मोईद के नाम को ग्रेड-बी नामक काली सूची में डाल दिया गया था, क्योंकि उसने वीजा शर्तों का उल्लंघन किया था। वह हरियाणा के मेवात जिले में कई मस्जिदों में घूमता रहा और अनेकों लोगों से मिलकर तबलीगे-जमात का प्रचार करता रहा। सरकार का कहना था कि जो व्यक्ति पर्यटन वीजे पर आता है उसे इस प्रकार की गतिविधियों में भाग लेने का अधिकार नहीं दिया जा सकता। ग्रेड-बी सूची वाले व्यक्तियों को भारत में 10 वर्ष तक प्रवेश नहीं करने दिया जाता और इस सूची पर पुनर्विचार 5 वर्ष बाद किया जा सकता है। अतः याचिकाकर्ता के नाम को सूची से हटाने की प्रक्रिया केवल वर्ष 2020 में ही की जा सकती है। पुलिस की इस रिपोर्ट के आधार पर याचिकाकर्ता को गिरफ्तार करने के स्थान पर कनाडा वापिस भेज दिया गया था। याचिकाकर्ता को इस सारे प्रकरण की सूचना दे दी गई थी। वैसे भी केन्द्र सरकार को यह निर्णय लेने का अधिकार है कि भारत में किस विदेशी नागरिक को प्रवेश करने दिया जाये और किसे नहीं।
याचिकाकर्ता ने इस सम्बन्ध में कई सरकारी कमजोरियों का लाभ उठाने का प्रयास किया। जैसे यदि उसकी गतिविधियाँ वीजा शर्तों का उल्लंघन सिद्ध करती थी तो उसे वर्ष 2015 में गिरफ्तार क्यों नहीं किया गया? उसे ग्रेड-बी की सूची में डालने के बावजूद भी उसे ‘विदेशी भारतीय नागरिक’ का दर्जा देने वाला कार्ड क्यों नहीं निरस्त किया गया? ‘विदेशी भारतीय नागरिक’ का दर्जा देने वाला यह कार्ड वास्तव में आजीवन वीजे का अधिकार देता है। याचिकाकर्ता का यह कार्ड आज तक भी वैध है।
सरकार की तरफ से केवल एक ही तर्क पर बार-बार जोर डाला गया कि याचिकाकर्ता पर्यटन वीजा के अनुसार केवल देश में भ्रमण कर सकता है, तबलीगे-जमात जैसी धर्म प्रचार गतिविधियों में शामिल नहीं हो सकता। उच्च न्यायालय ने वीजा मैनुअल के एक प्रावधान को भी विशेष रूप से स्वीकार किया कि जो विदेशी भारत यात्रा के दौरान तबलीगे-जमात जैसी गतिविधियों में भाग लेने के इच्छुक हों उन्हें गृह मंत्रालय से इसकी पूर्व अनुमति लेनी होती है। इस स्वीकृति के लिए उसे उन स्थलों का विवरण देना होता है जहाँ वह ऐसी धर्म प्रचार गतिविधियों में भाग लेगा। जबकि पुलिस रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि उसने न केवल भारत के भिन्न-भिन्न शहरों की मस्जिदों में जाकर इस्लामिक भाईचारे को मजबूत करने की गतिविधियाँ संचालित की, उसने पारम्परिक इस्लाम के पक्ष मे एकजुटता की अपीलें भी की। इतना ही नहीं उसने अमेरिका तथा अन्य पश्चिमी देखों के विरुद्ध संघर्ष के लिए भी लोगों को आह्वान किया। पुलिस रिपोर्ट में यह सम्भावना भी व्यक्त की गई कि हो सकता है वह राष्ट्रद्रोही वर्गों को धन भी उपलब्ध कराता हो। परन्तु पुलिस अपनी इस रिपोर्ट के समर्थन में पर्याप्त प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर सकी। इन सब तर्कों के विरुद्ध अदालत ने कहा कि ऐसे संदेह होने पर भारत सरकार को कनाडा सरकार से भी याचिकाकर्ता के बारे में पूछताछ करनी चाहिए थी। यदि पुलिस की यह रिपोर्ट पर्याप्त प्रमाणों के साथ केन्द्र सरकार के समक्ष प्रस्तुत की जाती तो स्वाभाविक रूप से केन्द्र सरकार उसे ‘विदेशी भारतीय नागरिक’ का कार्ड रद्द करने की कार्यवाही करती।
उच्च न्यायालय ने याचिकाकर्ता के भारत में बसने वाले परिवार में उसके चार बच्चे और वृद्ध माँ तथा पत्नी की भारतीय नागरिकता के दृष्टिगत कहा कि अपने परिवार को मिलने के लिए भारत आना याचिकाकर्ता का अधिकार है। यदि याचिकाकर्ता वास्तव में गैर-कानूनी कार्यों में संलिप्त था तो उसके विरुद्ध पर्याप्त छानबीन की जानी चाहिए थी। सरकार ने उसे सुनवाई का मौका दिये बिना ही सभी कार्यवाहियाँ सम्पन्न की है। इन परिस्थितियों में उच्च न्यायालय ने सरकार को निर्देश दिया कि याचिकाकर्ता की सुनवाई करने के उपरान्त उसके नाम को ग्रेड-बी सूची में शामिल करने के निर्णय पर पुनर्विचार करे। याचिकाकर्ता की सुनवाई कनाडा स्थित भारतीय दूतावास से वीडियो के द्वारा सम्पन्न करने का निर्देश दिया गया। न्यायालय ने सरकार को कहा कि याचिकाकर्ता के किसी आपराधिक गतिविधि में शामिल होने या उसकी छवि के बारे में भी विस्तृत पूछताछ की जाये। न्यायालय ने कहा कि इस सारे तथ्यों और तर्कों को देख-सुनकर यह लगता है कि जैसे केवल मुस्लिम होने के कारण ही उसके साथ इस प्रकार का व्यवहार किया गया।
यदि मोईद वास्तव में देशद्रोही या समाजविरोधी गतिविधियों में शामिल व्यक्ति था तो पुलिस को उससे सम्बन्धित हर प्रकार के प्रमाण एकत्र करके केन्द्र सरकार के समक्ष प्रस्तुत करने चाहिए थे। पुलिस और प्रशासन प्रारम्भिक अवस्था में जब ऐसी ठोस कार्यवाहियाँ नहीं करता तो स्वाभाविक रूप से कई ऐसे लोग भी अनजाने में सरकारी लापरवाहियों का शिकार हो जाते हैं जो सामान्य स्तर के प्रचारक ही होते हैं। परन्तु निराधार तर्कों के बल पर किया गया सरकारी अत्याचार सामान्य लोगों को भी उग्रवाद के मार्ग पर जाने के लिए मजबूर कर देता है।

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