संपादकीय

जमीन पर अमेरिका

-सिध्दार्थ शंकर
कोरोना वायरस के संकट ने जिस देश को सबसे ज्यादा प्रभावित किया, वह अमेरिका है। यह अमेरिका जो खुद को दुनिया की सबसे बड़ी महाशक्ति बताता था। दुनियाभर के संगठनों पर अपनी दादागिरी चलाता था, मगर अब तस्वीर बदल चुकी है। अब खुद की ताकत पर इतराने वाला अमेरिका जमीन पर है। उसे दूसरे देशों के आगे हाथ फैलाने से भी गुरेज नहीं है। कोरोना की सबसे कारगर दवा हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन को लेकर अमेरिका की छटपटाहट जिस तरह की दिखी, उसे कोई भी अनजान नहीं है। दवा न देने पर भारत को धमकी और मिल जाने पर भारत की तारीफ में कसीदे पढना ट्रंप का नया रूप है। हालांकि, यह अनायास भी नहीं है। अमेरिका में कोरोना का संकट ऐसे समय आया है, जब वहां कुछ माह बाद चुनाव होने वाले हैं। डोनाल्ड ट्रंप की लोकप्रियता पहले से ही गिरी है, अब कोरोना की लड़ाई में फेल होना उनके लिए मुश्किलें खड़ी करने वाला है। मगर यह समय भारत के लिए फायदे का सौदा बनकर आया है। दवा की सप्लाई कर भारत ने मुश्किल वक्त में अमेरिका पर मानवीयता का कर्ज लाद दिया है, वहीं अपना बरसों पुराना कर्ज भी उतार दिया है। अगर थोड़ा पीछे जाएं तो पता चलेगा कि कभी अनाज की कमी से जूझ रहे भारत ने अमेरिका से मदद मांगी थी। 1951 में देश के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अनाज की कमी से जूझ रहे देश के लिए अमेरिका से मदद मांगी थी। 12 फरवरी 1951 को तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति हैरी एस ट्रूमैन ने भारत को अनाज की कमी से निपटने के लिए कांग्रेस में भारत को 20 लाख टन आपात मदद की अनुशंसा की थी। हालांकि, तब अमेरिका द्वारा भारत को भेजे गए लाल गेंहू को लेकर आलोचना भी हुई थी, मगर भारत मरता क्या न करता वाली स्थिति में था और मदद स्वीकार की। लेकिन बिना मतलब की इस मदद को अमेरिका तब से उपकार के रूप में देख रहा था और हर मौके पर जिक्र करता रहता था। अमेरिका भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के गुटनिरपेक्षता के सिद्धांत से चिढ़ता रहा था। इसके अलावा चीन को लेकर भारत की नीति, कोरियाई युद्ध, पश्चिम उपनिवेशवाद और अन्य मुद्दों पर भारत के रुख अमेरिका और नई दिल्ली के बीच रिश्तों को तल्ख बना रहे थे।
बता दें कि 1951 में ट्रूमैन को लगा था कि भारत को अनाज संकट के दौरान मदद करके उसे अहसास दिलाया जा सकता है कि नई दिल्ली का असली हित पश्चिमी देशों संग है। अमेरिकी कांग्रेस ने लंबी बहस के बाद भारत को अनाज भेजने को अपनी रजामंदी दे दी थी। 1951 से 2020 तक करीब 70 सालों में बहुत कुछ बदल चुका है। भारत आज खाद्यान उत्पादन आत्मनिर्भर हो चुका है। लेकिन अब हो रहा है उल्टा। अमेरिका भारत के सामने एक दवाई के लिए हाथ फैला रहा है और भारत उसे जल्द ही यह दवा उपलब्ध कराने वाला है।
कोरोना महामारी के भयानक संकट के दौर से गुजर रहे अमेरिका को हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन के निर्यात को भारत सरकार की मंजूरी मिलने के बाद पीएम मोदी की तारीफ कर रहे हैं। ट्रंप काफी खुश हैं। बुधवार को ट्वीट कर ट्रंप ने भारत के प्रति अपनी कृतज्ञता जाहिर की। उन्होंने पीएम मोदी और भारतीय लोगों का धन्यवाद करते हुए अपने ट्वीट में कहा कि भारत की इस मदद को भुलाया नहीं जाएगा। माना जा रहा है कि मलेरिया की यह दवा कोरोना से लडने में कारगार है। हालांकि न तो वैज्ञानिक और न ही डॉक्टर इस बात की पुष्टि कर रहे हैं।
अब जो हो अमेरिका अभी तो जमीन पर है और इस समय का फायदा भारत को अपने हिसाब से उठाना चाहिए। अमेरिका जहां की स्वास्थ्य प्रणाली को बेहद उत्कृष्ट माना जाता है। भारत के धनकुबेर इलाज के लिए सबसे पहले अमेरिका ही भागते हैं। वहीं भारत में स्वास्थ्य ढांचा पहले ही संक्रमण काल से गुजर रहा था। स्वास्थ्य में खर्च बेहद कम है। महानगरों की बात छोड़ दें तो छोटे शहरों और गांवों में स्वास्थ्य सेवाओं की हालत किसी से छिपी नहीं है। बड़ी
बीमारियों की छोड़िए, सीजलन बीमारियों पर भी काबू पाने में समय लगता है, मगर कोरोना के मामले में भारत न सिर्फ अमेरिका बल्कि उन देशों के सामने भी बड़ा उदाहरण बनकर सामने आया है, जिन्हें अपनी स्वास्थ्य प्रणाली पर नाज था। ब्रिटेन, जापान, फ्रांस, जर्मनी जैसे देशों की हालत क्या है, यह बताने की जरूरत नहीं। लिहाजा भारत को इस मौके का फायदा उठाते हुए स्वास्थ्य के क्षेत्र में मजबूती से काम करना चाहिए। कोरोना से हमें जो सबक मिले हैं, उन्हें याद रखते हुए भविष्य की तैयारी करनी चाहिए।

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